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दिल्ली-सल्तनत के साथ संबंध (मेवाड़, रणथम्भौर एवं जालौर) || राजस्थान इतिहास || RPSC & RSSSMB All Competition Exam Notes


 दिल्ली-सल्तनत के साथ संबंध (मेवाड़, रणथम्भौर एवं जालौर)   

दिल्ली को अपनी सत्ता का केन्द्र बनाकर 1206 ई. में 1576 ई तक विभिर राजवंशों व सुल्तानों ने शासन किया। इस कालखंड के इन राजवंशों को सामूहिक रूप से दिल्ली सलान कहा जाता है।

प्रिय पाठकों,........इस पोस्ट में हमने  राजस्थान इतिहास के महत्वपूर्ण बिंदुओं को क्रमवार समाहित किया गया है। यदि आपको हमारे द्वारा किया गया यह प्रयास अच्छा लगा है, तो इस पोस्ट को अपने साथियों के साथ अवश्य साझा करें। आप अपने सुझाव नीचे कमेंट बॉक्स में दर्ज कर सकते है। जिससे हम  राजस्थान इतिहास के आगामी ब्लॉग को और बेहतर बनाने की कोशिश कर सकें।

इस अध्याय में हम इस कालखंड (1206-1526 ई.) के दौरान दिल्ली के शासकों तथा मेवाड़, रणथम्भौर व जालौर के शासकों के मध्य संबंधों की अध्ययन करेंगे। अब सर्वप्रथम हम दिली सल्तनत व मेवाड़ के शासकों के मध्य संबंधों का अध्ययन करेंगे।

इस पोस्ट के  माध्यम से हम इसकी सम्पूर्ण जानकारी के बारे मे चर्चा करेंगे और हम इसके प्रमुख बिन्दु, बिन्दु का सार , और इसके बारे मे प्रमुख रूप से जानकारी को विस्तार से   चर्चा करेंगे ?

                       जैत्रसिंह (1213-53 ई.)

कुमार सिंह के बाद शासक बना जैत्रसिंह हमारे अध्ययन काल (1206-1526 ई.) का प्रथम महत्वपूर्ण मेवाड़ का गुहिल वंशी शासक था।

* जैत्रसिंह के समय दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश का नागदा पर आक्रमण हुआ। इसे भूताला का युद्ध (1227 ई.) कहा जाता है।

* जयसिंह सूरि के हम्मीर मद मर्दन के अनुसार जैत्रसिंह ने इल्तुतमिश को परास्त कर पीछे धकेल दिया किंतु घमासान युद्ध के कारण नागदा को भारी क्षति पहुंची इसीलिए जैत्रसिंह अपनी राजधानी नागदा से चित्तौड़ ले गया जो उसने परमारों से पुनः छीन कर प्राप्त किया था

* कर्नल टॉड के अनुसार 1231 ई. में मेवाड़ी सेना ने इल्तुतमिश को नागौर के पास हुए युद्ध में परास्त किया था।

* 1248 ई. में जैत्रसिंह को दिल्ली के सुल्तान नासिरूद्दीन महमूद की सेना के आक्रमण का सामना करना पड़ा, पर जैत्रसिंह ने उसे निष्फल कर दिया।

* इस युद्ध का कारण जैत्रसिंह द्वारा नासिरूद्दीन महमूद के भाई को शरण देना था।

                                   तेजसिंह (1253-1273 ई.) 

* रावल जैत्रसिंह के बाद उसका पुत्र रावल तेजसिंह (1253-1273 ई.) मेवाड़ का शासक बना। उसने 'परमभट्टारक', 'महाराजाधिराज' और 'परमेश्वर' की उपाधि धारण की।

* तेजसिंह के समय में दिल्ली के सुल्तान गयासुद्दीन बलबन का मेवाड़ पर आक्रमण हुआ परन्तु इसमें उसको कोई सफलता न मिली।

                               समरसिंह (1273-1302 ई.) 

* तेजसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र 'समरसिंह' मेवाड़ का शासक बना जिसने तुर्कों को गुजरात से निकालकर गुजरात का को स्वतंत्रता प्रदान की।

* रावल समरसिंह के दो पुत्र हुए रतनसिंह एवं कुंभकर्ण। रावल रतनसिंह मेवाड़ का शासक बना तथा कुंभकर्ण ने नेपाल में शाही वंश की स्थापना की।

                            रावल रतनसिंह (1302-1303 ई.) 

