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महाराणा प्रताप || राजस्थान और मुगल सम्बन्ध || राजस्थान इतिहास



राजस्थान और मुगल (राणा सांगा, महाराणा प्रताप, मानसिंह, चंद्रसेन, रायसिंह, राजसिंह) 

भारत में मुगल सत्ता का संस्थापक बाबर था, जिसने 1526 ई. में पानीपत के प्रथम युद्ध में लोदी सुल्तान इब्राहीम लोदी को परास्त करके मुगल साम्राज्य की स्थापना की थी। आगे के पृष्ठों में हम मुगलों के साथ राणा सांगा, राणा प्रताप, मानसिंह, चंद्रसेन व रायसिंह के संबंधों का अध्ययन करेंगे।

प्रिय पाठकों,........इस पोस्ट में हमने  राजस्थान इतिहास के महत्वपूर्ण बिंदुओं को क्रमवार समाहित किया गया है। यदि आपको हमारे द्वारा किया गया यह प्रयास अच्छा लगा है, तो इस पोस्ट को अपने साथियों के साथ अवश्य साझा करें। आप अपने सुझाव नीचे कमेंट बॉक्स में दर्ज कर सकते है। जिससे हम  राजस्थान इतिहास के आगामी ब्लॉग को और बेहतर बनाने की कोशिश कर सकें।


                राणा सांगा :-   यहा   से  पढ़े 

                महाराणा प्रताप :-   यहा  से   पढ़े 

                मानसिंह :-   यहा  से  पढ़े 

                चंद्रसेन,:-   यहा  से  पढ़े

                रायसिंह :-   यहा  से  पढ़े 

                राजसिंह   :-   यहा  से  पढ़े

                     महाराणा प्रताप

महाराणा प्रताप (1572-1597 ई.) और अकबर के संबंध-

* महाराणा प्रताप राणा उदयसिंह के ज्येष्ठ पुत्र थे। प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 (ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया को) को कुम्भलगढ़ के प्रसिद्ध 'बादल महल' में हुआ। (जूनी कचहरी)

* राणा प्रताप को माता जैवन्ता बाई (पाली के अखैराज सोनगरा की पुत्री) थी।

Note :- इस पोस्ट के  माध्यम से हम इसकी सम्पूर्ण जानकारी के बारे मे चर्चा करेंगे और हम इसके प्रमुख बिन्दु, बिन्दु का सार , और इसके बारे मे प्रमुख रूप से जानकारी को विस्तार से   चर्चा करेंगे ?

* राणा प्रताप बचपन में 'कीका' नाम से सम्बोधित किया जाता था जो बागड़ी भाषा में 'छोटे बच्चे' के लिए प्रयुक्त होता है।

* 17 वर्ष की उम्र में प्रताप का विवाह रामरख पवार की पुत्री अजबदे के साथ हुआ, जिससे कुंवर अमरसिंह का जन्म हुआ।

* जब उदय सिंह की मृत्यु हुई उस समय राणा प्रताप की उम्र 32 वर्ष की थी।

* उदय सिंह ने भटियाणी रानी धीर बाई पर विशेष अनुराग होने के कारण उसके पुत्र जगमाल को अपना युवराज बनाया था। रानी के आग्रह से तथा कुछ सरदारों के सहयोग से जगमाल का राजतिलक कर दिया गया।

* किंतु मेवाड़ के सरदारों ने जगमाल के राजतिलक का विरोध किया, वे प्रताप को अपना शासक बनाना चाहते थे।

* ग्वालियर के राजा रामसिंह और पाली के अखैराज सोनगरे ज्यों ही गोगुन्दा लौटे, प्रताप को महाराणा घोषित कर दिया तथा गोगुन्दा में राणा प्रताप का 32 वर्ष की आयु में 28 फरवरी, 1572 को राज्याभिषेक किया गया। इस दिन होली का त्यौहार भी था। इस अवसर पर रावत कृष्णदास ने प्रताप की कमर पर राजकीय तलवार बांधी।

* प्रताप ने मेवाड़ के सिंहासन पर 25 वर्षों (फरवरी, 1572-जनवरी, 1597 ई.) तक शासन किया।

* प्रताप का विधिवत राज्याभिषेक कुंभलगढ़ में हुआ था, जिसमें मारवाड़ के चंद्रसेन भी शमिल हुए थे।

