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उसने कहा था कहानी pdf - चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' Usne kha tha kahani pdf

                   "उसने कहा था कहानी "

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लेखक परिचय :- 

पं. चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' = (1883 ई.-1922 ई.) उनका जन्म जयपुर में हुआ।इनकी प्रतिभा का क्षेत्र खगोल, विज्ञान, ज्योतिष, धर्म, भाषा-विज्ञान, इतिहास, शोध एवं साहित्य तक विस्तृत था। 'उसने कहा था' हिन्दी की प्रसिद्ध कहानी है, जिसका प्रकाशन 1915 ई. में हुआ था। इसके अतिरिक्त उन्होंने सुखमय जीवन' और बुद्धू का काँटा' "उसने कहा था कहानी pdf" Usne kha tha kahani आदि कहानियाँ भी लिखीं। 'कछुआ धर्म', 'मारेसि मोहि कुठांव' आदि उनकी निबंध कला के प्रतिमान हैं। उन्होंने मासिक पत्र समालोचक का संपादन किया एवं वे नागरी प्रचारिणी सभा काशी के संपादक मंडल में भी रहे। 39 वर्ष की अल्पायु में उनका निधन हो गया।


गुलेरी जी बहुभाषाविद - संस्कृत पाली प्राकृत, अपभ्रंश, वृक्ष, अवधी मराठी, गुजराती राजस्थानी पंजाबी, बांग्ला अंग्रेजी, लैटिन तथा फ्रेंच

पत्रिका संपादनक - समालोचक - (1902)
मर्यादा
*प्रतिभा
नागरी चारिणी पत्रिका

इस कहानी  के माध्यम से हम इसकी सम्पूर्ण जानकारी के बारे मे चर्चा करेंगे और हम इसके पात्र , कथासार का सार , और इसके प्रमुख उद्धरण के बारे मे विस्तार से  चर्चा करेंगे ?


                                        पाठ-परिचय


'उसने कहा था प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1918ई) की पृष्ठभूमि पर लिखी गई एक मार्मिक कहानी है, जिसका कथानक प्रेम, त्याग और कर्तव्यनिष्ठा को केन्द्र में रखकर बुना गया है। अमृतसर के बाजार का दृश्य, बालक-बालिका का बालसुलभ निश्छल प्रेम, महायुद्ध का वातावरण और लहनासिंह के आत्मोत्सर्ग आदि के वर्णन में गहरा मनोवैज्ञानिक पुट है। यह कहानी प्रारंभिक चहल-पहल से लेकर प्रेम और कर्तव्य का विकट पथ पार करती हुई मृत्यु-शैया पर समाप्त होती है। यह उत्सर्ग प्रेम-वेदना जनित नहीं, बल्कि कत्र्तव्य की प्रसन्नता है। आंचलिक शब्दों के साथ यथार्थ वर्णन व उत्कट भाव-व्यंजना से यह कहानी हिन्दी साहित्य की विशिष्ट धरोहर है।

मुख्य पात्र - लहनासिंह
कहानी की नायिका- सूबेदारनी
सहायक पात्र - हजारा सिंह - पलटन का सूबेदार
वजीरा सिंह- पलटन का विदूषक लपटन साहब- अफसर

बोधासिंह - हजारा सिंह और सूबेदारनी का बेटा एवं पलटन का सिपाही

                               कहानी के कुल भाग - 4

                                            (भाग -1) 

बड़े-बड़े शहरों के इक्के-गाड़िवालों की जवान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बूकार्ट वालों की बोली का मरहम लगाएँ।

जब बड़े-बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-सम्बन्ध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरे को चींधकर अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लड्ढी वाले के लिए ठहर कर सन्न का समुद्र उमड़ा कर 'बचो खालसाजी।' 'हटो भाई जी।' 'ठहरना भाई जी।' 'आने दो लाला जी।' 'हटो बाछा।' कहते हुए सफेद फेटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्नें और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खेते हैं।

क्या मजाल है कि 'जी' और 'साहब' बिना सुने किसी को हटना पड़े। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं, पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई।

यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं 'हट जा जीणे जोगिए; हट जा करमा वालिए; हट जा पुतां प्यारिए; बच जा लम्बी वालिए।' समष्टि में इनके अर्थ हैं, कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिये के नीचे आना चाहती है? बच जा।

ऐसे बम्बूकार्टवालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की एक दुकान पर आ मिले। उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिक्ख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था, और यह रसोई के लिए बड़ियाँ। दुकानदार एक परदेसी से गुंध रहा था, जो सेर-भर गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना हटता न था।

"तेरे घर कहाँ है?"