* समरसिंह के बाद उसका पुत्र रतन सिंह मेवाड़ का शासक बना। रतनसिंह इतिहास में अपनी पत्नी प‌द्मावती और अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के कारण प्रसिद्ध है।

* रावल रतन सिंह के समय की सबसे प्रमुख घटना दिल्ली सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी का मेवाड़ आक्रमण एवं उसकी विजय है। इस आक्रमण का प्रमुख कारण अलाउद्दीन की साम्राज्यवादी लिप्सा थी।

* 1303 ई. में अलाउद्दीन खिलजी अपनी सेना सहित चित्तौड़ आ पहुँचा। लम्बे समय तक घेरा डालकर रखने पर भी जब अलाउद्दीन को सफलता नहीं मिली तो उसने धोखे से रावल रतनसिंह को बन्दी बना लिया।

* किंतु अत्यंत साहस का परिचय देते हुए रतन सिंह के सेनानायकों गौरा व बादल ने रत्न सिंह को अलाउद्दीन खिलजी से मुक्त करवाया।

* किंतु इसके बाद भीषण संघर्ष हुआ, जिसमें रतनसिंह गोरा-बादल सहित लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ तथा पद्मिनी ने सोलह सौ स्त्रियों के साथ जौहर कर लिया। (26 अगस्त, 1303 ई.)

* यह चित्तौड़ के दुर्ग का प्रथम शाका था। जैन ग्रंथ नाभिनन्दन जीर्णोदार प्रबंध तथा अमीर खुसरो की खजाइन-उल-फुतूह के अनुसार राणा रत्न सिंह बंदी बना लिये गये थे।

* अलाउद्दीन खिलजी का दरबारी इतिहासकार अमीर खुसरो अपने ग्रंथ खजाइन-उल-फुतुह (तारीख-ए-अलाई) में इस संघर्ष का वर्णन करता है। जो स्वयं युद्ध स्थल पर उपस्थित था।

* चित्तौड़ पर अधिकार के बाद अलाउद्दीन इसे अपने पुत्र ख्रिज खाँ को सुपुर्द करके चित्तौड़ का नाम बदलकर ख्रिजाबाद कर देता है। (धाईबी पीर की दरगाह में इसका उल्लेख मिलता है।)

* ख्रिज खाँ 1311 ई. तक चित्तौड़ का प्रशासक रहा, बाद में जालौर के शासक कान्हड़देव के भाई मुछाला मालदेव चित्तौड़ का प्रशासक बना।

* पद्मिनी सिंहल द्वीप के शासक गंधर्वसेन (माता - चम्पावती) की पुत्री थी। राघव चेतन नामक तांत्रिक ने अलाउद्दीन को पद्मिनि के बारे में बताया था।

* चित्तौड़ विजय के बाद खिलजी सेना ने आसपास के भवनों को तुड़वाकर किले पर पहुँचने के लिए गम्भीरी नदी पर, जो रास्ते में पड़ती थी, एक पुल बनवाया गया और पुल में शिलालेख भी चुनवा दिये गये जो मेवाड़ के इतिहास के लिए बड़े प्रामाणिक स्रोत हैं।

* चित्तौड़ की तलहटी के बाहर एक मकबरा भी बनवाया गया जिसमें लगे हुए 1310 ई. के फारसी लेख में बताया गया है कि अलाउद्दीन खिलजी उस समय का सूर्य, ईश्वर की छाया और संसार का रक्षक था।

* पद्मिनी की कहानी का ऐतिहासिक उल्लेख मलिक मुहम्मद जायसी की रचना 'पद्मावत' में किया गया है। (इसकी रचना 1540 ई. में की गई थी।) इसके बाद अबुल फजल (अकबरनामा), फरिश्ता (गुलशन-ए-इब्राहिमी), हाजी उद्दवीर (जफरूलवली), कर्नल टॉड (एनल्स एण्ड एन्टिक्वीटिज ऑफ राजस्थान), फ्रांसीसी यात्री मनूची (स्टीरियो डी मेगोर) तथा मुहणौत नैणसी (नैणसी री ख्यात) ने भी इस कहानी का कुछ हेर-फेर के साथ उल्लेख किया है।

* बूंदी के प्रसिद्ध कवि सूर्यमल्ल मिसण व कुछ आधुनिक इतिहासकारों ने पद्मिनी की कहानी की ऐतिहासिकता को स्वीकार नहीं किया है।

