राजस्थान के भौगोलिक प्रदेश || राजस्थान भूगोल || RBSE बुक 12th
राजस्थान के भौगोलिक प्रदेश
1.  मरूस्थलीय प्रदेश   :-   यहा से click करके पढे   
2. अरावली पर्वतीय प्रदेश :- यहा से click करके पढे
3. मैदानी प्रदेश :- यहा से click करके पढे
4. दक्षिणी-पूर्वी पठारी प्रदेश (हाड़ौती प्रदेश) :- यहा से click करके पढे
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भौगोलिक प्रदेश से तात्पर्य उन विशिष्ट क्षेत्रों से हैं जिनका निर्धारण भौगोलिक तत्वों के आधार पर किया जाता है। ये वे प्रदेश होते हैं, जिनमें उच्चावच, जलवायु, प्राकृतिक वनस्पति, मृदा में पर्याप्त एकरूपता दृष्टिगत होती है। इस प्रकार की समानता या एकरूपता के कारण यहाँ के आर्थिक एवं सामाजिक स्वरूप में भी सामान्यतया समानता देखी जाती है। यद्यपि प्रत्येक क्षेत्र अपने समीपस्थ भाग से भिन्न होता है, किन्तु उनमें एक आन्तरिक एकरूपता अन्तर्निहित होती है। यही एकरूपता प्रदेशों की पहचान होती है। प्रत्येक प्रदेश की भौगोलिक विशिष्टतायें उस प्रदेश के आर्थिक एवं सामाजिक स्वरूप को न केवल प्रभावित अपितु निर्धारित करती है। ये प्रदेश मात्र सैद्धान्तिक न होकर क्षेत्रीय विकास का आधार प्रस्तुत करते है तथा क्षेत्रीय नियोजन का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
राजस्थान एक ऐसा राज्य है जहाँ अत्यधिक भौगोलिक विविधतायें, यहाँ के न केवल विकास को प्रभावित करती है, अपितु सदियों से यहाँ के जन-जीवन में विविधता के साथ एकता का सूत्रपात करती रही है। राजस्थान के मध्य में अरावली पर्वत श्रेणियों का विस्तार है, तो पश्चिम में विशाल मरूप्रदेश है। पूर्वी राजस्थान का मैदानी क्षेत्र और दक्षिण-पूर्व का पठारी क्षेत्र अपनी विशिष्ट पहचान रखता है। अतः इन प्रदेशों का अध्ययन यहाँ के प्राकृतिक, आर्थिक एवं सामाजिक स्वरूप को समझने के लिये आवश्यक है, क्योंकि इसी के माध्यम से हम यहाँ की समृद्ध संस्कृति को समझ सकते है तथा विकास की योजनाओं को नई दिशा दे सकते हैं।
राजस्थान के भौगोलिक प्रदेशों का निर्धारण सर्वप्रथम प्रो. वी.सी.मिश्रा ने 'राजस्थान का भूगोल' पुस्तक में किया जिसका प्रकाशन 'नेशनल बुक ट्रस्ट' द्वारा 1968 में किया गया। उन्होंने राजस्थान को सात भौगोलिक प्रदेशों में विभक्त किया, जो निम्न तालिका में प्रदर्शित है-
प्रो.वी.सी.मिश्रा द्वारा प्रस्तावित भौगोलिक प्रदेश
| क्र. सं. | भोंगोलिक प्रदेश | विशेषता | जिले | 
|---|---|---|---|
| 1 | पश्चिमी शुष्क प्रदेश | शुष्क रेगिस्तानी मैदान,वार्षिक वर्षा 15 से 25 से.मी. | जैसेलमेर, बाड़मेर, द.पू. बीकानेर, पश्चिमी जौधपुर, द.प.चूरू तथा पश्चिमी नागौर | 
| 2 | अर्द्ध-शुष्क प्रदेश | अरावली के पश्चिम का शुष्क प्रदेश, वार्षिक वर्षा 25से 50 सेमी. | जालौर, पाली, नागौर, झुंझुनू, उ.पू. चूरू व द.पू. जौधपुर | 
| 3 | नहरी क्षेत्र | सिंचित रेगिस्तानी मैदान, वार्षिक वर्षा 15 से 25 से.मी. | गंगानगर, पश्चिमी बीकानेर और उत्तरी जैसेलमेर | 