"मगरे में; और तेरे?"

" माँझे में; यहाँ कहाँ रहती है?"

इतने में दुकानदार निबटा, और इनका सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनों साथ-साथ चले। कुछ दूर जा कर लड़के ने मुसकराकार पूछा, "तेरी कुड़माई हो गई?"

इस पर लड़की कुछ आँखें चढ़ा कर 'घत्' कह कर दौड़ गई, और लड़का मुँह देखता रह गया।

दूसरे-तीसरे दिन सब्जीवाले के यहाँ, दूधवाले के यहाँ अकस्मात दोनों मिल जाते। महीना-भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, 'तेरी कुड़माई हो गई?" और उत्तर में वही 'घत्' मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हँसी में चिढ़ाने के लिए पूछा तो लड़की, लड़के की संभावना के विरुद्ध बोली, "हाँ हो गई।"

"कब?"

"कल, देखते नहीं, यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू।"

लड़की भाग गई। लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छावड़ीवाले की दिन-भर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभीवाले के ठेले में दूध उड़ेल दिया। सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अन्धे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।
उसने कहा था कहानी pdf" 

                                     (भाग-2 )


"राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है। दिन-रात खन्दकों में बैठे हड्डियाँ अकड़ गई। लुधियाना से दस गुना जाड़ा और मेह और बर्फ़ ऊपर से। पिंडलियों तक कीचड़ में धँसे हुए हैं। जमीन कहीं दिखती नहीं; घंटे-दो घंटे में कान के परदे

फाड़नेवाले धमाके के साथ सारी खन्दक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है।

इस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े। नगरकोट का जलजला सुना था, यहाँ दिन में पचीस जलजले होते हैं। जो कहीं खन्दक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई, तो चटाक से गोली लगती है। न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं।"

"लहनासिंह, और तीन दिन हैं। चार तो खन्दक में बिता ही दिए। परसों 'रिलीफ' आ जाएगी और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका करेंगे और पेट भर खाकर सो रहेंगे। उसी फिरंगी मेम के बाग में मखमल का-सा हरा घास है। फल और दूध की वर्षा कर देती है। लाख कहते हैं, दाम नहीं लेती। कहती है, तुम राजा हो, मेरे मुल्क को बचाने आए हो।"

"चार दिन तक पलक नहीं झंपी। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ा कर मार्च का हुक्म मिल जाय। फिर सात जर्मनों को अकेला मार कर न लौहूँ, तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजी कहीं के, कलों के घोड़े संगीन देखते ही मुँह फाड़ देते हैं, और पैर पकड़ने लगते हैं। यों अंधेरे में तीस- तीस मन का गोला फेंकते हैं। उस दिन धावा किया था चार मील तक एक जर्मन नहीं छोड़ा था। पीछे जनरल ने हट जाने का कमान दिया, नहीं तो..."

"नहीं तो सीधे बर्लिन पहुंच जाते! क्यों?" सूबेदार हजारसिंह ने मुसकराकर कहा, "लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाये नहीं चलते। बड़े अफसर दूर की सोचते हैं। तीन सौ मील का सामना है। एक तरफ़ बढ़ गए तो क्या होगा?"