* अपने ग्रंथ प‌द्मावत की समाप्ति पर स्वयं जायसी ने स्पष्ट कर दिया है कि इस सारी कथा को एक उसने रूपक बतलाकर लिखा है - "इस कथा में चित्तौड़ शरीर का, राजा (रतनसिंह) मन का, सिंहल द्वीप हृदय का, पद्मनी बुद्धि का, तोता मार्ग दर्शक गुरु का, नागमती संसार के कामों - की, राघव शैतान का और सुल्तान अलाउद्दीन काव्य माया का सूचक है, जो इस प्रेम-कथा को समझ सके, वे इसी दृष्टि से देखें।"

*** डॉ. ओझा, डॉ. के.एस. लाल, डॉ. कानूनगों, डॉ. बनारसी प्रसाद आदि विद्वान जायसी की कथा को ऐतिहासिक नहीं मानते, किंतु डॉ. दशरथ शर्मा व डॉ. गोपीनाथ शर्मा इसको ऐतिहासिक कथा मानते हैं।

* डॉ. दशरथ शर्मा के मत का आधार 1506 ई. में मालवा में रचित "चिताई चरित" नामक ग्रंथ है।

* पद्मिनी सिंहल द्वीप के शासक गंधर्वसेन (माता-चम्पावती) की पुत्री थी। राघवचेतन नामक तांत्रिक ने अलाउद्दीन को पद्मिनी के बारे में बताया था। हीरामन उसका तोता था।

     राणा हम्मीर (1326-1364 ई.) (मेवाड़ का उद्वारक) 

* रतनसिंह के चित्तौड़ के घेरे के समय वीर गति को प्राप्त होने के कारण समूची रावल शाखा की भी समाप्ति हो गयी थी।

* जैसा कि हमने देखा चितौड़ ख्रिज खाँ को सुपुर्द किया गया था, पर जल्दी ही इसका प्रशासन मालदेव सोनगरा को सौंप दिया गया।

* किंतु 1316 ई. में अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु के बाद जब दिल्ली की सत्ता कमजोर होने लगी, तो गुहिल के ही वंशज हम्मीर सिसोदिया ने 1326 ई. में चित्तौड़ पर पुनः गुहिलों की सत्ता स्थापित की ( बनवीर सोनगरा को हटाकर), इसके साथ ही अब मेवाड़ के शासक सिसोदिया कहलाने लगे। 

* हम्मीर का दादा लक्ष्मण सिंह (सीसोदा का जागीरदार) अपने समस्त पुत्रों के साथ (जिनमें हम्मीर का पिता अरिसिंह भी था।) अलाउद्दीन के विरूद्ध 1303 ई. में लड़ते हुए वीर गति को प्राप्त हुए थे।

* हम्मीर सिसोदिया को कुंभलगढ़ शिलालेख में विषम घाटी पंचानन (विकट आक्रमणों में सिंह के सदृश्य) कहाँ गया हैं।

* इस प्रकार हम्मीर मेवाड़ पर राजपूतों की सत्ता को पुनः स्थापित करने में सफल रहा। डॉ. ओझा हम्मीर सिसोदिया द्वारा दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद तुगलक को सिंगोली के युद्ध (1336 ई.) में पराजित करने का उल्लेख करते हैं।

* हम्मीर सिसोदिया के पश्चात - राणा क्षेत्र सिंह (1364-82),

                                                                      राणा लाखा (1382-1421), 

                                                                     राणा मोकल (1421-33), 

                                                                     राणा कुंभा (1433-68) 

महत्त्वपूर्ण शासक हुए, किंतु इनके समय में दिल्ली सल्तनत एवं मेवाड़ के मध्य कोई महत्त्वपूर्ण घटना नहीं घटित हुई।

            दिल्ली सल्तनत और राणा सांगा (1509-28 ई.) 

* सांगा का समकालीन दिल्ली का सुल्तान इब्राहीम लोदी था। दिल्ली सुल्तान इब्राहीम लोदी एवं राणा सांगा के मध्य दो युद्ध हुए।

* खातोली (कोटा) का युद्ध (1517 ई.): इस युद्ध में महाराणा सांगा ने इब्राहिम लोदी को पराजित किया।

* अमर काव्य वंशावली के अनुसार इस युद्ध में राणा सांगा ने लोदी   के एक शहजादे को बन्दी बना लिया था, जिसे कुछ दण्ड लेकर   छोड़ा गया। 

* इस युद्ध में ही राणा सांगा ने अपना बांया हाथ खो दिया था, और तीर लगने के कारण एक पैर भी राणा सांगा का खराब हो गया।

