शेखरः एक जीवनी भाग 1 - (अज्ञेय) 1941 ई. || shekharah ek jeevanee bhaag 1 - (agyey) 1941 ee.
शेखरः एक जीवनी भाग 1 - (अज्ञेय) 1941 ई.
* अज्ञेय द्वारा लिखा उपन्यास 'शेखर : एक जीवनी' भाग- 1 सन् 1941 ई. में प्रकाशित हुआ।
दोस्तों इस उपन्यास के माध्यम से हम इसकी सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त कर सकेंगे और अज्ञेय द्वारा लिखा गया यह उपन्यास 'शेखर : एक जीवनी' भाग- 1 जो सन् 1941 ई. में प्रकाशित हुआ था ,हम इसके खण्ड, पात्र , कथासार , विशेष , और प्रमुख उद्धरण के बारे मे चर्चा करेंगे ?
* 'शेखर : एक जीवनी' चर्चित एवं विवादित उपन्यास है परंतु कुछ विद्वान इसे स्वयं अज्ञेय की जीवनी मानते हैं। अज्ञेय स्वयं इस बात से इनकार करते हैं। इस उपन्यास को मनोवैज्ञानिक उपन्यास की श्रेणी में रखा जाता है। यह उपन्यास व्यक्ति के आंतरिक लोक के द्वंद्वों को तो सामने लाता ही है, साथ ही अपने समय के कुछ वैचारिक द्वंद्वों जैसे- व्यक्ति और समाज, स्त्री और पुरुष, पाश्चात्य और भारतीय, नैतिक और अनैतिक आदि से भी टकराता है। शेखर एक ऐसा व्यक्ति है जो अपनी जिज्ञासाएँ स्वयं शांत करना चाहता है। परंपरागत अनुभवों और ज्ञान को अपनी कसौटियों पर कसना चाहता है। दरअसल शेखर व्यक्ति के 'स्व' की खोज का प्रतीक है। शेखर जागरूक, स्वतंत्र और अपने एवं समाज के प्रति ईमानदार होने की संघर्षपूर्ण यात्रा है। शेखर के माध्यम से बालपन पर पड़ने वाले काम, अहं और भय के प्रभाव एवं उसकी प्रकृति पर मनोवैज्ञानिक ढंग से विचार किया गया है।
* हरिवत्तः-
* शारदाः - मद्रासी परिवार की लड़की जिसके प्रति शेखर आकर्षित रहता है। यह स्वभाव से चंचल तथा स्पष्टवादी है।
* शशिः - उपन्यास की नायिका तथा शेखर की मौसेरी बहन जिसके प्रति शेखर आकर्षित है।
* शांतिः - 18-19 वर्ष की तपेदिक से पीड़ित लड़की
* 'शेखर : एक जीवनी' उपन्यास चार खंडों में है-
1. उषा और ईश्वर,
2. बीज और अंकुर,
3. प्रकृति और पुरुष,
4. पुरुष और परिस्थिति।
* इस उपन्यास में बाल मनोविज्ञान का चित्रण, किशोरावस्था का चित्रण, क्रांति की भावना, विद्रोही चेतना का रूप, प्रेम की भावना का चित्रण हुआ है। इस उपन्यास को 'पूर्वदीप्ति शैली' में लिखा गया है। 'शेखर एक जीवनी' को प्रकाशमान पुच्छल तारा नाम से भी जाना जाता है।
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# पात्र
# मुख्य पात्र
* पुरुष पात्र : -
* शेखरः- - नायक है।
- बंधन मुक्त रहना चाहता है।
- इसके माध्यम से बालपन पर पड़ने वाले काम, अहं और भय का चित्रण किया गया है।
* हरिवत्तः-
- शेखर के पिता जो अनुशासन प्रिय थे।
* स्त्री पात्र :-
* सरस्वतीः - शेखर की बहन जो उसकी प्रेरकमूर्ति और गुरु भी है।
* शारदाः - मद्रासी परिवार की लड़की जिसके प्रति शेखर आकर्षित रहता है। यह स्वभाव से चंचल तथा स्पष्टवादी है।
* शशिः - उपन्यास की नायिका तथा शेखर की मौसेरी बहन जिसके प्रति शेखर आकर्षित है।
* शांतिः - 18-19 वर्ष की तपेदिक से पीड़ित लड़की
# गौण पात्र
* शेखर की माँ,* मणिका,
* कुमार,
* प्रतिभा,
* ईश्वरदत्त,
* प्रभुदत्त,
* रविदत्त और चंद्र।
* उपन्यास में अज्ञेय ने उस समय की राजनीतिक गतिविधियों और स्वतंत्रता एवं क्रांति की विचारधारा को व्यक्त किया है।
# विशेष :-
* यह उपन्यास फ्लैश बैक अर्थात् पूर्वदीप्ति शैली में लिखा गया है।* उपन्यास में अज्ञेय ने उस समय की राजनीतिक गतिविधियों और स्वतंत्रता एवं क्रांति की विचारधारा को व्यक्त किया है।
* इस उपन्यास पर रोमाँ रोलाँ के 'ज्यां किस्टॉक' का प्रभाव है।
* हिंदी का प्रमुख मनोवैज्ञानिक उपन्यास है।
* बिम्बों और प्रतीकों का प्रयोग मिलता है।