* प्रताप के शासक बनने पर जगमाल अप्रसन्न होकर अकबर के पास पहुँचा, जिसने उसे पहले जहाजपुर और बाद में आँधी की जागीर दे दी। जब जगमाल को 1583 ई. में सिरोही का आधा राज्य दे दिया गया तो उसका साला राव सुरताण (सिरोही का शासक) उससे नाराज हो गया। एक दिन अवसर पाकर सुरताण ने जगमाल पर हमला कर दिया और जगमाल की 1583 ई. में दताणी के युद्ध में मृत्यु हो गयी।

राणा प्रताप और अकबर के संबंध -

* इस समय दिल्ली पर मुगल बादशाह अकबर का शासन था। प्रताप के सामने दो मार्ग थे या तो वह अकबर की अधीनता स्वीकार कर सुविधापूर्ण जीवन बिताये या अपना स्वतंत्र अस्तित्व और अपने देश की प्रतिष्ठा बनाये रखे। दूसरा विकल्प चुनने की स्थिति में उन्हें अनेक कष्ट उठाने थे, फिर भी प्रताप ने दूसरे विकल्प 'संघर्ष' को ही चुना।

- इस संघर्ष की तैयारी में उन्होंने सबसे पहले मेवाड़ को संगठित करने का बीड़ा उठाया। अपने कर्त्तव्य और विचारों से उन्होंने सामन्तों और भीलों का एक गुट (भीलों के नेता राणा पूंजा भील के नेतृत्व में) बनाया जो सदैव देश की रक्षा के लिए उद्यत रहे। प्रताप ने प्रथम बार भीलों को सैन्य व्यवस्था में उच्च पद देकर इनके सम्मान को बढ़ाया।

* राणा प्रताप ने मुगलों से दूर रहकर युद्ध का प्रबन्ध करने के लिए गोगुन्दा से अपनी राजधानी कुम्भलगढ़ ले गये। अकबर ने राणा प्रताप को अपने अधीन करने हेतु प्रारम्भ में बातचीत का सहारा लिया और अपने विभिन्न दूतों को उनके पास भेजा।

अकबर द्वारा राणा के पास भेजे गए "चार" शिष्ट मण्डल 

* अकबर ने अपनी गुजरात विजय के बाद 1572 ई. में अपने मनसबदार जलाल खाँ को राणा प्रताप के पास इस आशय से भेजा कि वह (राणा) अकबर की अधीनता स्वीकार कर ले।

* अकबरनामा और इकबालनामा के अनुसार जब मानसिंह गुजरात से 1573 ई. में लौट रहा था तो उसे आदेश दिया गया कि वह उदयपुर जाकर राणा प्रताप को समझाये कि वह अकबर की सर्वोपरि शक्ति को मान्यता दे और शाही दरबार में उपस्थित हो।

* जब मानसिंह ने राणा को इस संबंध में टटोला तो उसने अकबर की अधीनता मानने से मना कर दिया।

* इसके बाद इसी आशय से दो और पैगाम महाराणा के पास भगवन्तदास तथा टोडरमल के नेतृत्व में भेजे गये, परन्तु पहले की भाँति वे भी विफल रहे।

* रावल राणाजी की बात के अनुसार मानसिंह और राणा के वार्तालाप और व्यवहार के संबंध की घटना उदयसागर पर होना बताया है। कर्नल टॉड, अमरकाव्य वंशावली (रणछोड़ भट्ट) व राज रत्नाकर (भट्ट सदाशिव) ने भी इसका समर्थन किया है।

* बताया जाता है कि यहाँ एक भोज का आयोजन राणा की तरफ से आतिथ्य के रूप में किया गया था, जिसमें राणा ने स्वयं उपस्थित न होकर अपने कुंवर अमरसिंह को भेजा।

* मानसिंह ने इसे अपना अपमान समझा और वह बिना भोजन किए वहाँ से चला गया और इस घटना के बाद अपमान का बदला लेने के लिए मुगल सेना को लेकर मेवाड़ में आ धमका।

* मानसिंह और प्रताप के मिलने का स्थान अबुल फजल ने गोगुन्दा दिया है।

राणा प्रताप व अकबर के प्रतिनिधि मंडल

अकबर का दूत मिलने का समय
अकबर का दूत1. जलाल खाँ मिलने का समयसितम्बर-नवम्बर, 1572 ई.
अकबर का दूत2. मान सिंह मिलने का समयजून, 1573 ई.
अकबर का दूत3. भगवंत दास मिलने का समयसितम्बर-अक्टूबर, 1573 ई.
अकबर का दूत4. टोडरमल मिलने का समयदिसम्बर, 1573 ई.