* यही कारण है, कि कर्नल टॉड सांगा को 'सैनिकों का भग्नावशेष' कहते है। इस युद्ध में विजय के परिणामस्वरूप राजपूताना में ही नहीं वरन् सम्पूर्ण उत्तरी भारत में राणा सांगा की धाक जम गई थी।

* बांडी का युद्ध (1518 ई.) दूसरे वर्ष सुल्तान ने 'मियाँ हुसैन फरमूली' तथा 'मियाँ माखन' के साथ एक बड़ी सेना को राणा के विरुद्ध पहली पराजय का बदला लेने हेतु भेजी

* परन्तु महाराणा सांगा ने धौलपुर के पास 'बांडी' नामक स्थान पर 1518 ई. में इब्राहिम लोदी के सेनानायकों को पराजित किया।

                         दिल्ली सल्तनत व रणथम्भौर के संबंध 

* कुतुबुद्दीन ऐबक ने पृथ्वीराज चौहान के पुत्र गोविंदराज (जिसे मुहम्मद गौरी ने अपने अधीन अजमेर का शासक नियुक्त किया था।) से अजमेर लेकर उसे रणथम्भौर का राज्य प्रदान किया। इस प्रकार गोविंदराज ही रणथम्भौर में चौहान वंश का संस्थापक है।

* उसके उत्तराधिकारी क्रमशः वल्लनदेव, प्रल्हादन और वीर नारायण हुए।

* वीर नारायण के समय दिल्ली सुल्तान इल्तुतमिश ने रणथम्भौर पर आक्रमण किया, जिसे वीर नारायण ने सफलतापूर्वक विफल कर दिया परन्तु वह इस संघर्ष में मारा गया।

* वीरनारायण के बाद में शासक वागभट्ट बना। वागभट्ट के समय रजिया सुल्तान ने मलिक कुतुबद्दीन व हसन गौरी के नेतृत्व में रणथम्भौर पर आक्रमण किया।

* वागभट्ट के बाद उसका पुत्र जयसिंह जैत्रसिंह जयसिम्हा शासक बना। जयसिम्हा ने अपने शासन काल में ही अपने पुत्र हम्मीर देव को रणथम्भौर का शासक बना दिया।

                      हम्मीर देव चौहान (1282-1301 ई.)

* हम्मीर जैत्र सिंह का ज्येष्ठ नहीं वरन तीसरा पुत्र था, पर उसकी योग्यता से प्रभावित होकर जैत्र सिंह ने उसे ही अपना उत्तराधिकारी चुना।

* हम्मीर की दिग्विजय नीति :- राणा हम्मीर देव चौहान ने दिग्विजय की नीति अपनाई और उसने समस्त उत्तर-पश्चिम के राजपूत शासकों को जीता।

* हम्मीर ने सर्वप्रथम भीमरस के शासक अर्जुन को हराया तथा मांडलगढ़ से कर वसूला।

* यहाँ से दक्षिण की ओर बढ़कर हम्मीर ने परमार शासक भोज को हराया। इसके बाद चित्तौड़, आबू, काठियावाड़, पुष्कर, चंपा होते हुए स्वदेश लौटा। त्रिभुवन गिरी के शासक ने भी हम्मीर की अधीनता स्वीकार की।

* इस विजय अभियान से लौटने के बाद हम्मीर ने 'कोटीयजन' (अश्वमेघ जैसा ही) का आयोजन किया। जिसका राजपुरोहित 'विश्वरूप' था।

* हम्मीर का समकालीन दिल्ली का सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी था। जलालुद्दीन खिलजी ने 1290 ई. में झांई के दुर्ग पर आक्रमण करके उसे जीत लिया।

* इस दुर्ग को बचाने का हम्मीर ने प्रयत्न किया, परन्तु गुरुदास सैनी, जिसने चौहान सेना का नेतृत्व किया था, वीर गति को प्राप्त हुआ।

* झांई की विजय से जलालुद्दीन खिलजी का साहस बढ़ गया और उसने आगे बढ़कर रणथम्भौर दुर्ग का घेरा डाल दिया।

* 'अमीर खुसरो' एवं बरनी की 'तारीख-ए-फिरोजशाही' के अनुसार दुर्ग को जीतने के जलालुद्दीन के समस्त प्रयास असफल रहे।

* अन्त में सुल्तान ने दुर्ग की घेराबंदी उठाने तथा वापस लौट चलने का आदेश दिया। सुल्तान जलालुद्दीन ने कहा कि 'ऐसे 10 दुर्गों को भी मैं मुसलमान के एक बाल के बराबर महत्त्व नहीं देता।' ज्योंही सुल्तान की सेना लौट गयी कि हम्मीर ने झांई पर पुनः अपना अधिकार स्थापित कर लिया।