* हिंदी का प्रमुख मनोवैज्ञानिक उपन्यास है।
* बिम्बों और प्रतीकों का प्रयोग मिलता है।
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* पहला खंडः -
# कथासार
* इस उपन्यास में शेखर के विद्रोही व्यक्तित्व एवं बौद्धिक संघर्ष' का चित्रण पूर्व दीप्ति शैली में हुआ है। उपन्यास का आरम्भ शेखर को फाँसी की सजा से ठीक पहले की रात जेल में उसके द्वारा अपने जीवन के पूर्व घटित घटनाओं को याद करने से होता है। वह सबसे पहले शशि को याद करता है, फिर शैशव अवस्था में जब वह 8 वर्ष का था, बहन सरस्वती की याद आती है। इसके बाद वो शारदा को याद करता है। फिर उसे माँ/पिता के प्रति धिक्कार की भावना जगाने वाली घटना याद आती है।* पहला खंडः -
शेखर अपनी विद्रोही प्रवृति के कारण स्कूल नहीं जाता, शिक्षकों को परेशान करता है। छोटी उम्र में अकेलेपन का अनुभव करता है, ईश्वर को नहीं मानता है। अपनी बहन सरस्वती से आकर्षण का अनुभव करता है।
* दूसरा खंडः -
* दूसरा खंडः -
विदेश के प्रति उसका मन घृणा के भाव से भर जाता है। वह गांधीजी को अपना आदर्श मानता है। अपना भाव प्रकट करने के लिये राष्ट्रीय नाटक लिखता है।
* तीसरा खंडः -
* तीसरा खंडः -
नास्तिक शेखर अपनी बहन सरस्वती को अपना प्रेरक गुरु मानता है। उसी समय जब वह दक्षिण में रहता है, उसके जीवन में शारदा का प्रवेश हो जाता है जो शेखर को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। इसके बाद शेखर मैट्रिक की परीक्षा देने लाहौर जाता है, जहाँ उसे शशि मिलती है। जब वहाँ से लौटता है, तो शारदा और उसका परिवार जा चुका होता है। इसी खंड में शेखर को स्त्री-पुरुष के संबंधों के बारे में ज्ञान होता है।
* चौथा खंडः -
* चौथा खंडः -
मद्रास में शेखर द्वारा कॉलेज में बिताए दिनों का वर्णन है। जहाँ उसकी उम्र 15 वर्ष की रहती है। मद्रास में वह कुमार नामक लड़के से मिलता है उसमें समाज सेवा की भावना भरने लगती है। परीक्षा के दिनों में त्रिवेंद्रम जाने पर शेखर पुनः शारदा से मिलता है, परंतु शारदा की बातों से शेखर को लगता है, कि सब कुछ समाप्त हो गया है। इस घटना के प्रभाव से वह मद्रास को छोड़ देता है।
* प्रमुख उद्धरण :-
* "वेदना में एक शक्ति है जो दृष्टि देती है। जो यातना में है, वह दृष्टा हो सकता है।"* "क्रांतिकारी अन्ततोगत्वा एक प्रकार के नियतिवादी होते हैं। लेकिन यह नियतिवाद उन्हें अक्षम और निकम्मा बनाने वाला कोरा भाग्यवाद नहीं होता, वह उन्हें अधिक निर्मम होकर कार्य करने की प्रेरणा देता है।"
* "वह वहाँ बैठा स्वप्न देखा करता है, और शशि स्वयं चित्र की तरह न आकर उसे आलोकित करनेवाले प्रकाश की तरह आती है, विचार न होकर अनुभूति रहती है।"
# ""अच्छा होता कि में कुत्ता होता, चूहा होता, दुर्गन्धमय कीड़ा-कृमि होता-बनिस्बत इसके कि मैं वैसा आदमी होता, जिसका विश्वास नहीं है....'"
* "मुझे विश्वास है कि विद्रोही बनते नहीं, उत्पन्न होते हैं। विद्रोहबुद्धि परिस्थितियों से संघर्ष की सामर्थ्य से जीवन की क्रियाओं से, परिस्थितियों के घात-प्रतिघात से नहीं निर्मित होती। वह आत्मा का कृत्रिम परिवेष्टन नहीं है, उसका अभिन्नतम अंग है।"
* "विद्रोही हृदय की एक विशेषता है कि वह अपने विकास में फैलते हुए नूतनतम विचारों को अपनाकर भी विद्रोही ही रह जाता है, क्योंकि वह अपने काल के अग्रणी लोगों से भी आगे ही रहता है। इसलिये तो प्रतिक्रियावादी जर्मनी में उत्पन्न होकर और पलकर भी आइनस्टाइन विद्रोही हैं, और संसार की सबसे विराट्, सबसे अधिक आग्नेय घोरतम युग-प्रवर्सक रूसी क्रान्ति की गोद में पलकर भी स्टेलिन विद्रोही नहीं हो पाया, जूठन बीननेवाला ही रह गया है..."
