बाणभट्ट की आत्मकथा उपन्यास- (हजारीप्रसाद द्विवेदी)|| UGC NET & 12th Class pdf
बाणभट्ट की आत्मकथा (हजारीप्रसाद द्विवेदी)
हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा सन् 1946 ई. में प्रकाशितइस उपन्यास की कथा सातवी सदी के हर्षवर्धन काल से ली गई है। इसलिये इसे ऐतिहासिक उपन्यास की संज्ञा भी दी गई है जो आत्मकथानक शैली में लिखी गई है।
उपन्यास की शुरुआत में मालूम होता है कि ऑस्ट्रिया की एक वृद्ध महिला मिस कैथरीन से प्राप्त पांडुलिपि को आधार बनाकर व्योमकेश शास्त्री (हज़ारी जी का छद्म नाम) ने यह उपन्यास लिखा है। लेकिन उपन्यास के अंत में पता चलता है कि मिस कैथरीन एक काल्पनिक किरदार है और असलियत में उन्हें कोई पुस्तक प्राप्त नहीं हुई थी। वास्तव में यह उपन्यास ही इतिहास और कल्पना की बुनावट से लिखा गया है।
'बाणभट्ट की आत्मकथा' ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया उपन्यास है। उपन्यास में सातवीं शती के हर्षकालीन राजनीतिक स्थितियों एवं आराजकताओं का वर्णन हुआ। इस उपन्यास के कथानक में इतिहास की पृष्ठभूमि ली गई है, शेष सब कुछ कल्पना के आधार पर गढ़ा गया है। यह उपन्यास 'हर्षचरित' नामक संस्कृत ग्रंथ को उपजीव्य बनाकर लिखा गया है।
'बाणभट्ट की आत्मकथा' ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया उपन्यास है। उपन्यास में सातवीं शती के हर्षकालीन राजनीतिक स्थितियों एवं आराजकताओं का वर्णन हुआ। इस उपन्यास के कथानक में इतिहास की पृष्ठभूमि ली गई है, शेष सब कुछ कल्पना के आधार पर गढ़ा गया है। यह उपन्यास 'हर्षचरित' नामक संस्कृत ग्रंथ को उपजीव्य बनाकर लिखा गया है।
पात्र
मुख्य पात्र
* बाणभट्ट :- हर्षवर्धन का राजपंडित, नियतिवादी, सभ्य, शिष्ट एवं मृदुभाषी है। यह उपन्यास का नायक भी है। बाणभट्ट का वास्तविक नाम दक्षभट्ट था। नारी का सम्मान करता था।
* निपुणिका :- निम्न श्रेणी की विधवा जो बाणभट्ट से प्रेम करती है। यह बाण की नाटक मंडली की पात्र भी थी। बाद में पान की दुकान चलाती है।
* भट्टिनी :- भट्टिनी राजकन्या है और तुवरमिलिंद की पुत्री है। इसका अपहरण होना और छुड़वाना नाटक के केंद्र में है।
गौण पात्र
* अघोरभैरव :- वाममार्गी साधक* लोरिकदेव :- भद्रेश्वर दुर्ग का स्वामी
* सुगतभद्:- बौद्ध भिक्षु एवं आचार्य
* महामाया:- गृहवर्मा की रानी
* सुचरिताः- उपकथा की नायिका
* अन्य: - हर्षवर्धन, कृष्णवर्धन, विग्रहवर्मा, तुवरमिलिंद, राजश्री
कथासार
* प्रस्तुत उपन्यास में ऐतिहासिक पात्रों के साथ-साथ काल्पनिक पात्र भी हैं। यह उपन्यास राजा हर्षवर्धन के दरबारी कवि 'बाणभट्ट' के जीवन पर आधारित है। 'बाणभट्ट की आत्मकथा' हर्षकालीन सभ्यता एवं संस्कृति का जीवंत दस्तावेज है। संपूर्ण उपन्यास 20 उच्छवासों में विभक्त है। उपन्यास का उद्देश्य बाणभट्ट एवं हर्षवर्धनकालीन युग को संदर्भों सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक के साथ चित्रित व वर्णित करना है। उपन्यास में नारी चेतना का भी सुंदर आख्यान है। इसमें उदात्त प्रेम का वर्णन हुआ है। बाणभट्ट स्वय स्त्रियों के प्रति गहरा सम्मान रखता है। 'वास्तव में बाणभट्ट के द्वारा हम हजारी प्रसाद द्विवेदी के स्त्री संबंधी विचारों को भी समझते है। निडनिया (निपुणिका) को उज्जयिनी नाटक-मंडली में भर्ती करने के पश्चात् भट्ट सोचता है कि "साधारणतः जिन स्त्रियों को चंचल और कुलभ्रष्टा माना जाता है उनमें एक दैवी शक्ति भी होती है, यह बात लोग भूल जाते हैं. मैं नहीं भूलता। मैं स्त्री शरीर को देव मंदिर के समान पवित्र मानता हूँ।"