* बरनी के अनुसार 1292 ई. में सुल्तान ने एक बार फिर रणथम्भौर पर अधिकार करने का प्रयास किया किन्तु इस बार तो उसे झांई में ही इतने जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा कि मुस्लिम सेना को खाली हाथ वापस लौटना पड़ा।

* जलालुद्दीन के अभियानों का वर्णन अमीर खुसरो ने मिफ्ता-उल- फुतूह में किया है। बरनी कृत तारीख-ए-फिरोजशाही में भी सुल्तान की इस असफलता का उल्लेख मिलता है।

                  हम्मीर और अलाउद्दीन खिलजी 

* जलालुद्दीन की हत्या करके अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली का अगला सुल्तान बना। इसके व हम्मीर के मध्य भी संघर्ष हुआ।

* बरनी के अनुसार इस संघर्ष का एक कारण तो यह था कि हम्मीर ने राज-कर देना बन्द कर दिया था और दूसरा यह कि उसने मंगोल विद्रोहियों को आश्रय दे रखा था।

* ये मंगोल विद्रोही मीर मुहम्मदशाह और केहबू के नेतृत्व में जालौर से गुजरात अभियान के बाद उलुगखाँ और नुसरतखाँ के खेमे से भागकर हम्मीर की शरण में आ गये थे।

* हम्मीर ने मुहम्मदशाह को 'जगाना' की जागीर दी। जब ये विद्रोही हम्मीर के दरबार में चले गये तो अलाउद्दीन ने उसे विद्रोहियों को लौटा देने को लिखा। हम्मीर ने इनको लौटा देना अपनी शान और वंश मर्यादा के विरुद्ध समझा और युद्ध के लिए तैयार हो गया।

* 'हम्मीर हठ' के अनुसार :- इस युद्ध का कारण दूसरा था मुहम्मदशाह को सुल्तान की बेगम 'चिमना' से प्यार हो गया था। मुहम्मदशाह एवं बेगम दोनों मिलकर अलाउद्दीन को समाप्त करना चाहते थे। जब अलाउद्दीन को इसका पता चला तो मुहम्मद शाह भागकर हम्मीर की शरण में चला गया।

* हम्मीर महाकाव्य के अनुसार जब हम्मीर ने मंगोलों को लौटाने के संबंध में कोरा जवाब दिया तो अलाउद्दीन ने 1299 ई. में उलूगखाँ, अलपखाँ और वजीर नुसरतखाँ के नेतृत्व में एक बहुत बड़ी सेना रणथम्भौर विजय के लिए भेजी।

*** इस सेना ने 'रणथम्भौर की कुंजी' कहे जाने वाले झांई दुर्ग पर अधिकार कर लिया।

* 'हम्मीर महाकाव्य' में लिखा है कि हम्मीर इस समय कोटियज्ञ समाप्त कर 'मुनिव्रत' में व्यस्त था। इस कारण स्वयं न जाकर हम्मीर ने अपने दो सेनापतियों भीमसिंह और धर्मसिंह को शत्रु का मुकाबला करने भेजा।

* चौहान सेना ने बनास के किनारे शत्रुओं से मुकाबला किया और Π हम्मीर की विजय हुई।

*  वापस लौटते समय धर्मसिंह की सेना आगे चल रही थी व भीमसिंह की टुकड़ी पीछे चल रही थी। खिलजी की एक सेना अलपखां के नेतृत्व में पहाड़ियों में छिपी हुई थी उस सेना ने भीमसिंह पर आक्रमण किया, हिन्दुवाट घाटी में युद्ध हुआ और भीमसिंह मारा गया। उलुग खां वापस दिल्ली लौट गया।

* जब भीमसिंह की मृत्यु का समाचार हम्मीर को मिला तब हम्मीर ने इसका जिम्मेवार धर्मसिंह को ठहराया और धर्मसिंह को अंधा करवा दिया और इस पद पर धर्मसिंह के भाई भोज को नियुक्त किया।

* भोज इस अव्यवस्था को सम्भाल नहीं पाया अतः हम्मीर ने पुनः धर्मसिंह को सेनापति बना दिया।

* इस बीच अलाउद्दीन ने उलूग खाँ व नुसरत खाँ के नेतृत्व में सेना भेजी, पर इस सेना को पराजय का सामना करना पड़ा और नुसरत खां मारा गया। उधर ज्योंही अलाउ‌द्दीन को इस स्थिति का पता चला तो वह एक बड़ी सेना लेकर रणथम्भौर की ओर चल पड़ा।