  हल्दीघाटी (राजसमंद) का युद्ध (18 जून, 1576)    

* राणा प्रताप को मनाने के सभी प्रयास विफल होने पर अंततः अकबर मेवाड़ पर आक्रमण करने की योजना को कार्यरूप में परिणत करने के लिए मार्च 1576 में स्वयं अजमेर पहुँचा एवं मानसिंह को मेवाड़ आक्रमण की जिम्मेदारी सौंपी।

* अबुल फजल एवं बदायूँनी के अनुसार 3 अप्रैल, 1576 ई. को मानसिंह अजमेर से रवाना होकर माण्डलगढ़, मोही आदि मुकामों से गुजरता हुआ खमनौर के पास मोलेला गाँव पहुँचा।

* महाराणा प्रताप ने भी लोहसिंह में अपने डेरे डाले। अकबर की ओर   से सेनानायक कुँवर मानसिंह कच्छवाहा एवं राणा प्रताप की और से   पठान हाकिम खाँ सूर थे।

* मानसिंह को प्रधान सेनापति बनाये जाने से मुगलों में नाराजगी थी, जैसा कि बदायूंनी हमें बताता है, कि उसने जब अपने संरक्षक नकीब खाँ को युद्ध में चलने को कहाँ, तो उसने यह कहते हुए मना कर दिया कि एक हिन्दू के सेनापति होने के कारण वह नहीं जायेगा।

* जब महाराणा को दुरसा पूरबिया तथा नेता सीसोदिया ने यह सूचना दी कि शत्रु की फौजें बनास के तट पर आ डटी है तो वह भी हल्टीघाटी के नाके के दूसरी ओर अपनी सेना को ले आया।

* उसने अपनी सेना का विभाजन पांरपरिक पद्धति से हरावल, चंदावल वामपार्श्व तथा दक्षिण पार्श्व में स्थानीय विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए किया था।

* हरावल का नेता हकीम सूर था। उसके सहयोगी मेवाड़ के चुने हुए सामन्त थे जिनमें सलूम्बर का चूण्डावत कृष्णदास, सरदारगढ़ का भीमसिंह, देवगढ़ का रावत साँगा और बदनौर का रामदास (जयमल का पुत्र) मुख्य थे।

* ग्वालियर का शासक राम शाह दक्षिण पार्श्व में अपने तीन पुत्रों और अन्य योद्धाओं के साथ था।

* वाम पार्श्व को नेतृत्व मानसिंह झाला ने किया। इसके सहयोगी बड़ी सादड़ी का झाला बीदा और जालौर का मानसिंह सोनगरा (अक्षय राज का पुत्र) था।

* चंदावल में पानरवा का पूंजा था और उसके साथी पुरोहित गोपीनाथ, जगन्नाथ, महता रत्नचंद महासानी जगन्नाथ और सोनियाने के चारण केशव तथा जैसा थे।

* राणा प्रताप केन्द्र में थे और उनके साथ मंत्री भामाशाह और उसका भाई ताराचन्द्र थे।

* भील पदाति अपने तीर, कमान, छोटी तलवार और शत्रुओं पर बरसाने के पत्थरों को लेकर आस-पास की पहाड़ियों पर पूंजा के नेतृत्व में जा बैठे।

* 18 जून, 1576 ई. को प्रातः युद्ध भेरी बजी। पहला वार इतना जोशीला था कि मुगल सैनिक चारों ओर जान बचाकर भाग गये।

* अपने पहले मोर्चे में सफल होने से राजपूत बनास नदी के काँठे वाले मैदान में, जिसे रक्त ताल कहते हैं, आ जमे। यद्यपि ग्वालियर के राजा रामसहाय की सलाह थी, कि मुगल सेना से आमने-सामने लड़ने के बजाय उन्हें गुरिल्ला युद्ध में उलझा कर हराया जाये, पर उनकी बात न सुनी गई।