| 4 | अरावली प्रदेश | अरावली की पहाड़ियाँ, वार्षिक वर्षा 30 से 60 सेमी. | उदयपुर, द.पू. पाली व पश्चिमी डूँगरपुर | 
| 5 | पूर्वी कृषि औद्योगिक प्रदेश | मैदानी व पठारी अर्द्ध शुष्क प्रदेश वार्षिक वर्षा 50 सेमी से अधिक | जयपुर, अजमेर, सवाई माधोपुर, भीलवाड़ा, बून्दी, अलवर, भरतपुर, धौलपुर और कोटा शहर | 
| 6 | दक्षिणी-पूर्वी कृषि प्रदेश | विन्ध्यन व लावा पठार, वर्षिक वर्षा 50 सेमी से अधिक | पूर्वी डूँगरपुर, बाँसवाड़ा, चित्तौड़गढ़, कोटा, झालावाड़ | 
| 7 | चम्बल बीहड़ प्रदेश | चम्बल के बीहड़, वार्षिक वर्षा 50 से.मी. से अधिक | सवाई माधोपुर और जोधपुर | 
इसी प्रकार प्रो.राम लोचन सिंह ने 1971 में भारत का प्रादेशीकरण करते हुए राजस्थान को दो वृहत प्रदेशों यथा राजस्थान और राजस्थान पठार में विभक्त कर इनके चार उप-प्रदेश और 12 लघु प्रदेशों में विभक्त कर उनका विवरण प्रस्तुत किया। एक अन्य विभाजन प्रो. तिवारी और सक्सेना ने 'राजस्थान का प्रादेशिक भूगोल' पुस्तक में 1994 में प्रस्तुत किया। इसमें राजस्थान के धरातल, जलवायु, नदी-बेसिन आदि को आधार बनाकर उन्हें प्रशासनिक सीमाओं के साथ समन्वित कर राजस्थान के प्रमुख, गौण, तृतीयक एवं सूक्ष्म प्रदेशों का निर्धारण किया।
उपर्युक्त प्रादेशिकरण की जटिलताओं में न जाकर हम यहाँ राजस्थान के सामान्य भौगोलिक प्रदेशों का विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं जो राज्य के भौगोलिक, आर्थिक एवं जनसांख्यकीय स्वरूप को तो स्पष्ट करते ही हैं साथ में विकास की आधारशिला भी हैं। सामान्यतया राजस्थान को चार भौगोलिक प्रदेशों में विभक्त किया जाता है जो निम्नलिखित है-
- 1.  मरूस्थलीय प्रदेश
 
- 2. अरावली पर्वतीय प्रदेश
 
- 3. मैदानी प्रदेश
 
- 4. दक्षिणी-पूर्वी पठारी प्रदेश (हाड़ौती प्रदेश)
 
1. मरुस्थलीय प्रदेश : -
राजस्थान के पश्चिम में विस्तृत एवं विशाल मरूस्थल न केवल राज्य का अपितु सम्पूर्णभारत का एक विशिष्ट भौगोलिक प्रदेश है जिसे भारत का विशाल मरूस्थल, अथवा 'थार कामरूस्थल' के नाम से जाना जाता है। इस प्रदेश का विस्तार राज्य में 25° उत्तरी से 30° उत्तरी अक्षांश और 69°30° पूर्वी से 70°45° पूर्वी देशान्तर के मध्य है। अरावली पर्वत शृंखला के पश्चिम में यह प्रदेश 300 मि.मी. से कम वर्षा वाले क्षेत्र पर फैला बालू का विशाल क्षेत्र है। इसके अन्तर्गत राज्य के बाड़मेर, जोधपुर, जैसलमेर, बीकानेर, गंगानगर, हनुमानगढ़ जिले पूर्ण मरूस्थल तथा जालौर, पाली, नागौर चूरू, झुन्झुनूं, सीकर जिले अर्द्ध मरूस्थलीय है। प्राकृतिक एवं मानवीय विविधताओं के कारण इस प्रदेश को क्रमशः मरूस्थली, नहरी मरूस्थल, बागड़ प्रदेश आदि में विभक्त किया जाता है।
मरूस्थल का उद्भव :-