* "विद्रोह अनन्त है, नित्य है, क्योंकि उसके उपकरणों में प्रेम के बाद सबसे बड़ा और सबसे अमोघ अस्त्र है यही बौद्धिक घृणा।"
* "यातना भी एक उच्च कोटि का और बहुत पवित्र अस्त्र है।"
* “जहाँ प्रेम जितना उग्र होता है, वहाँ वैसी ही तीखी घृणा भी होती है; क्रूरता में केवल यातना दी ही नहीं जाती, स्वयं पायी भी जाती है और स्नेह में स्नेही अपने को ही नहीं भूलता, स्नेह के पात्र को भी भूल जाता है।"
* "वासना नश्वर है, मुरझा जाती है और तब प्रेम-तन्तु ही जीवन की स्थिरता बनाये रखता है... या शायद इससे उलटा ! कह रहे हैं, जब प्रेम मर जाता है, तब वासना उसके शव को उठाये-उठाये फिरती है और उससे अपने को धोखे में छिपाना चाहती है..."
* “मानव के लिये झूठ, छल और मक्कारी अत्यंत सहज है, क्योंकि ईश्वर ने मानव को अपना प्रतिरूप बनाया और ईश्वर हमारे ज्ञान में सबसे बड़ा झूठा और छलिया और मक्कार है..."
* “बहुत गहरी चोट का एकमात्र मरहम होता है चोट पहुँचानेवाले की उपेक्षा-दृष्टि; दया तो उसके घावों को खरोंचकर खोल देती है..."
* "जीवन की गहनतम घटनाएँ किसी अनजान क्षण में ही हो जाती हैं। घोर पीड़ा का उद्भव सदा ही रहस्यपूर्ण होता है; उसकी अनुभूति स्पष्ट होती है किंतु उसका अंकुर कब, कहाँ, कैसे फूटा, यह पता नहीं चलता, क्योंकि इसके लिये हम उस समय चौकन्ने नहीं होते..."
* "कहते हैं कि मानव अपने बंधन आप बनाता है; पर जो बंधन उत्पत्ति के समय से ही उसके पैरों में पड़े होते हैं, और जिनके काटने भर में अनेक के जीवन बीत जाते हैं, उनका उत्तरदायी कौन है?"
* "वे उन तीनों महती प्रेरणाओं का चित्रण करती हैं जो प्रत्येक मानव के जीवन का अनुशासन करती हैं... अहन्ता, भय और सेक्स..."
- "डर के बिना समाज का अस्तित्व नहीं ठहर सकता।"
- "जो नियमों से नहीं चलते, किंतु नियमों की मूल प्रेरणा को समझकर
- अपना नियम स्वयं बनाते हैं, जीवन तो उन्हीं का है... प्रेम ने मनुष्य को मनुष्य बनाया !
- भय ने उसे समाज का रूप दिया !
- अहंकार ने उसे राष्ट्र में संगठित कर दिया।"
* "संसार का 'आदर्श व्यक्ति' व्यक्ति नहीं है, एक 'टाइप' है, और संसार चाहता है कि सर्वप्रथम अवसर पर ही प्रत्येक व्यक्ति को ठोक-पीटकर, उसका व्यक्तित्व कुचलकर, उसे उस टाइप में सम्मिलित कर लिया जाय, उसे मूल रचना न रहने देकर एक प्रतिलिपि-मात्र बना दिया जाय..."
* "शेखर ने देखा, उसके संसार के अलावा एक और संसार है, जिसमें पक्षी रहते हैं, जिसमें स्वच्छन्दता है, जिसमें विश्वास है, जिसमें स्नेह है, जिसमें सोचने की या खेलने की अबाध स्वतन्त्रता है, जिसका एकमात्र नियम है, 'वही होओ जो कि तुम हो'... और वह संसार उसके लिये एक स्वर्ग, एक अत्यन्त वांछित स्वप्न हो गया, उसकी कुल यन्त्रणाओं से उन्मुक्ति का द्वार, उसके अकेलेपन में उसका सहारा।"
* "वह वहाँ बैठा स्वप्न देखा करता है, और शशि स्वयं चित्र की तरह न आकर उसे आलोकित करनेवाले प्रकाश की तरह आती है, विचार न होकर अनुभूति रहती है।"
# ""अच्छा होता कि में कुत्ता होता, चूहा होता, दुर्गन्धमय कीड़ा-कृमि होता-बनिस्बत इसके कि मैं वैसा आदमी होता, जिसका विश्वास नहीं है....'"
* "मुझे विश्वास है कि विद्रोही बनते नहीं, उत्पन्न होते हैं। विद्रोहबुद्धि परिस्थितियों से संघर्ष की सामर्थ्य से जीवन की क्रियाओं से, परिस्थितियों के घात-प्रतिघात से नहीं निर्मित होती। वह आत्मा का कृत्रिम परिवेष्टन नहीं है, उसका अभिन्नतम अंग है।"
* "विद्रोही हृदय की एक विशेषता है कि वह अपने विकास में फैलते हुए नूतनतम विचारों को अपनाकर भी विद्रोही ही रह जाता है, क्योंकि वह अपने काल के अग्रणी लोगों से भी आगे ही रहता है। इसलिये तो प्रतिक्रियावादी जर्मनी में उत्पन्न होकर और पलकर भी आइनस्टाइन विद्रोही हैं, और संसार की सबसे विराट्, सबसे अधिक आग्नेय घोरतम युग-प्रवर्सक रूसी क्रान्ति की गोद में पलकर भी स्टेलिन विद्रोही नहीं हो पाया, जूठन बीननेवाला ही रह गया है..."