"सूबेदार जी, सच है," लहनसिंह बोला, "पर करें क्या? हड्डियों हड्डियों में तो जाड़ा धंस गया है। सूर्य निकलता नहीं, और खाई में दोनों तरफ़ से चम्बे की बावलियों के से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जाय, तो गरमी आ आय।"

"उदमी, उठ, सिगड़ी में कोले डाला वजीरा, तुम चार जने बालटियाँ लेकर खाई का पानी बाहर फेंकों। महासिंह, शाम हो गई है, खाई के दरवाजे का पहरा बदल ले।" यह कहते हुए सूबेदार सारी खन्दक में चक्कर लगाने लगे।

वजीरासिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गंदला पानी भर कर खाई के बाहर फेंकता हुआ बोला, "मैं पाधा बन गया हूँ। करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण!" इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गए।

लहनासिंह ने दूसरी बाल्टी भर कर उसके हाथ में देकर कहा, "अपनी बाड़ी के खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा।"

"हाँ, देश क्या है, स्वर्ग है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस धुमा जमीन यहाँ माँग लूँगा और फलों के बूटे लगाऊँगा।"

"लाड़ी होरा को भी यहाँ बुला लोगे? या वही दूध पिलानेवाली फरंगी मेम..."

"चुप कर। यहाँ वालों को शरम नहीं।"

"देश-देश की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तम्बाखू नहीं पीते। वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओठों में लगाना चाहती है, और में पीछे हटता हूँ तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क के लिये लड़ेगा नहीं।"

"अच्छा, अब बोधसिंह कैसा है?" "अच्छा है।"

"जैसे मैं जानता ही न होऊँ ! रात-भर तुम अपने कम्बल उसे उढ़ाते हो और आप सिगड़ी के सहारे गुज़र करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सूखे लकड़ी के तख्तों पर उसे सुलाते हो, आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न माँदे पड़ जाना। जाड़ा क्या है, मौत है, और 'निमोनिया' से मरनेवालों को मुरब्बे नहीं मिला करते।"

"मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूँगा। भाई कीरतसिंह की गोदी पर मेरा सीर होगा और मेरे हाथ के लगाये हुए आँगन के आम के पेड़ की छाया होगी।"

वजीरासिंह ने त्योरी चढ़ाकर कहा, "क्या मरने-मारने की बात लगाई है? मरें जर्मनी और तुरक! हाँ भाइयों, कैसे?"

दिल्ली शहर तें पिशोर ने जांदिए, कर लेणा लौंगां दा बपार मडिए; कर लेणा नादेड़ा सौदा अड़िए -- (ओय) लाणा चटाका कदुए नँ। क बणाया वे मज़ेदार गोरिये, हुण लाणा चटाका कदुए मुँ।।

कौन जानता था कि दाढ़ियावाले, घरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएँगे, पर सारी खन्दक इस गीत से गूंज उठी और सिपाही फिर ताज़े हो गए, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों।

                                           (भाग-तीन)


दोपहर रात गई है। अन्धेरा है। सन्नाटा छाया हुआ है। बोधासिंह खाली बिसकुटों के तीन टिनों पर अपने दोनों कम्बल बिछा कर और लहनासिंह के दो कम्बल और एक बरानकोट ओढ़ कर सो रहा है। लहनासिंह पहरे पर खड़ा हुआ है। एक आँख खाई के मुँह पर है और एक बोधासिंह के दुबले शरीर पर। बोधासिंह कराहा।

"क्यों बोधा भाई, क्या है?"

"पानी पिला दो।"

लहनासिंह ने कटोरा उसके मुँह से लगा कर पूछा, "कहो कैसे हो?" पानी पी कर बोधा बोला, "कैपनी छुट रही है। रोम- रोम में तार दौड़ रहे हैं। दाँत बज रहे हैं।"
"अच्छा, मेरी जरसी पहन लो!"

"और तुम?"

"मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है। पसीना आ रहा है।"

"ना, मैं नहीं पहनता। चार दिन से तुम मेरे लिए..."

"हाँ, याद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सबेरे ही आई है। विलायत से बुन-बुनकर भेज रही हैं मेमें, गुरु उनका भला करें।" यों कह कर लहना अपना कोट उतार कर जरसी उतारने लगा।

"सच कहते हो?"