राजस्थान के मरूस्थल की उत्पत्ति के विषय में भूगर्भवेत्ताओं के मतो में भिन्नता है। कुछ विद्वान यह स्वीकार करते हें कि जहाँ आज मरूस्थल है वहाँ पूर्व में उपजाऊ वन आच्छादित आर्द्र प्रदेश था जो कालान्तर में भूगार्भिक परिवर्तनों से शुष्क मरू भूमि में परिवर्तित हो गया। भूगर्भिक प्रमाण स्पष्ट दर्शाते हैं कि पर्मो-कार्बोनिफेरस काल में पश्चिमी राजस्थान पर विस्तृत समुद्र था। ज्यूरेसिक, क्रिटेशियस और इयोसीन भूगार्भिक युगों में यह क्षेत्र समुद्र के नीचे था और धीरे-धीरे यहाँ से समुद्र खिसकने लगा, तत्पश्चात् प्लीस्टोसीन काल में यहाँ मनुष्यों का प्रादुर्भाव हुआ, जो क्रमशः विस्तृत होता गया और मानवीय क्रिया-कलापों ने इसे मरूस्थलीय क्षेत्र नाने में महत्ती भूमिका निभाई। फलस्वरूप ईसा पूर्व 4000 से 1000 वर्ष के मध्य इस क्षेत्र में पूर्ण मरूस्थलीय दशाओं का विकास हो गया। यहाँ विद्यमान खारे पानी की झीलों को समुद्रों का अवशेष माना जाता है।
सर सिरिल फॉक्स के अनुसार, मरूस्थल का दक्षिणी-पश्चिमी एवं सिंध का निचली घाटी वाला भाग अपर टर्शियरी युग तक समुद्र के नीचे रहा। यह तथ्य यहाँ जाये जाने वाली चट्टानों में प्राप्त समुद्री जीवाश्म से स्पष्ट होता है। बैलेण्डफोर्ड ने भी इसी प्रकार के विचार प्रस्तुत किये हैं। उनके अनुसार समुद्र के निरन्तर पीछे हटने के परिणामस्वरूप सिकुड़न-क्रिया से उत्थित समुद्र तली ने मरूस्थलीय क्षेत्र को जन्म दिया, जिसका प्रमाण इस क्षेत्र की लवणीय झीलें हैं तथा कच्छ का दलदली भाग भी उसी का अवशेष है।
एक अन्य विचार के अनुसार निरन्तर हवाओं के साथ होने वाला बालू प्रवाह भी इसका कारण माना जाता है। वास्तव में थार का मरूस्थल बालू का विशाल क्षेत्र है। 
यहाँ बालू का उद्गम एवं विस्तार के निम्न कारण है-
(1) चट्टानों के निरन्तर अपक्षरण के फलस्वरूप बालू का उद्भव हुआ, यह क्रिया हजारों वर्षों से अनवरत रूप से चल रही है और आज भी जारी है।
(2) वायु द्वारा उड़ाकर लाना अर्थात् वायूढ़ स्त्रोत, इसका एक प्रमुख कारण है। दक्षिणी-पश्चिमी मानसूनी हवाएँ विशेषतः कच्छ के रन से विशाल यात्रा में बालू उड़ा कर लाती है।
(3) ब्रूस-फूट के अनुसार मुहानों के प्राचीन तट वर्तमान भूगर्भिक काल में भी सिंधु घाटी और लूनी बेसिन के उत्तर-पूर्व में लम्बी दूरी तक विस्तृत थे। राजस्थान के मरूस्थल के सम्बन्ध में यह सत्य है कि यहाँ पहले सरस्वती नदी का प्रवाह था तथा इसके तट पर अनेक अधियास थे और यह क्षेत्र वनस्पति से युक्त था।
 कालान्तर में वर्षा की कमी, गर्मी तथा शुष्कता में वृद्धि और अनेक प्राकृतिक कारणों से यह क्षेत्र मरूभूमि में
परिवर्तित होता गया। सरस्वती नदी सूखती गई और इसके साथ ही तटवर्ती अधियास भी उजड़ते गये। विद्वानों के अनुसार वर्तमान में हनुमागढ़ जिले से गुजरने वाले घग्घर का तल वास्तव में सरस्वती का अवशेष है।
राजस्थान के 'थार मरूस्थल' के सम्बन्ध में यह भी माना जाता है कि इसकी वृद्धि के लिये मानवीय कारक भी उत्तरदायी है। इसमें प्रमुख है वनस्पति का काटना और अनियन्त्रित पशु चारण है। वनस्पति अपनी जड़ों के माध्यम से मिट्टी को संगठित रखती है और जैसे-जैसे वनस्पति कटती जाती है मृदा असंगठित हो रेत में बदल जाती है और हवा के साथ उड़ने लगती है। इसी प्रकार अनियन्त्रित पशु चारण से अर्थात् पशुओं के खुरों से मिट्टी कटती जाती है और निरन्तर यह प्रक्रिया चलने से मिट्टी रेत में बदल जाती है। पशुचारण शुष्क प्रदेशों का प्रमुख उद्यम रहा है और आज भी है और यह मरूस्थलीकरण का एक कारण है।