* दोपहर का समय हो गया। युद्ध की गरमागरमी को, जैसे बदायूँनी लिखता है, सूर्य ने अपनी तीक्ष्ण किरणों से अधिक उत्तेजित कर दिया, जिससे खोपड़ी का खून उबलने लगा।

* सभी ओर से योद्धाओं की हलचल से भीड ऐसी मिल गयी कि शत्रु सेना के राजपूत और मुगल सेना के राजपूतों को पहचानना कठिन हो गया।

* इस समय बदायूनी ने आसफ खाँ (मुगल सेनापति) से पूछा कि ऐसी अवस्था में हम अपने और शत्रु के राजपूतों की पहचान कैसे करें?

* उसने उत्तर दिया कि तुम तो अपना वार करते जाओ, चाहे जिस पक्ष का भी राजपूत मारा जाये, इस्लाम को हर दशा में लाभ होगा।

* इस युद्ध का एक रोचक पहलू दोनों पक्षों के हाथियों के बीच जोरदार संघर्ष भी रहा है।

* मुगलों की ओर से 'गज-मुक्ता', 'गजराज' व 'रणमंदर (रनमदार)' नामक हाथियों को प्रयुक्त किया गया, वहीं राणा प्रताप ने 'लूणा व रामप्रसाद' नामक हाथियों को मैदान में उतारा।

•   रामप्रसाद नामक हाथी इस संघर्ष में मुगलों के हाथ लगा, जिस पर मुगल सेनापति हुसैन खाँ ने कब्जा कर लिया था। इसका नाम बदलकर पीर प्रसाद रख दिया गया।

* इस हाथी युद्ध का वर्णन अबुल फजल व बदायूंनी दोनों ने किया है।

* इधर दूसरी ओर राणा प्रताप जो अपने प्रिय घोड़े चेतक पर सवार था, ने मानसिंह, जो 'मरदाना' नाम हाथी पर सवार था, पर आक्रमण कर दिया।

* राणा प्रताप के घोड़े चेतक ने अपने अगले दोनों पैर 'मरदाना' के मस्तिष्क पर टिका दिये, और राणा प्रताप ने भाले से मानसिंह पर आक्रमण किया, पर मानसिंह झुककर बच गया। (इस आक्रमण का वर्णन अमर काव्य वंशावली में मिलता है।)

* इसी समय मानसिंह के हाथी की सैंड से बंधी तलवार से चेतक के पैर पर चोट लगी तथा वह घायल हो गया, साथ ही प्रताप के शरीर पर दो घाव लगे।

* राणा प्रताप को मुसिबत में देखकर बड़ी सादड़ी का झाला बीदा (झाला माना) आगे आया, और राणा का छत्र धारण करके राणा को वहाँ से सुरक्षित निकालने में सफल रहा।

* शत्रु सेना झाला बीदा को राणा प्रताप समझकर टूट पड़ी, और वह वीरगति को प्राप्त हुआ।

* टूटी टाँग के घोड़े से राणा अधिक दूर नहीं पहुंचा था कि मार्ग में ही घाटी के दूसरे नाके के पास चेतक की मृत्यु हो गयी। यह स्थान बलीचा था। जहाँ राणा ने उसकी समाधी बनवाई।

* बलीचा (राजसमंद में आज भी चेतक की समाधी स्थित है।

* इस घटना के साथ बताया जाता है कि शक्तिसिंह भी जो मुगल दल के साथ उपस्थित था, किसी तरह बचकर जाते हुए राणा के पीछे चल दिया और अपने घोड़े को उसे देकर अपने कर्तव्य का पालन किया। इस घटना का उल्लेख अमर काव्य वंशावली तथा राजप्रशस्ति में मिलता है।

* अबुल फजल इस युद्ध को 'खमनौर का युद्ध' तो बदायूंनी ने अपने ग्रंथ मुन्तखब उत तवारिख में इसे 'गोगुन्दा का युद्ध' कहा है। कर्नल टॉड इसे 'हल्दी घाटी का युद्ध' कहता है और हल्दीघाटी की तुलना यूनान के प्रसिद्ध थर्मोपल्ली के मैदान से करते हुए, इसे 'मेवाड़ की थर्मोपल्ली' कहता है।