"और नहीं झूठ?" यों कह कर नहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहन कर पहरे पर आ खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी।

आधा घण्टा बीता। इतने में खाई के मुँह से आवाज आई, "सूबेदार हज़ारासिंह।"

"कौन लपटन साहब? हुक्म हुजूर!" कह कर सूबेदार तन कर फौजी सलाम करके सामने हुआ।

"देखो, इसी समय धावा करना होगा। मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाई है। उसमें पचास से जियादह जर्मन नहीं हैं। इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत काट कर रास्ता है। तीन-चार घुमाव हैं। जहाँ मोड़ है वहाँ पन्द्रह जवान खड़े कर आया हूँ। तुम यहाँ दस आदमी छोड़ कर सब को साथ ले उनसे जा मिलो। खन्दक छीन कर वहीं, जब तक दूसरा हुक्म न मिले, डटे रहो। हम यहाँ रहेगा।"

"जो हुक्मा"

चुपचाप सब तैयार हो गए। बोधा भी कम्बल उतार कर चलने लगा। तब लहनासिंह ने उसे रोका। तो बोधा के बाप सूबेदार ने उँगली से बोधा की ओर इशारा किया। लहनासिंह समझ कर चुप हो गया। f कौन रहें, इस पर बड़ी हुज्जत हुई। कोई रहना न चाहता था। समझा-बुझाकर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन साहब लहना की सिगड़ी के पास मुँह फेर कर खड़े हो गए और जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगे। दस मिनट बाद उन्होंने लहना की ओर हाथ बढ़ा कर कहा, "लो तुम भी पियो।"
आँख मारते-मारते लहनासिंह सब समझ गया। मुँह का भाव छिपा कर बोला, "लाओ साहबा" हाथ आगे करते ही उसने सिगड़ी के उजाले में साहब का मुँह देखा। बाल देखे। तब उसका माथा ठनका। लपटन साहब के पट्टियों वाले बाल एक दिन में ही कहाँ उड़ गए और उनकी जगह कैदियों से कटे बाल कहाँ से आ गए?"

शायद साहब शराब पिए हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया है? लहनासिंह ने जाँचना चाहा। लपटन साहब पाँच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे।

"क्यों साहब, हमलोग हिन्दुस्तान कब जाएँगे?"

"लड़ाई खत्म होने पर। क्यों, क्या यह देश पसन्द नहीं?"

"नहीं साहब, शिकार के वे मजे यहाँ कहाँ? याद है, पारसाल नकली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी जिले में शिकार करने गए थे -

हाँ- हाँ - वहीं जब आप खोते पर सवार थे और और आपका खानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक मन्दिर में जल चढ़ने को रह गया था? बेशक पाजी कहीं का सामने से वह नील गाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी न देखी थीं। और आपकी एक गोली कन्धे में लगी और पुड्ढे में निकली। ऐसे अफ़सर के साथ शिकार खेलने में मज़ा है। क्यों साहब, शिमले से तैयार होकर उस नील गाय का सिर आ गया था न? आपने कहा था कि रेजमेंट की मैस में लगाएँगे। हाँ पर मैंने वह विलायत भेज दिया- ऐसे बड़े-बड़े सींग ! दो-दो फुट के तो होंगे?"

"हाँ, लहनासिंह, दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया?"

"पीता हूँ साहब, दियासलाई ले आता हूँ" कह कर लहनासिंह खन्दक में घुसा। अब उसे सन्देह नहीं रहा था। उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए।

अंधेरे में किसी सोने वाले से वह टकराया।

"कौन? वजीरसिंह?"

"हाँ, क्यों लहना? क्या कयामत आ गई? जरा तो आँख लगने दी होती?"
 

                                      (भाग-4)


"होश में आओ। कयामत आई और लपटर साहब की वर्दी पाहन का आई है।"

"क्या?"

"लपटन साहब का तो मारे गए हैं या कैद हो गए है। उनकी वर्दी पहन कर यह कोई जर्मन आया है सूबेदार ने इसका मुँह नहीं देखा। मैंने देखा और बातें की है। सोहरा साफ उर्दू बोलता है, पर कित्ताथी उर्दू और मुझे पीने को सिगरेट किया है?"

"तो अब!"