प्राकृतिक स्वरूप :-
- मरूस्थलीय प्रदेश राज्य का ही नहीं अपितु भारत का एक विशिष्ट प्राकृतिक प्रदेश है,
- जो यहाँ के उच्चावचीय स्वरूप, जलवायु, प्राकृतिक वनस्पति, मृदा आदि की विशेषताओं से स्पष्ट
परिलक्षित होती है।
- धरातल अथवा उच्चावच की दृष्टि यह प्रदेश एक विशाल रेत का सागर है जहाँ दूर-दूर तक बालुका-स्तूप एवं रेत का सागर लहराता रहता है, यद्यपि कहीं-कहीं चट्टानी क्षेत्र भी दृष्टिगत होते हैं। 
अतः इस मरूस्थल को रेतीला मरूस्थल एवं पथरीला मरूस्थल दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। 
रेतीले मरूस्थल का विस्तार सम्पूर्ण क्षेत्र के लगभग 85 प्रतिशत क्षेत्र पर है। इस देश की विशिष्ट भू-आकृति बालुका-स्तूप (Sand-dunes) हैं जो विविध रूपों में विस्तृत है। यहाँ के बालुका स्तूपों में अर्द्ध चन्द्राकार (बरखान), अनुप्रस्थ एवं देशान्तरीय बालुका-स्तूप है। ये बालुका स्तूप अति छोटे से 100 से 200 मीटर की चौड़ाई और 10-20 मीटर से अधिकतम 60 मीटर की ऊँचाई तक देखें जा सकते हैं। ये बालुका स्तूप स्थिर न होकर स्थानान्तरित होते रहते है तथा इनके स्वरूप में भी परिवर्तन आता रहता है।
 इसके विपरीत पथरीला मरूस्थल जैसलमेर, बीकानेर के उत्तरी भाग तथा जोधपुर की फलौदी तहसील के कुछ भागों में स्थित है। यहाँ बलुआ और चूने के पत्थर के शैल है, जिनका उपयोग स्थानीय इमारती पत्थर के रूप में किया जाता है। मरूस्थलीय प्रदेश के उत्तरी भाग अर्थात् हनुमानगढ़-गंगानगर जिलों में स्थित घग्घर का मैदान एक विशिष्ट प्राकृतिक प्रदेश है। 
यह घग्घर नदी का तल है जिसे अब 'मृत नदी कहा जाता है किन्तु वर्षा काल में इसमें न केवल जल प्रवाहित होता है अपितु बाढ़ आ जाती है। 
- जलवायु की दृष्टि से यह प्रदेश उष्ण-मरूस्थलीय जलवायु वाला है जहाँ उच्चतम तापमान ग्रीष्म काल में तथा शीतकाल भी पर्याप्त ठण्डा होता है। दैनिक तापान्तर अधिक होने का कारण यहाँ विस्तृत रेत है जो शीघ्र गर्म और शीघ्र ठण्डी हो जाती हैं। यह प्रदेश भारत के उष्णतम प्रदेशों में से है। गर्मी में यहाँ अधिकांशतः 40° से.ग्रे. से अधिक तापमान होता है जो 50° से.ग्रे. तक पहुँच जाता है। जबकि शीत ऋतु में औसत तापमान 12° से.ग्रे. से 16° से.ग्रे. रहता है किन्तु चूरु, गंगानगर में यह 8 से 10° से.ग्रे. होता है जो कभी-कभी जमाव बिन्दु अर्थात् जीरो डिग्री से.ग्रे. तक पहुँच जाता है। जुलाई से सितम्बर तक के महीने आर्द्र होते हैं जबकि सापेक्षित आर्द्रता 55 प्रतिशत से 70 प्रतिशत तक रहती है, मई-जून में यह मात्र 30 प्रतिशत रह जाती है। ग्रीष्म काल में धूल भरी आंधियाँ चलना यहाँ सामान्य है। इस प्रदेश में वर्षा का औसत बीकानेर में 30 सेमी, बाड़मेर   में 15 सेमी, जोधपुर में 35 सेमी. तथा जैसलमेर में 10 सेमी. रहता है। यह वर्षा जुलाई-सितम्बर के मध्य होती है। शीतकाल में पश्चिमी चक्रवातों से यहाँ कुछ वर्षा हो जाती है जिसे 'मावठ' कहते हैं। कभी-कभी मरूस्थलीय प्रदेशों में पश्चिमी चक्रयातों से कुछ वर्षा होती है जिससे यहाँ   तक कि बाढ़ भी आ जाती है।