* "विद्रोह अनन्त है, नित्य है, क्योंकि उसके उपकरणों में प्रेम के बाद सबसे बड़ा और सबसे अमोघ अस्त्र है यही बौद्धिक घृणा।"
* "यातना भी एक उच्च कोटि का और बहुत पवित्र अस्त्र है।"
* “जहाँ प्रेम जितना उग्र होता है, वहाँ वैसी ही तीखी घृणा भी होती है; क्रूरता में केवल यातना दी ही नहीं जाती, स्वयं पायी भी जाती है और स्नेह में स्नेही अपने को ही नहीं भूलता, स्नेह के पात्र को भी भूल जाता है।"
* "वासना नश्वर है, मुरझा जाती है और तब प्रेम-तन्तु ही जीवन की स्थिरता बनाये रखता है... या शायद इससे उलटा ! कह रहे हैं, जब प्रेम मर जाता है, तब वासना उसके शव को उठाये-उठाये फिरती है और उससे अपने को धोखे में छिपाना चाहती है..."
* “मानव के लिये झूठ, छल और मक्कारी अत्यंत सहज है, क्योंकि ईश्वर ने मानव को अपना प्रतिरूप बनाया और ईश्वर हमारे ज्ञान में सबसे बड़ा झूठा और छलिया और मक्कार है..."
* “बहुत गहरी चोट का एकमात्र मरहम होता है चोट पहुँचानेवाले की उपेक्षा-दृष्टि; दया तो उसके घावों को खरोंचकर खोल देती है..."
* "जीवन की गहनतम घटनाएँ किसी अनजान क्षण में ही हो जाती हैं। घोर पीड़ा का उद्भव सदा ही रहस्यपूर्ण होता है; उसकी अनुभूति स्पष्ट होती है किंतु उसका अंकुर कब, कहाँ, कैसे फूटा, यह पता नहीं चलता, क्योंकि इसके लिये हम उस समय चौकन्ने नहीं होते..."
* "कहते हैं कि मानव अपने बंधन आप बनाता है; पर जो बंधन उत्पत्ति के समय से ही उसके पैरों में पड़े होते हैं, और जिनके काटने भर में अनेक के जीवन बीत जाते हैं, उनका उत्तरदायी कौन है?"
* "वे उन तीनों महती प्रेरणाओं का चित्रण करती हैं जो प्रत्येक मानव के जीवन का अनुशासन करती हैं... अहन्ता, भय और सेक्स..."
- "डर के बिना समाज का अस्तित्व नहीं ठहर सकता।"
- "जो नियमों से नहीं चलते, किंतु नियमों की मूल प्रेरणा को समझकर
- अपना नियम स्वयं बनाते हैं, जीवन तो उन्हीं का है... प्रेम ने मनुष्य को मनुष्य बनाया !
- भय ने उसे समाज का रूप दिया !
- अहंकार ने उसे राष्ट्र में संगठित कर दिया।"
* "संसार का 'आदर्श व्यक्ति' व्यक्ति नहीं है, एक 'टाइप' है, और संसार चाहता है कि सर्वप्रथम अवसर पर ही प्रत्येक व्यक्ति को ठोक-पीटकर, उसका व्यक्तित्व कुचलकर, उसे उस टाइप में सम्मिलित कर लिया जाय, उसे मूल रचना न रहने देकर एक प्रतिलिपि-मात्र बना दिया जाय..."
* "शेखर ने देखा, उसके संसार के अलावा एक और संसार है, जिसमें पक्षी रहते हैं, जिसमें स्वच्छन्दता है, जिसमें विश्वास है, जिसमें स्नेह है, जिसमें सोचने की या खेलने की अबाध स्वतन्त्रता है, जिसका एकमात्र नियम है, 'वही होओ जो कि तुम हो'... और वह संसार उसके लिये एक स्वर्ग, एक अत्यन्त वांछित स्वप्न हो गया, उसकी कुल यन्त्रणाओं से उन्मुक्ति का द्वार, उसके अकेलेपन में उसका सहारा।"
* "वहाँ है केवल दैन्य, सम्पूर्ण दासत्व, वहाँ माता-पिता अपने बच्चों को बोध कराते हैं, अवज्ञा के लिये नहीं, स्वीकृति के लिये, झुकना सिखाते हैं अभिमान से नहीं, दासत्व-भाव से। आत्माएँ इस संबंध में इस तरह जकड़ी गई हैं कि वे स्वयं नहीं जानते वे किस श्रृंखला में बंधे हैं और स्वयं उसकी कड़ियाँ पक्की करने में सहायक होते हैं...."