"अब मारे गए धोखा है। सूबेदार होरा, कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाई पर धावा होगा। उठो, एक काम करो। पल्टन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर न गाए होंगे।

सूबेचार से कहो एकदम लौट आयें। खन्नक की बात झूठ है। चले जाओ, खन्तक के पीछे से निकल जाओ पत्ता तक न खड़के। देर मत करो।"

"शुकुम तो यह है कि यहीं-"

"ऐसी तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम जमावार लहनासिंत जो इस वक्त यहाँ सबसे बड़ा आया है, उसका हुकुम है। में लपटन साहब की खबर लेता है।"

"पर यहाँ ती तुम आठ है।"

"आउ नाहीं, दस लाखक एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। बाले जाओ"

लौट कर खाई के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बोल के बरावर तीन गोले निकाले। तीनों को जगह-जगह खन्दक की दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार-सा बाँध दिया। तार के आगे भूत की एक गुत्थी थी, जिसे सिगड़ी के पास रखा। बाहर की तरफ जाकर एक दियामलाई जला कर गुत्थी पर रखने....

बिजली की तरह दोनों हाथों से उल्टी बन्दुक को उठा कर लहनासिंह ने साहब की कुरानी पर तान कर दे मारा। धमाके के साथ साहब के हाथ से दिवासलाई गिर पड़ी। लहनासिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा और साहब 'आँख! भीन गौइ' कहते हुए बिल हो गए। लहनासिंह ने तीनों गोले बीन कर खन्दक के बाहर फेंके और साहब को पसीट कर सिगढ़ी के पाम लिटाया। जेथों की तलाशी ली। तीन-चार लिफाफे और एक डायरी निकाल कर उन्हें अपनी जैच के हवाले किया।

सावत्र की मूर्जा हटी। लहनासिंह गैस कर बोला, "स्थों लपटन साहब? मिजाज कैसा है? आज मैंने बहुत चाते सीखी। यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नील गायें होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं।

और लपटन साहब खोले पर चढ़ते हैं। पर वह तो कहो, ऐसी साफ़ उर्दू कहाँ से सीख आए? हमारे लपटन साहब तो बिन 'डिम' के पाँच तफा भी नहीं बोला करते थे।"लहना ने पहलून के जेथों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए, दोनों हाथ जेबों में डालोलहनासिंह कहता गया, "चालाक तो बड़े हो पर माँझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमादेने के लिए चार आँखें चाहिए। तीन महिने हुए एक तुरकी मौलवी मेरे गाँव आया था। औरतों को बच्चे होने के ताबीजबाँटता था और बच्चों को दवाई देता था। बौनी के बढ़ के नीचे मंजा बिछा कर हुक्का पीता रहता या और कहता था कि जर्मनीवाले बड़े पंडित हैं। वेद पद-पड़ कर उसमें से विमान चलाने की विद्या जान गाए है। गौ को नहीं मारते। हिन्दुस्तान में आ जाएंगे तो मोहल्या बन्द कर देंगे। मही के बनियों को बहाता कि डाकखाने से पया निकाल लो सरकार का राज्य जानेवाला है। डाक-बाबू पोल्लूराम भी डर गया था। मैंने मुल्ला जी की दादी मूढ़ दी थी। और गाँव से बाहर निकल कर कहा था कि जो मेरे गाँव में अब पैर रखा तो साहब की जेब में से पिस्तौल चला और लहना की बॉप में गोली लगी। इयार लहना की हैनरी मार्टिन के दो फायरों ने साहम की कपाल-क्रिया कर दी। पड़ाका सुन कर सब दौड़ आए।

बोधा चिल्लाया, "क्या है?"

लहनासिंह ने उसे वह कह कर सुना सुला दिया कि 'एक हड़का हुला कुत्ता आया था, मार दिया' और, औरों से सब हाल कह दिया। सब कन्द्रके लेकर तैयार हो गए लहना ने साफा फाड़ कर मान के दोनों तरफ पट्टियाँ कस कर बौधी। घाव मांस में ही था। पट्टियों के कमरे से लहू निकलना बन्द हो गया।

इतने में सत्तर जर्मन चित्ताकर खाई में घुस पढ़ो सिक्खों की सन्दूकों की बाढ़ ने पहले धाने को रोका। दूसरे को रोका। पर यहाँ पे आत (लहनासिंह तकनतक खड़ा था, और, और लेटे हुए थे) और वे सत्तर अपने मुर्दा