* अमीर खुसरो ने अपनी रचना 'खजाईन-उल-फुतुह' में इस अभियान का आंखों देखा वर्णन करते हुए लिखा है कि सुल्तान ने इस आक्रमण में पाशेब, मगरबी व अर्रादा (युद्ध में प्रयुक्त अस्त्र-शस्त्रों के नाम) की सहायता ली।

* अलाउद्दीन ने लगभग एक वर्ष तक रणथम्भौर दुर्ग पर घेरा डाले रखा, लेकिन उसे कोई सफलता नहीं मिली।

* अंत में उसने छल से काम लिया। अलाउद्दीन ने हम्मीर के सेनापति रतिपाल व रणमल तथा एक अन्य अधिकारी सर्जुनशाह को लालच देकर अपनी तरफ मिला लिया।

* इधर रणथम्भौर दुर्ग के बाहर अलाउद्दीन के लम्बे समय से चल रहे घेरे का असर दिखना प्रारम्भ हो गया।

* अमीर खुसरो लिखता है कि दुर्ग में सोने के दो दानों के बदले चावल का दाना भी नसीब नहीं हो रहा था।

* अंततः हम्मीर ने शत्रु से आमने-सामने के मुकाबले का निश्चय किया, उसकी पत्नी रंगदेवी के नेतृत्व मे जौहर संपन्न हुआ। (कुछ विद्वानों का मानना हैं कि रंगदेवी ने दुर्ग में स्थित पद्मला तालाब में कूदकर जौहर किया था, यह राजस्थान का प्रथम जल जौहर माना जाता हैं।)

* हम्मीर की बेटी देवल ने भी जल जौहर का वरण किया था।

* इसके बाद राजपूत सैनिकों ने केसरिया धारण कर शत्रु सेना से घमासान युद्ध किया। हम्मीर देव लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ 

* 11 जुलाई, 1301 के दिन रणथम्भौर पर अलाउद्दीन का अधिकार हो गया। इस युद्ध में मीर मुहम्मद शाह भी हम्मीर की ओर से लड़ते हुए घायल हो गया।

* राव हम्मीर देव की मृत्यु के संबंध में हम्मीर महाकाव्य का कथन है कि युद्ध में विजय की आशा नहीं देख, हम्मीर ने भगवान शिव की प्रतिमा के समक्ष स्वयं तलवार से अपना शीश काटकर शिव को अर्पण कर दिया। उसका यह कार्य कमलपूजा कर वीरगति पाना कहलाता है।

* इसामी के अनुसार इस युद्ध में हम्मीर के परिवार का कोई भी सदस्य जीवित बन्दी नहीं बनाया जा सका।

* इसामी ने लिखा है कि जब घायल अवस्था में मुहम्मदशाह एवं केहब्रू (मंगोल नेता) को अलाउद्दीन के सामने लाया गया तो वे घावों के दर्द से कराह रहे थे।

* अलाउद्दीन ने उनसे पूछा कि यदि तुम्हारी चिकित्सा करवा दी और तुम्हें जीवनदान दे दिया जाए तो तुम क्या करोगे ?

* उन्होंने उत्तर दिया कि सबसे पहले तो हम तुम्हारी हत्या करेंगे उसके बाद हम्मीर देव के किसी वंशज को रणथम्भौर की गद्दी पर बिठाकर उसकी सेवा करेंगे। अलाउद्दीन ने उन दोनों की हत्या करवा दी।

* बाद में रणमल और रतिपाल को अलाउद्दीन के सामने लाया गया। अलाउद्दीन ने उनसे कहा 'जब तुम अपने सहधर्मी एवं स्वामी शासक के ही नहीं हो सकते तो मेरे क्या हो सकते हैं।' उनकी भी हत्या कर दी गई।

* इस विजय पर अमीर खुसरो लिखता है कि 'कुफ्र का घर इस्लाम का घर हो गया है।'

* हम्मीर के साथ रणथम्भौर के चौहानों का राज्य समाप्त हो गया और दुर्ग दिल्ली सल्तनत का भाग बन गया।

* हम्मीर ने अपने पिता जयसिंह के 32 वर्षों के शासन की याद में रणथम्भौर दुर्ग में 32 खंभों की छत्तरी बनवाई जिसे "न्याय की छतरी" भी कहते हैं। हम्मीर देव ने अपनी पुत्री पदमला के नाम पर 'पदमला तालाब' का निर्माण करवाया।