* "लोहा या सोना भी एक चोट से नहीं बनता। उस पर कई चोटें होती हैं, चोट पर चोट, चोट पर चोट.... वैसे ही शिक्षण है। एक या दो चोट में नहीं हो जाता, असंख्य चोटें होती हैं। किंतु उनमें इतना विभेद नहीं होता, वे एक ही चोट की पुनरावृत्ति मात्र होती हैं..."
* "इसलिये नहीं डरते कि मरना बहुत खराब होता है, इसलिये डरते है कि जीना अच्छा लगता है।" - सरस्वती, शेखर से
* "हम लोग काल का मापन निष्प्राण घड़ियों से करते हैं- कितने मूर्ख हैं हम। क्षण में ही जो युग-युग बीत जाते हैं, और युगों तक जो क्षण वैसा ही बना रहता है, उसको अनुभव से मापने की सामर्थ्य क्या घड़ियों में है?"
* "उसकी इस अवर्णनीय सुन्दरता ने, विशेषणहीन रात्रिता ने, यह प्रमाणित कर दिया है कि ईश्वर नहीं है, क्योंकि भूख और लड़ाई बनानेवाली कौन-सा ऐसा ईश्वर हो सकता है जो इतनी सुन्दरता बना सके?"
* "लेकिन यह कहना तो वही हुआ कि ईश्वर वही है, जिसके बारे में हम निश्चयपूर्वक कह सकें, 'वह नहीं है।"
* "उसने देखा-समझ लिया कि कोई किसी का नहीं है, यानी इतना नहीं है कि उसका स्वामी, निर्देशक, भाग्य विधायक बन सके। कोई ऐसा नहीं है जिस पर निर्भर किया जा सके, जिसे प्रत्येक बात में पूर्ण, अचूक माना जा सके। यदि किसी का कोई है, तो उसकी अपनी बुद्धि, मनुष्य को उसी के सहारे चलना है, उसी के सहारे जीना है, ऐसे स्थान अवश्य हैं, जहाँ बुद्धि जवाब दे जाती है लेकिन इसमें वह ईमानदारी है, जो बात नहीं जानती, वहाँ पर चुप रहती है, गलत उत्तर नहीं देती।"
* "स्कूलों में 'टाइप' बनते हैं, वह बना-व्यक्ति और जब कोई आहत होकर शक्की होता है, तब संसार में शक से मुक्त कुछ नहीं रह जाता।"
* "बड़ा होकर शेखर उनसे कहा करता था, 'देखिये, मानव स्वभाव विश्वासी तो है ही। और जब विश्वासी है, तब पक्षपात लेकर चलता ही है। Prejudiced होता ही है।" - शेखर, पिता से
* "जीवन वैचित्र्य का दूसरा नाम है। जिनके जीवन एकरूपता के बोझ से कुचले जाकर नष्ट हो गए हैं, उनके जीवन में भी इतनी घटनाएँ हुई होंगी कि एक सुंदर उपन्यास बन सके। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी जीवनी लिखने लगे, तो संसार में सुंदर पुस्तकों की कमी न रहे। लेकिन तब, जब हरेक को लिखना आता हो।"
* "मेरे व्यक्तिगत जीवन में मानव के समष्टिगत जीवन का भी इतना अंश है कि समष्टि उसे समझ सके और उसमें अपने जीवन की एक झलक पा सके। मेरे जीवन में भी व्यक्ति और टाइप का वह अविश्लेष्य घोल है, जिसके बिना कला नहीं है, और जिसके बिना, फलतः उपन्यास नहीं है।"
* "मैं केवल एक बोझ अपने ऊपर से उतारना चाहता हूँ; मैं अपना जीवन किसी को देना नहीं चाहता हूँ; मैं अपना जीवन किसी को देना नहीं चाहता, स्वयं पाना चाहता हूँ; क्योंकि मुझे अब उसे वैसा देना है, जैसे देकर वह फिर मुझे मिलेगा नहीं। बिलकुल पूर्णतया नष्ट हो जाएगा- कुछ नहीं रहेगा।... यह अब शेखर नहीं है, यह मैं हूँ। कलाकार बनने का इच्छुक, कवियशः प्रार्थी, शेखर समाप्त हो गया है, अब वह बचा है जो मैं हूँ, जो फाँसी चढ़ेगा; जो मैं है, जिसे मैं 'मैं' कहता हूँ और कहकर अर्थ नहीं समझता कि मैं क्या हूँ।"
* "करोड़ों वर्षों से मानव की एक ही चेष्टा रही है कि या तो सुख पाले या उसकी कामना को खो दे, और इन दोनों में ही वह असफल रहा है...."
* "यों कहना चाहिए, माँ की ओर आकर्षित पुत्र और पिता की ओर आकर्षित कन्या साधारणता की ओर, सामान्यता की ओर जाते हैं, और पिता की ओर आकृष्ट पुत्र, माता की ओर आकृष्ट कन्या, असधारण होते हैं, पहली श्रेणी में मिलेंगे सीधे-सादे शांत आदमी, सामान्य स्त्रियाँ, जिनमें कोई खास बुराई नहीं है, जो साधारणतया प्रसन्न और संतुष्ट हैं; जो जीते हैं, रहते हैं और मर जाते हैं; दूसरी में मिलेंगे प्रतिभावन लेखक और कवि, देश और संसार को बदल देनेवाले सुधारक, क्रांतिकारी, डाकू, जुआरी, पतित-से-पतित मानवता के प्रेत...अच्छे या बुरे, उनके लिये साधारणता नहीं है; वे सुलग नहीं सकते, फट ही सकते हैं.... अच्छे और बुरे का निर्णायक कौन है?"