भाइयों के शरीर पर चढ़ कर जर्मन आगे घुसे आते थे। थोड़े से मिनिटों में बे

अचानक आवाज आई वाह गुरु जी की फतह? वाह गुरु जी का खासा !! और धड़ाधड़ बन्दूकों के फायर वर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौके पर जर्मन वो चक्की के पाटों के बीच में आ गए। पीछे से सूबेदार हत्करसिंट के जवाने अग
बरसाते थे और सामने लहनासिंह के साथियों के संगीन बात रहे थे। पास आने पर पीछे वालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर दिया।

एक किलकारी और... अकाल सिक्खा दी फौज आई बाह गुरु जी की फतह! वाह गुरु जी वा खालसा सत श्री अकालपुख्ख !!!! और लड़ाई खत्तम हो गई तिरसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिक्खों में पन्द्रह के प्राण गए। सुबेदार के दाहिने कन्धे में से गोली आरपार निकल गई। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव को सखन्दक की गीली मट्टी से पूर लिया और बाकी कर साफा कस कर कमरकन्द की तरह लपेट लिया। किसी को खबर न हुई कि लहना को दूसरा घाव भारी घाव लगा है।

लड़ाई के समय चाँद निकल आया वा, ऐसा चाँद, जिसके प्रकाश से संस्कृत कवियों का दिया हुआ 'क्षयी' नाम सार्थक होता है। और हथा ऐसी चल रही थी वैसी वागभट्ट की भाषा में दत्तवीयोपदेशाचा' कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मन भर फ्रांस की भूमि मी बूटों से चिपक रही थी, जब में दौड़ा-दौड़ा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहनासिंह से सारा हाल सुन और कातजात पाकर वे उसकी तुरत-बुद्धि को सराह रहे थे और कह रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते।

इस लड़ाई की आवाज तीन मील दाहिनी ओर की खाई वालों ने सुन ली थी। उन्होंने पीछे टेलीफोन कर दिया था वहाँ से झटपट ची डाक्टर और दो बीमार होने की गाडियों चली, जो कोई डेड घण्टे के अन्दार-अन्दर आ पहुँची फील्ड अस्पताल नजदीक था। सुबह होते-होते वहाँ पहुँच जाएंगे, इसलिए मामूली पट्टी बाँधकर एक गाड़ी में घायल लिटाए गए और दूसरी में लाशें खखी गई सुभेदार ने लहनासिंह की जाँच में पट्टी बंधवानी चाही। पर उसने यह कह कर टाल दिया कि घोड़ा पाव है सबसे देखा जायेगा। बोधासिंह उधर में बर्रा रहा था। यह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोड़ कर सूबेदार बाते नहीं थे। यह देख लगना ने कहा, "तुम्हें बोधा की कसम है, और सूबेदारनी जी की सौगन्ध है जो इस गाड़ी में न चाते जाओ"

"और तुम?"

"मेरे लिए यहाँ पहुंचकर गाड़ी भेन देना, और जर्मन मुरदों के लिए थी तो गाडियों आती होगी। मेरा हाल बुरा नहीं है। देखते नहीं, मैं खड़ा है? बनीरासिंह मेरे पास है ही।"

"अच्छा, पा"

"बोधा गाड़ी पर लेट गया? भला। आप भी चढ़ वाओ। सुनिये तो, सूबेदारनी होरां को चिठ्ठी लिखी, तो मेरा मत्था टेकना लिख देना। और जब घर जाओ तो कर देना कि मुझसे जी उसने कहा था का मैंने कर दिया।"
गाड़ियां चल पड़ी थी। सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़ कर कहा, "तेने मेरे और बोधा के प्राण बचाये हैं। लिखना कैसा? साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी को तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?"