* हम्मीर के दरबार में 'बीजादित्य' नामक कवि रहता था।

* नयनचन्द सूरी की रचना हम्मीर महाकाव्य, व्यास भाण्ड रचित हम्मीरायण, जोधराज रचित हम्मीर रासो, अमृत कैलाश रचित 'हम्मीर बंधन' और चन्द्रशेखर द्वारा रचित 'हम्मीर हठ' नामक ग्रंथों की रचना इसी हम्मीर चौहान को नायक बनाकर की गई है।

* हम्मीर ने भी श्रृंगार हार नाम से पुस्तक लिखी थी।

* हम्मीर के गुरु का नाम राघवदेव था। हम्मीर ने अपने जीवन में 17 युद्ध किये जिनमें से 16 में विजयी रहा।

* रणथम्भौर का अंतिम व प्रतापी शासक हम्मीर देव इतिहास में अपने हठ व शरणागत रक्षा के लिए जाना जाता है। हम्मीर देव के बारे में कहा गया है -

सिंह सवन, सत्पुरुष वचन, कदली फलत इकबार । 

 त्रिया तेल, हम्मीर हठ चढ़े न दूजी बार।।

                          दिल्ली सल्तनत व जालौर के संबंध 

* चौहानों की नाडौल शाखा के कीर्तिपाल ने 1181 ई. जालौर को परमारों से छीनकर अपने अधिकार में ले लिया और वह वहाँ का स्वतन्त्र शासक बन बैठा।

* इस प्रकार कीर्तिपाल जालौर शाखा के चौहान वंश का संस्थापक था।

* कीर्तिपाल चौहान का उत्तराधिकारी समरसिंह (1182-1205 ई.) हुआ। उसने गुजरात के चालुक्य शासक भीमदेव द्वितीय के साथ अपनी पुत्री लीलादेवी का विवाह कर गुजरात के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किए।

* प्राचीन शिलालेखों में जालौर का नाम नाबालिपुर व दुर्ग का नाम सुवर्णगिरी मिलता है, सुवर्णगिरी से सोनगढ़ बन गया और इसी पहाड़ी पर रहने के कारण यहाँ के चौहान सोनगरा चौहान कहलाए 

                         उदयसिंह (1205-1257 ई.)。

* उदयसिंह सोनगरा के समय सन् 1228 में दिल्ली सुल्तान इल्तुतमिश ने जालौर पर आक्रमण किया और जालौर दुर्ग का घेरा डाला पर अंत में दोनों के मध्य संधि हो गई।

* 'कान्हड़दे प्रबन्ध' के अनुसार 1254 ई. में दिल्ली के सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद ने उदयसिंह पर आक्रमण किया, परन्तु मुस्लिम सेना को परास्त होकर वापस लौटना पड़ा।

* उदयसिंह के बाद चाचिंगदेव (1257-82 ई.) जालौर का अगला शासक बना।

* बरनी के अनुसार चाचिंगदेव के बाद उसका पुत्र सामन्तसिंह (1282- 1305 ई.) जालौर का शासक रहा। इसके समय में जब 1291 में जलालुद्दीन खिलजी ने जालौर पर आक्रमण किया, तो इसने इस आक्रमण को बाघेला राजा सांरगदेव की मदद से उसे निष्फल कर दिया।

                        कान्हड़दे चौहान (1305-1311 ई.) 

* कान्हड़दे चौहान सामंतसिंह का पुत्र व उत्तराधिकारी था, जो 1305 ई. में जालौर का शासक बना।

* इस समय दिल्ली का सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी था, उसके और कान्हड़दे चौहान के संबंध उतार-चढ़ाव वाले रहे।

* कान्हड़दे प्रबंध में वर्णित है कि जब अलाउद्दीन खिलजी ने 1298 ई. में गुजरात विजय के लिए अभियान किया है तो मार्ग में जालौर पड़ता था।

* उसने कान्हड़दे को कहलवा भेजा कि शाही सेना को अपनी सीमा से गुजरने दिया जाए परन्तु कान्हड़दे ने मना कर दिया। इससे खिलजी व कान्हड़दे के संबंधों में खटास आई।

* फरिश्ता के अनुसार 1305 ई. में एन-उल-मुल्क-मुल्तानी ने कान्हड़दे को समझा बुझाकर अलाउद्दीन से संधि को तैयार कर लिया और उसे दिल्ली ले आया।