* "लेकिन मुझे लगता है, मृत्यु एक ऑपरेशन है, जैसे दाँत उखड़वा देना। कुरसी पर बैठना पड़ता है, डाक्टर एक झटका देता है, एक तीखा दर्द होता है और फिर शांति मिलती है, छुटकारा हो जाता है। मृत्यु भी वैसी ही है..."
* "शायद मृत्यु का ज्ञान, और जीवन की कामना एक ही चीज है। जीवन प्यारा है या नहीं, इसकी कसौटी यही है कि उसे बिना खेद के लुटा दिया जाय; क्योंकि विराट प्रेम मौन ही हो सकता है; जो अपना प्यार कह सकते हैं, उनका प्यार ओछा है..." •
"नीम का स्वाद कटु है, गन्ध मधुर। ऐसा ही प्रेम है, जिसका रंग सुंदर है और स्पर्श कठोर.."
* "विश्वास बच्चों की चीज है। दिखावट और सच्चाई में भेद करना, यह बड़ों का अधिकार है।"
* "शेखर नास्तिक है, और मूर्तिपूजक है। और सरस्वती ही वह उपास्य मूर्ति है। उपासना जब हद तक पहुंचती है तब उपास्य ठीक उतना ही मानवीय होता है जितना कि उपासक, बल्कि उपासक के लिये ही वह उसी का एक प्रक्षेपण (Projection) मात्र रह जाता है जो उसके भीतर न होकर, बिलकुल घटनावश उसके सामने हो गया है और इस सामने होने में, जाने कैसे अस्पृश्य हो गया है जैसे शारशे में अपना प्रतिबिंब, पर साथ ही विस्तीर्ण और अबाध भी हो गया है..."
* "मानवता कुछ चाहती है, लेकिन जानती नहीं कि क्या, और उसे जानने की खोज में, अनेक रास्तों पर एक साथ ही भटक रही है... मानो सारी मानवता, अपने जीवन की गति में, किसी दीर्घ वयःसंधि पर खड़ी है और अपने से उलझ रही है, उसका यौवन उसके कृत्तित्त्व के दिन अभी आगे हैं।"
* "विवश क्रोध की चरम सीमा एक आदर माँगने वाली चीज़ है।"
* "स्त्री-प्रकृति का एक निगूढ़ तत्त्व, उसकी अत्यंत सुलभ एक बाहरी वैपरीत्य जिसमें उसका सौंदर्य और उसकी सामंजसता छिपी हुई है..."
* "नास्तिक जब विश्वास करने पर आता है, तो बड़े-बड़े पण्डित उसके आगे नहीं टिक सकते। उसकी अंधविश्वास की सर्वग्राहिणी लहर के आगे संदेह की कंदराएँ, बुद्धि के पहाड़, सब समतल हो जाते हैं और डूब जाते हैं।"
* "प्रेम की और त्याग की विरुदावली बहुतों ने गायी है, घृणा और वासना की प्रशंसा कभी किसी ने नहीं की।"
* “रोमाँ रोलाँ का यह वाक्य पढ़ा कि 'सत्य उनके लिये है जिनमें उसे सह लेने की शक्ति है।"
* "आप अंधकार दूर करना चाहें तो यही कर सकते हैं कि रोशनी जला दें; यह नहीं कर सकते कि अंधकार का अँधियारापन मिटा दें।" - शेखर, राघवन से
# "अज्ञात शून्य से बचने का आयोजन वैसा ही है जैसा छाया से लठैती करना।" - शेखर, सदाशिव से
* "संशय मानव का अधिकार है, लेकिन अगर वह उदारता नहीं पैदा करता तो वह मानव का शाप है।"
* "उसने कई बार देखा था, आप राष्ट्र के नाम पर लोगों को बुलाइये कोई नहीं आयेगा; लेकिन राष्ट्रीय झंडा लेकर चलिये तो बहुत लोग नीचे आ खड़े होंगे, और अपने कोट के कॉलर में तिरंगा बिल्ला भी लगा लेंगे।"
* "हमारे आदर्श डर की भीत पर कायम हैं, हमारे विशाल भवनों की नींव खोखली है, और जैसे कि शास्त्र भी कहते हैं, हमारे देवताओं के पैर भूमि पर नहीं टिकते हैं... समाज की सड़ती हड्डियों को भड़कीले लाल रेशम में लपेटकर हम कहते हैं- देखो, हमारा युवक- समुदाय...'"