* इस लड़ाई के उपरान्त ही राणा प्रताप राजस्थान व भारत के अन्य प्रदेशों में प्रातः स्मरणीय बने। इनकी ख्याति सारे भारत में फैल गई।

* क्रान्तिकारी बंगालियों ने भी राणा को अपनी प्रेरणा का स्रोत माना। कर्नल टॉड का ऐतिहासिक ग्रन्थ बंगालियों का सर्वाधिक प्रिय ग्रन्ध बना।

* इतिहासकार आर. सी. मजूमदार ने राणा के संघर्षमय जीवन पर प्रकाश डालने हेतु 'राजपूत जीवन संध्या' नामक उपन्यास लिखा।

* विख्यात क्रान्तिकारी लेखक बंकिमचन्द्र ने 'राजसिंह उपन्यास' तथा 'मेवाड़ के दो शक्तिशाली महाराणा' नामक अमूल्य ग्रन्थ लिखा।

* बंगाल के सर्व विख्यात कवि मधुसूदन ने प्रताप की उपलब्धियों पर अपनी लेखनी चलाई।

* द्विजेन्द लाल राय ने 1905 में प्रताप सिंह नाटक प्रकाशित कराया। बंगाल में प्रताप की यह ख्याति इस युद्ध के कारण ही फैली थी।

* इस युद्ध से अकबर को मनोवांछित सफलता न मिली, और उसने नाराज होकर मानसिंह व आसफ खाँ की ड्योढ़ी बंद कर दी अर्थात् उनके दरबार पर आने पर रोक लगा दी गई।

* हल्दीघाटी युद्ध के बाद मानसिंह को गोगुंदा से वापस बुला लिया गया, राणा प्रताप ने अवसर का फायदा उठाकर गोगुंदा पर अधिकार कर लिया।

* सितम्बर 1576 में जब अकबर अजमेर आया (ख्वाजा की दरगाह पर) तो वह इस दौरान स्वयं गोगुंदा पहुँचा, और राणा से गोगुंदा वापस प्राप्त कर लिया। अकबर नवम्बर, 1576 ई. में उदयपुर आया, और उसने उदयपुर का प्रशासन जगन्नाथ कछवाहा व फखरूद्दीन को सौंपा।

  कुम्भलगढ़ का युद्ध (1578 ई.) -

* हल्दीघाटी के युद्ध के बाद राणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ को अपना केन्द्र (राजधानी) बनाकर मुगल स्थानों पर आक्रमण करना शुरू कर दिया।

* इससे कुद्ध होकर अकबर ने 1577 ई. में शाहबाज खाँ के नेतृत्व में एक सेना मेवाड़ की ओर भेजी। शाहबाज खाँ ने 1578 ई. में कुम्भलगढ़ पर आक्रमण किया।

* भीषण संघर्ष के बाद 3 अप्रैल, 1578 को शाहबाज खाँ ने कुम्भलगढ़ दुर्ग पर अधिकार कर लिया। किले की रक्षा करते हुए राव भाण सोनगरा लड़ते हुए मारा गया।

* वर्ष 1578 एवं 1579 में शाहबाज खाँ ने दो बार और मेवाड़ पर आक्रमण किया, लेकिन वह असफल रहा।

* तब जून, 1580 ई. में अब्दुर्रहीम खानखाना को अजमेर का गवर्नर बनाया गया और उसको मेवाड़ अभियान का काम भी सौंपा गया। खानखाना ने अपने परिवार को शेरपुर में छोड़ा और राणा पर चढ़ आया।

◇ ज्यों ही खानखाना आगे बढ़ा तो राणा ढोलान की ओर चला गया। इधर से कुँवर अमरसिंह ने मुगल सेनापति के ध्यान को बटाने के लिए शेरपुर पर आक्रमण कर दिया। इस अवसर पर उसे खानखाना के परिवार को बन्दी बनाने में सफलता मिली, परन्तु जब राणा को इस बात का पता चला तो उसने कुँवर को आज्ञा दी कि वह शीघ्र ही खानखाना के परिवार को सम्मान के साथ मिर्जा के निवास स्थान पर पहुँचा दे।