"अब आप गाड़ी पर बढ़ जाओ मैंने जो कहा, वह लिख देना, और कह भी देना।"

गाड़ी के जाते लहना लेट गया। "वजीरा पानी पिला दे, और मेरा कमाकन्द खोल दे तर हो रहा है।"

मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति नहुत साफ हो जाती है। जन्म-भर की घटनायें एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ़ होते हैं। समय की पुन्ध बिल्कुल उन पर से हट जाती है।

लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया राजा है। वहीवाले के यहाँ, सब्जीवाले के यहाँ, हर कहीं, उसे एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है जब वह पूछता है, तेरी कुठमाई हो गई? तब 'पत्' कह कर वह भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा, तो उसने कहा, "हाँ, कल हो गई, वेखते नाहीं यह रेशम के फूलोंबाला सालू" सुनते ही लहनासिंह को दुःख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ?

"वजीरासिंह, पानी पिला दे।"

पचीस वर्ष चीत गए अब लहनासिंह नं ७७ रैपल्स में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या कर ध्यान ही न रहा। न-मालूम यह कभी मिली थी, या नहीं। सात दिन की छुट्टी लेकर जमीन के मुकदमें की पैरवी करने वह अपने घर गया। वहाँ रेजिमेंट के अफसर की चिड्डी मिली कि फौज लाम पर जाती है, फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारासिंह की पिट्टी मिली कि में और बोधसिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुए हमारे पर होते जाना। साथ ही चलेंगे। सूबेदार का गाँव रास्ते में पड़ता था और सुबेदार उसे बहुत साहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुंचा।

जब चलने लगे, तब सूबेदार बेड़े में से निकल कर आया। बोला, "लाना, सूबेदारनी तुमको जानती हैं, बुलाती हैं। जा मित आ।" लहनासिंह भीतर पहुंचा। सूबेदारनी मुझे जानती हैं? कब से? रेजिमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। दरवाजे पर जा कर मत्था टेकना' कहा। असीम सुनी। लहनासिंह चुपा मुझे पहचाना?"

"नही"

तेरी बढमाई हो गई-यत्-कल हो गई देखते नहीं, रेशमी बूटोवाला साल-अमृतसर में-" भावों की टकराहट से मूर्धा खुली करवट बकाली फसली का घाव बह निकला।

"बजौरा, पानी पिला।" "उसने कहा था।'

स्वप्न चात रहा है। सूबेदारनी कह रही है, "मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती ही मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में जमीन दी है, आज नमक-एलात्ती का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक पंधरिया पल्टन क्यों न बना दी, जो में भी सूबेदार जी के साथ पाली जाती? एक बेटा है। फौज में भर्ती हुए ओ एक ही बरस हुआ। उसके पीछे बार और हुए, पर एक भी नहीं किया। सूबेदारनी रोने लगी। "अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें बाद है, एक दिन टॉगचाले का घोड़ा बहीचाले की दुकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस विने मेरे प्राण बचाये थे, आप घोड़े की तातों में चले गए थे, और मुझे उठाकर दुकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन चोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे आंचल पसारती हूँ।"

रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गई लहना भी आँसू पोछता हुआ बाहर आया।

"वबीरासिंह, पानी पिला"... 'उसने कहा था'

लहना का सिर अपनी गोद में रक्खे चजीरासिंह बैठा है। जब मांगता है, तब पानी पिला देता है। आध घण्टे तक लहना चुप रहा, फिर बोला, "कौन! फीस्तसिंह?"

वीरा ने कुछ समझकर कहा, "ही"

"भक्ष्या, मुझे और ऊंचा कर ले। अपने यह पर मेरा सिर रख ले। बजीरा में वैसे ही किया।

"हाँ, अब ठीक है। पानी पिता दे। बस, अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा। चाचा-भतीजा दोनों यहीं बैठ कर आम खाना। विहरा बड़ा तेह भतीजा है, उतना ही यह आम है। जिस महीने उसका जन्म हुआ था, उसी महीने में मैंने इसे लगाया था।"

वजीरासिंह के असू टप-टप टपक रहे थे।

कुछ दिन पीछे लोगों ने अखबारों में पहा... फ्रान्स और बेलजियम... ६८ वी सूची मैदान में घावों से मरा... नं ७७ सिख राइफल्स जमादार लहनसिंह |

"अतरसिंह की बैठक में; वे मेरे मामा होते हैं।"

"मैं भी मामा के यहाँ आया हूँ, उनका घर गुरुबाज़ार में हैं।"

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