* "सौंदर्य कुछ नहीं है। अगर वह शक्ति नहीं है, प्रेरणा नहीं है; यह उसे समुद्र ने सिखा दिया था, उस आदि गुरु, आदि सत्य, आदि शिव, आदि सुंदर समुद्र ने ! सौंदर्य वहीं है जहाँ संग्राम है, और उसे वही देख सकता है जिसके भीतर शक्ति है।"
* "इसलिये नहीं डरते कि मरना बहुत खराब होता है, इसलिये डरते है कि जीना अच्छा लगता है।" - सरस्वती, शेखर से
* "हम लोग काल का मापन निष्प्राण घड़ियों से करते हैं- कितने मूर्ख हैं हम। क्षण में ही जो युग-युग बीत जाते हैं, और युगों तक जो क्षण वैसा ही बना रहता है, उसको अनुभव से मापने की सामर्थ्य क्या घड़ियों में है?"
* "उसकी इस अवर्णनीय सुन्दरता ने, विशेषणहीन रात्रिता ने, यह प्रमाणित कर दिया है कि ईश्वर नहीं है, क्योंकि भूख और लड़ाई बनानेवाली कौन-सा ऐसा ईश्वर हो सकता है जो इतनी सुन्दरता बना सके?"
* "लेकिन यह कहना तो वही हुआ कि ईश्वर वही है, जिसके बारे में हम निश्चयपूर्वक कह सकें, 'वह नहीं है।"
* "उसने देखा-समझ लिया कि कोई किसी का नहीं है, यानी इतना नहीं है कि उसका स्वामी, निर्देशक, भाग्य विधायक बन सके। कोई ऐसा नहीं है जिस पर निर्भर किया जा सके, जिसे प्रत्येक बात में पूर्ण, अचूक माना जा सके। यदि किसी का कोई है, तो उसकी अपनी बुद्धि, मनुष्य को उसी के सहारे चलना है, उसी के सहारे जीना है, ऐसे स्थान अवश्य हैं, जहाँ बुद्धि जवाब दे जाती है लेकिन इसमें वह ईमानदारी है, जो बात नहीं जानती, वहाँ पर चुप रहती है, गलत उत्तर नहीं देती।"
* "स्कूलों में 'टाइप' बनते हैं, वह बना-व्यक्ति और जब कोई आहत होकर शक्की होता है, तब संसार में शक से मुक्त कुछ नहीं रह जाता।"
* "बड़ा होकर शेखर उनसे कहा करता था, 'देखिये, मानव स्वभाव विश्वासी तो है ही। और जब विश्वासी है, तब पक्षपात लेकर चलता ही है। Prejudiced होता ही है।" - शेखर, पिता से
* "जीवन वैचित्र्य का दूसरा नाम है। जिनके जीवन एकरूपता के बोझ से कुचले जाकर नष्ट हो गए हैं, उनके जीवन में भी इतनी घटनाएँ हुई होंगी कि एक सुंदर उपन्यास बन सके। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी जीवनी लिखने लगे, तो संसार में सुंदर पुस्तकों की कमी न रहे। लेकिन तब, जब हरेक को लिखना आता हो।"
* "मेरे व्यक्तिगत जीवन में मानव के समष्टिगत जीवन का भी इतना अंश है कि समष्टि उसे समझ सके और उसमें अपने जीवन की एक झलक पा सके। मेरे जीवन में भी व्यक्ति और टाइप का वह अविश्लेष्य घोल है, जिसके बिना कला नहीं है, और जिसके बिना, फलतः उपन्यास नहीं है।"
* "मैं केवल एक बोझ अपने ऊपर से उतारना चाहता हूँ; मैं अपना जीवन किसी को देना नहीं चाहता हूँ; मैं अपना जीवन किसी को देना नहीं चाहता, स्वयं पाना चाहता हूँ; क्योंकि मुझे अब उसे वैसा देना है, जैसे देकर वह फिर मुझे मिलेगा नहीं। बिलकुल पूर्णतया नष्ट हो जाएगा- कुछ नहीं रहेगा।... यह अब शेखर नहीं है, यह मैं हूँ। कलाकार बनने का इच्छुक, कवियशः प्रार्थी, शेखर समाप्त हो गया है, अब वह बचा है जो मैं हूँ, जो फाँसी चढ़ेगा; जो मैं है, जिसे मैं 'मैं' कहता हूँ और कहकर अर्थ नहीं समझता कि मैं क्या हूँ।"
* "करोड़ों वर्षों से मानव की एक ही चेष्टा रही है कि या तो सुख पाले या उसकी कामना को खो दे, और इन दोनों में ही वह असफल रहा है...."
* "यों कहना चाहिए, माँ की ओर आकर्षित पुत्र और पिता की ओर आकर्षित कन्या साधारणता की ओर, सामान्यता की ओर जाते हैं, और पिता की ओर आकृष्ट पुत्र, माता की ओर आकृष्ट कन्या, असधारण होते हैं, पहली श्रेणी में मिलेंगे सीधे-सादे शांत आदमी, सामान्य स्त्रियाँ, जिनमें कोई खास बुराई नहीं है, जो साधारणतया प्रसन्न और संतुष्ट हैं; जो जीते हैं, रहते हैं और मर जाते हैं; दूसरी में मिलेंगे प्रतिभावन लेखक और कवि, देश और संसार को बदल देनेवाले सुधारक, क्रांतिकारी, डाकू, जुआरी, पतित-से-पतित मानवता के प्रेत...अच्छे या बुरे, उनके लिये साधारणता नहीं है; वे सुलग नहीं सकते, फट ही सकते हैं.... अच्छे और बुरे का निर्णायक कौन है?"