* हर्षवर्धन के समय ब्राह्मण और बौद्धधर्म के टकराव को भी उपन्यास का हिस्सा बनाया गया है। हर्षवर्धन बौद्ध था. लेकिन वह ब्राह्मणों को भी राज्य में संरक्षण देता था और समन्वय का हिमायती था। सन् 1946 ई. में लिखा यह उपन्यास शायद स्वतंत्र भारत की ओर इसी समन्वय् की आशा से देख रहा था। उपन्यास मानव धर्म को सबसे बड़ा धर्म बताता है। एक प्रसंग आता है जब बाणभट्ट को नदी पार करते समय वराह की मूर्ति और भट्टिनी में से किसी एक को बचाना होता है तो वह भट्टिनी को बचाता है।
रमेश कुतल मेघ ने भौगोलिक मात्राओं को आधार बनाकर उपन्यास के कथानक को पाच भागों में बाटा है-
* पहला चरण: - स्थाणीश्वर में बाणभट्ट और निपुणिका की भेंट होती है। वहाँ निपुणिका बाणभट्ट से कहती है कि छोटे राजकुल में भट्टिनी बंदिनी है। वहाँ से उसे किसी तरह निकालना होगा। इसके बाद बाण स्त्री वेश में जाकर उसे छुड़ा ले आता है।
* दूसरा चरण:- इसके बाद बाणभट्ट भट्टिट्टनी और निपुणिका को वह गंगा मार्ग से नौका द्वारा मगध ले जाता है। चुनार के किले के पास उसकी नौका पर कुछ डाकुओं का हमला होता है। बाण वहाँ से दोनों को बचाकर निकल जाता है और लोरिकदेव नामक एक सामंत के घर पहुँचा देता है।
* तीसरा चरण:- उन्हें वहीं छोड़कर वह हर्ष के दरबार में आता है और अपनी प्रज्ञा के बल पर वहाँ राजकवि नियुक्त होता है। बाद में बाण द्वारा भट्टिनी को 'स्थाणीश्वर' आमंत्रित करना एवं भट्टिनी का स्वतंत्र रानी की तरह रहना पाया जाता है।
* चौथा चरण:- यह चरण भट्टिनी के महत्त्व को प्रतिपादित करता हैं। वह आमंत्रित की रक्षिता शक्ति है। उसी के कारण भारतवर्ष की रक्षा हो सकती है।
* पाँचवाँ चरण:- हर्ष के दरबार में बाणभट्ट, भट्टिनी और निपुणिका का आना तथा वहाँ रत्नावली नाटिका का मंचन होना। इसी नाटक के अत में मंच पर ही निपुणिका के प्राणों का अंत हो जाता है। अत में बाणभट्ट उद्देश्य प्राप्ति हेतु भट्टिटनी को तुवरमिलिंद के यहाँ पहुँचाने जाता है।
* "साधारणतः जिन स्त्रियों को चंचल और कुलभ्रष्टा माना जाता है। उनमें एक दैवी शक्ति भी होती है. यह बात लोग भूल जाते हैं।"
* "लज्जा जो तरुणियों का स्वाभाविक अलकार है।"
* "चिता में निमग्न मनुष्य अंधा होता है।"
* "बुद्धिमान की नीति मौन होती है।" - बाणभट्ट (उपर्युक्त सभी)
* पहला चरण: - स्थाणीश्वर में बाणभट्ट और निपुणिका की भेंट होती है। वहाँ निपुणिका बाणभट्ट से कहती है कि छोटे राजकुल में भट्टिनी बंदिनी है। वहाँ से उसे किसी तरह निकालना होगा। इसके बाद बाण स्त्री वेश में जाकर उसे छुड़ा ले आता है।
* दूसरा चरण:- इसके बाद बाणभट्ट भट्टिट्टनी और निपुणिका को वह गंगा मार्ग से नौका द्वारा मगध ले जाता है। चुनार के किले के पास उसकी नौका पर कुछ डाकुओं का हमला होता है। बाण वहाँ से दोनों को बचाकर निकल जाता है और लोरिकदेव नामक एक सामंत के घर पहुँचा देता है।
* तीसरा चरण:- उन्हें वहीं छोड़कर वह हर्ष के दरबार में आता है और अपनी प्रज्ञा के बल पर वहाँ राजकवि नियुक्त होता है। बाद में बाण द्वारा भट्टिनी को 'स्थाणीश्वर' आमंत्रित करना एवं भट्टिनी का स्वतंत्र रानी की तरह रहना पाया जाता है।