भामाशाह की भेंट : - मुगलों से संघर्ष के दौरान राणा के पास धन का अभाव होने लगा।

* इसी समय (1580 ई. में) 'चूलिया ग्राम' में राणा को उनका मंत्री भामाशाह मिला और भामाशाह ने अपनी निजी सम्पत्ति से राणा की 20 हजार स्वर्ण मुद्राओं से आर्थिक सहायता की। इसलिए भामाशाह को 'दानवीर' और 'मेवाड़ का उद्धारक' कहा जाता है।

दिवेर का युद्ध मेवाड़ का मैराथन (अक्टूबर, 1582) -

◆ 'अमरकाव्य' के अनुसार 1582 ई. में राणा प्रताप ने मुगलों के विरुद्ध दिवेर (कुंभलगढ़) पर जबरदस्त आक्रमण किया।

* यहाँ का सूबेदार अकबर का काका सेरिमा सुल्तान खाँ था। सुल्तान खाँ व अमर सिंह के बीच भीषण संघर्ष हुआ।

* इस संघर्ष के दौरान अमरसिंह ने सुल्तान खाँ पर भाले से इतना जबरदस्त प्रहार किया कि भाला न केवल सुल्तान खाँ वरन उनके घोड़े को भी चीरता हुआ निकल गया।

* यह देख बाकी मुगल सेना भाग खड़ी हुई। दिवेर विजय की ख्याति चारों ओर फैल गई।

* कर्नल टॉड ने इस युद्ध को 'प्रताप के गौरव का प्रतीक' माना और दिवेर युद्ध की तुलना यूनान के मैराथन युद्ध से की।

* 1585 के बाद अकबर ने मेवाड़ पर कोई आक्रमण नहीं किया।

* महाराणा प्रताप जरूर आमेर से मालपुरा (टोंक) जीतने में सफल रहे।

* इस शांतिकाल में राणा ने चावण्ड को अपनी राजधानी बनाया (1585 ई. के लगभग) जहाँ पर अनेक महल, व चामुण्डा मंदिर का निर्माण करवाया गया।

* इस समय राणा प्रताप के दरबार में चक्रपाणि मिश्र व जीवधर जैसे विद्वानों ने ख्याति प्राप्त की। चक्रपाणि मिश्र ने चार ग्रंथो राज्याभिषेक पद्धति, मुहर्त्तमाला, व्यवहारदर्श एवं विश्ववल्लभ की रचना की तथा जीवधर ने 'अमरसार' नामक ग्रंथ की रचना की।

* अन्त में पॉव में किसी असावधानी से कमान से लग जाने से राणा प्रताप अस्वस्थ हो गया।

* 19 जनवरी, 1597 ई. को 57 वर्ष (9 महीने, 56 वर्ष) की आयु में राणा की मृत्यु हो गयी।

* महाराणा प्रताप की मृत्यु का समाचार अकबर के कानों तक पहुँचा तो उसे भी बड़ा दुख हुआ। इस स्थिति का वर्णन अकबर के दरबार में उपस्थित दुरसा आढ़ा ने इस प्रकार किया -

"अस लेगो अणदाग, पाग लेगो अणनामी।

गोआड़ा गवड़ाय, जिको वहतो धुरवामी ।

नवरोजे नहं गयो, न गो आतसा नवल्ली।

न गो झरोखे हेठ, जेथ दुनियाण दहल्ली।

गहलोत रापा जीती गयो, दसण मूंद रसना डसी।

नीसास मूक भरिया नयण, तो मृत साह प्रतापसी।"

* आशय यह था कि महाराणा प्राप्त तेरी मृत्यु पर बादशाह ने दांतों तले जीभ दबाई और निःश्वास से आँसू टपकाए क्योंकि तूने अपने घोड़े को नहीं दगवाया और अपनी पगड़ी को किसी के सामने नहीं झुकाया वास्तव में तू सब तरह से जीत गया।

* प्रताप का चावण्ड के पास बाण्डोली गाँव के निकट बहने वाले नाले के तट पर अंतिम संस्कार हुआ, जहाँ उसके स्मारक के रूप में एक छोटी-सी छतरी बना दी गयी।

* कर्नल टॉड द्वारा पीछोला की पाल के महलों में राणा की मृत्यु होना बताया है पर इसे सही नहीं माना जाता है।

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