* "लेकिन मुझे लगता है, मृत्यु एक ऑपरेशन है, जैसे दाँत उखड़वा देना। कुरसी पर बैठना पड़ता है, डाक्टर एक झटका देता है, एक तीखा दर्द होता है और फिर शांति मिलती है, छुटकारा हो जाता है। मृत्यु भी वैसी ही है..."
* "शायद मृत्यु का ज्ञान, और जीवन की कामना एक ही चीज है। जीवन प्यारा है या नहीं, इसकी कसौटी यही है कि उसे बिना खेद के लुटा दिया जाय; क्योंकि विराट प्रेम मौन ही हो सकता है; जो अपना प्यार कह सकते हैं, उनका प्यार ओछा है..." •
"नीम का स्वाद कटु है, गन्ध मधुर। ऐसा ही प्रेम है, जिसका रंग सुंदर है और स्पर्श कठोर.."
* "विश्वास बच्चों की चीज है। दिखावट और सच्चाई में भेद करना, यह बड़ों का अधिकार है।"
* "शेखर नास्तिक है, और मूर्तिपूजक है। और सरस्वती ही वह उपास्य मूर्ति है। उपासना जब हद तक पहुंचती है तब उपास्य ठीक उतना ही मानवीय होता है जितना कि उपासक, बल्कि उपासक के लिये ही वह उसी का एक प्रक्षेपण (Projection) मात्र रह जाता है जो उसके भीतर न होकर, बिलकुल घटनावश उसके सामने हो गया है और इस सामने होने में, जाने कैसे अस्पृश्य हो गया है जैसे शारशे में अपना प्रतिबिंब, पर साथ ही विस्तीर्ण और अबाध भी हो गया है..."
* "मानवता कुछ चाहती है, लेकिन जानती नहीं कि क्या, और उसे जानने की खोज में, अनेक रास्तों पर एक साथ ही भटक रही है... मानो सारी मानवता, अपने जीवन की गति में, किसी दीर्घ वयःसंधि पर खड़ी है और अपने से उलझ रही है, उसका यौवन उसके कृत्तित्त्व के दिन अभी आगे हैं।"
* "विवश क्रोध की चरम सीमा एक आदर माँगने वाली चीज़ है।"
* "स्त्री-प्रकृति का एक निगूढ़ तत्त्व, उसकी अत्यंत सुलभ एक बाहरी वैपरीत्य जिसमें उसका सौंदर्य और उसकी सामंजसता छिपी हुई है..."
* "नास्तिक जब विश्वास करने पर आता है, तो बड़े-बड़े पण्डित उसके आगे नहीं टिक सकते। उसकी अंधविश्वास की सर्वग्राहिणी लहर के आगे संदेह की कंदराएँ, बुद्धि के पहाड़, सब समतल हो जाते हैं और डूब जाते हैं।"
* "प्रेम की और त्याग की विरुदावली बहुतों ने गायी है, घृणा और वासना की प्रशंसा कभी किसी ने नहीं की।"
* “रोमाँ रोलाँ का यह वाक्य पढ़ा कि 'सत्य उनके लिये है जिनमें उसे सह लेने की शक्ति है।"
* "आप अंधकार दूर करना चाहें तो यही कर सकते हैं कि रोशनी जला दें; यह नहीं कर सकते कि अंधकार का अँधियारापन मिटा दें।" - शेखर, राघवन से
# "अज्ञात शून्य से बचने का आयोजन वैसा ही है जैसा छाया से लठैती करना।" - शेखर, सदाशिव से
* "संशय मानव का अधिकार है, लेकिन अगर वह उदारता नहीं पैदा करता तो वह मानव का शाप है।"
* "उसने कई बार देखा था, आप राष्ट्र के नाम पर लोगों को बुलाइये कोई नहीं आयेगा; लेकिन राष्ट्रीय झंडा लेकर चलिये तो बहुत लोग नीचे आ खड़े होंगे, और अपने कोट के कॉलर में तिरंगा बिल्ला भी लगा लेंगे।"
* "हमारे आदर्श डर की भीत पर कायम हैं, हमारे विशाल भवनों की नींव खोखली है, और जैसे कि शास्त्र भी कहते हैं, हमारे देवताओं के पैर भूमि पर नहीं टिकते हैं... समाज की सड़ती हड्डियों को भड़कीले लाल रेशम में लपेटकर हम कहते हैं- देखो, हमारा युवक- समुदाय...'"
* "सौंदर्य कुछ नहीं है। अगर वह शक्ति नहीं है, प्रेरणा नहीं है; यह उसे समुद्र ने सिखा दिया था, उस आदि गुरु, आदि सत्य, आदि शिव, आदि सुंदर समुद्र ने ! सौंदर्य वहीं है जहाँ संग्राम है, और उसे वही देख सकता है जिसके भीतर शक्ति है।"
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