* चौथा चरण:- यह चरण भट्टिनी के महत्त्व को प्रतिपादित करता हैं। वह आमंत्रित की रक्षिता शक्ति है। उसी के कारण भारतवर्ष की रक्षा हो सकती है।
* पाँचवाँ चरण:- हर्ष के दरबार में बाणभट्ट, भट्टिनी और निपुणिका का आना तथा वहाँ रत्नावली नाटिका का मंचन होना। इसी नाटक के अत में मंच पर ही निपुणिका के प्राणों का अंत हो जाता है। अत में बाणभट्ट उद्देश्य प्राप्ति हेतु भट्टिटनी को तुवरमिलिंद के यहाँ पहुँचाने जाता है।
प्रमुख उद्धरण
* "भावी जीवन की रंगीन कल्पनाओं में डूबते-उतरते मनुष्य को आसपास देखने की फुरसत कहाँ होती है।"* "साधारणतः जिन स्त्रियों को चंचल और कुलभ्रष्टा माना जाता है। उनमें एक दैवी शक्ति भी होती है. यह बात लोग भूल जाते हैं।"
* "लज्जा जो तरुणियों का स्वाभाविक अलकार है।"
* "चिता में निमग्न मनुष्य अंधा होता है।"
* "बुद्धिमान की नीति मौन होती है।" - बाणभट्ट (उपर्युक्त सभी)
* "तर्क से विद्वेष बढ़ता है, विद्वेष से हिंसा पनपती है और हिंसा से मनुष्यता का विध्वस होता है।"- आचार्यपाद
* "इस ब्रह्मांड का प्रत्येक अणु देवता है। देवता ने जिस रूप में तुम्हें सबसे अधिक मोहित किया है. उसी की पूजा कर।" - बाबा
* "जब तक तुम पुरुष और स्त्री का भेद नहीं भूल जाते, तब तक तुम अधूरे हो, अपूर्ण हो, आसक्त हो।" -बाबा
* "पुरुष निःसंग है, स्त्री आसक्तः पुरुष निर्द्वन्द्व है, स्त्री द्वन्द्वोन्मुखी; पुरुष मुक्त है, स्त्री बद्ध। पुरुष स्त्री को शक्ति समझकर ही पूर्ण हो सकता है; पर स्त्री, स्त्री को शक्ति समझकर अधूरी रह जाती है।"- महामाया
* "स्त्री प्रकृति है। वत्स, उसकी सफलता पुरुष को बाँधने में है, कितु सार्थकता पुरुष की मुक्ति में है।"- महामाया
* "डरना किसी से भी नहीं, गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं।" - अघोर भैरव
* "मानव-देह केवल दंड भोगने के लिये नहीं बनी है. आर्य!"- सुचरिता
* "धर्म की रक्षा अनुनय विनय से नहीं होती, शास्त्रवाक्यों की संगति लगाने से नहीं होती; वह होती है अपने को मिटा देने से। मृत्यु का भय माया है।"- महामाया
* "स्त्री के दुख इतने गंभीर होते हैं कि उसके शब्द उसका दशमाँश भी नहीं बता सकते।" -बाणभट्ट
* "दुख तो केवल मन का विकल्प ही है, मनुष्य तो नीचे से ऊपर तक केवल परमानन्दस्वरू है।" - योगी
* "प्रम एक और अविभाज्य है। उसे केवल ईर्ष्या और असूया ही विभाजित करके छोटा कर देते हैं।" -निपुणिका
* "दुनिया केवल प्रस्तर-प्रतिमाओं पर जान देती है।"- चारूस्मिता
* "अपने को निःशेष भाव से दे देना ही वशीकरण है।"- निपुणिका
* "मैं स्त्री-शरीर को देव मंदिर के समान पवित्र मानता हूँ।"- बाणभट्ट
* "दुख तो केवल मन का विकल्प ही है, मनुष्य तो नीचे से ऊपर तक केवल परमानन्दस्वरू है।" - योगी
* "प्रम एक और अविभाज्य है। उसे केवल ईर्ष्या और असूया ही विभाजित करके छोटा कर देते हैं।" -निपुणिका
* "दुनिया केवल प्रस्तर-प्रतिमाओं पर जान देती है।"- चारूस्मिता
* "अपने को निःशेष भाव से दे देना ही वशीकरण है।"- निपुणिका
* "मैं स्त्री-शरीर को देव मंदिर के समान पवित्र मानता हूँ।"- बाणभट्ट
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