* कान्हड़दे ने अपनी स्थिति खिलजी दरबार में उचित नहीं पायी और जब एक दिन सुल्तान ने इस बात पर दर्प-सा प्रकट किया कि कोई हिन्दू शासक उसकी शक्ति के समक्ष टिक नहीं सका तो ये शब्द कान्हड़दे को चुभ गये और वह सुल्तान को अपने विरुद्ध लड़ने की चुनौती देकर जालौर लौट गया और युद्ध की तैयारी करने लगा।

* इधर मुहणोत नैणसी एक ओर कारण बताता है कि जब कान्हड़दे का पुत्र वीरम अलाउद्दीन के दरबार में था तो हरम की एक राजकुमारी फिरोजा उससे प्रेम करने लगी पर वीरम उसका प्रेम निवेदन अस्वीकार करके जालौर लौट जाता है।

* कान्हड़दे प्रबन्ध में इसके बाद का वर्णन मिलता है कि जब सुल्तान   को जालौर पर आक्रमण करने में कोई सफलता न मिली तो फिरोजा स्वयं गढ़ में गयी जहाँ कान्हड़दे ने उसका स्वागत किया, परन्तु पुत्र से उसका विवाह करने से इन्कार कर दिया हताश होकर राजकुमारी दिल्ली लौट गयी।

*   कुछ वर्षों के उपरान्त अलाउद्दीन ने फिरोजा की एक धाय गुलबिहिश्त को आक्रमण के लिए भेजा। उसे यह कहा गया कि वीरम बन्दी हो जाए तो जीवित लाया जाए यदि मारा जाये तो उसका सिर लाया जाए। खिलजी सेना विजयी रही।

* वीरम वीरगति को प्राप्त हुआ तो उसका सिर दिल्ली ले जाया गया। वहाँ फिरोजा ने उसका अंतिम संस्कार करके स्वयं यमुना में कूदकर अपनी जान दे दी।

* अलाउद्दीन और सिवाणा का साका : - सिवाणा दुर्ग जालौर दुर्ग की कुंजी है। इस समय सिवाणा दुर्ग का दुर्गपति सीतलदेव था।

* जुलाई 1308 ई. को अलाउद्दीन के सेनापति कमालुद्दीन गुर्ग ने दुर्ग को घेर लिया और सीतलदेव के सेनापति भावला को अपनी ओर मिला लिया।

* भावला ने दुर्ग में स्थित 'मामादेव कुण्ड' में गौ रक्त मिला दिया। इसके बाद दुर्ग रक्षकों ने खिलजी सेना के साथ आर-पार की लड़ाई का निर्णय लिया। सीतलदेव के नेतृत्व में केसरिया व मैणादे के नेतृत्व में जौहर हुआ

* खिलजी के सेनापति नाहर खाँ और भोज भी इस संघर्ष में मारे गये।

*  इस विजय के बाद अलाउद्दीन ने ये दुर्ग कमालुद्दीन को सौंप दिया व इसका नाम खैराबाद रखा

* जालौर दुर्ग का पतन :-  सिवाणा विजय के बाद खिलजी की सेना ने   मारवाड़ को उजाड़ा उस समय भीनमाल चौहान कालीन विद्या का   केन्द्र था। जिसे दूसरी ब्रह्मपुरी नगरी कहा जाता था। खिलजी की   सेना ने इसे जला दिया।

* जालौर दुर्ग, पर जब खिलजी सेना ने आक्रमण किया उस समय खिलजी सेना का सेनापति मलिक नाइब कमालुद्दीन गुर्ग था। कान्हड़दे के सेनापति दहिया बीका ने कान्हड़ देव के साथ विश्वासघात किया व दुर्ग की गुप्त सुरंग का रास्ता खिलजी सेना को बता दिया।

* दहिया के इस विश्वासघात का पता चलने पर उसकी पत्नी हीरा दे ने दहिया को मार डाला।

* कान्हड़दे के नेतृत्व में चौहान सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए तथा जैतल दे के नेतृत्व में किले की स्त्रियों ने जौहर किया।

** जालौर का नाम बदलकर अलाउद्दीन ने जलालाबाद रख दिया।

* अलाउद्दीन ने जालौर दुर्ग में एक मस्जिद बनवाई इस मस्जिद का नाम  'तोप मस्जिद' हैं।

* कान्हड़देव के परिवार में एक मात्र सदस्य कान्हड़देव का भाई मालदेव बचा इसने आत्मसमर्पण कर दिया। अलाउद्दीन ने चित्तौड़ दुर्ग खिज्रखां के स्थान पर मालदेव सोनगरा को सौंप दिया जिसे बाद में हम्मीर ने मालदेव के पुत्र से छीन लिया था।

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