वनस्पति : -
* वनस्पति की दृष्टि से मरूस्थलीय वनस्पति ही यहाँ प्रधानतः होती है जो कम वर्षा   और उच्च तापमान में अपना अस्तित्व बनाये रखने में समर्थ है। यहाँ छोटे पौधे, कंटीली झाड़ियों   के अतिरिक्त बबूल, खेजड़ी, कीकर,  नागफनी आदि पाई जाती है। 
* यहाँ पाई जाने वाली घाँस में   सीवन एवं तुरडिगम प्रमुख है। मरूस्थल के जिन भागों में जल उपलब्ध हो रहा है, वहाँ रोपित   वनस्पति से पर्यावरण परिदृश्य में परिवर्तन आ रहा है।
मृदा : -
*  इस प्रदेश की मृदा उपजाऊ है किन्तु यह तभी सम्भव होता है जब उसे जल उपलब्ध   होता है। यहाँ वायूढ़ मिट्टियाँ है। जिनका निर्माण वायु एवं अन्य अपरदन एवं अपक्षय से हुआ है   तथा हवाओं द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर जमा कर दी गई है। इसमें समुद्री प्रदेशों से   उड़ाकर लाई गई मृदा भी सम्मिलित है।
*  घग्घर प्रदेश में जलोढ़ मृदा है। इसी प्रकार लूनी बेसिन   में भी जलोढ़ मृदा है। यहाँ की मृदा में जैविक पदार्थों की कमी और लवणता अधिक है।   गंगानगर क्षेत्र में काँप मिट्टी है जबकि बाड़मेर, जैसलमेर, बीकानेर और नागौर में लयणीय मृदा   की प्रधानता है।
आर्थिक प्रारूप :-
राजस्थान के मरूस्थलीय प्रदेश में प्राकृतिक बाधाओं के होते हुए भी आर्थिक विकास की  ओर यह प्रदेश अग्रसर है। यहाँ कृषि, पशुपालन, खनिज, उद्योग, परिवहन एवं विपणन का   विकास क्रमिक रूप से हो रहा है। कृषि का विकास मरूस्थलीय-प्रदेश में सीमित है।   अधिकांशतः जहाँ कहीं वर्षा हो जाती है वहाँ बाजरा, चना, मोठ, मूँग आदि की फसल हो जाती  है और वर्षा न होने से अकाल की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। किन्तु इस स्थिति में अब   परिवर्तन आ रहा है विशेषकर जहाँ नहरी सिंचाई सुविधा उपलब्ध है। गंग नहर के पश्चात्   इन्दिरा गाँधी नहर एवं भाखड़ा नहरों ने गंगानगर-हनुमानगढ़ जिलों को राज्य के अग्रणी कृषि   उत्पादक जिलों में बदल दिया है। यह स्थिति बिकानेर जिले में और जैसलमेर में भी प्रारम्भ हो   चुकी है। आज मरूस्थल का उत्तरी-पूर्वी सिंचित क्षेत्र गेहूँ, गन्ना, कपास, तिलहन, दलहन आदि   के उत्पादन में महत्ती भूमिका निभा रहा है। 
* लूनी बेसिन में भी जवाई बाँध से सिंचाई द्वारा कृषि   होती है। इसी के साथ ट्यूबवेल द्वारा भी अनेक भागों में सिंचाई हो रही है। असिंचित प्रदेश में   आज भी बाजरा प्रमुख फसल है।   पशुपालन की दृष्टि से मरूस्थलीय क्षेत्र महत्त्वपूर्ण है और वास्तव में पशु यहाँ की सम्पदा हैं जिस   पर यहाँ के निवासियों का जीवन यापन होता है। विपरीत प्राकृतिक परिस्थितियों में भी यह क्षेत्र   पशुपालन हेतु विख्यात है। ऊँट यहाँ का प्रमुख पशु है जिसका मरू-परिस्थितिकी से पूर्ण   सामंजस्य है। 
* बाड़मेर, जैसलमेर, जोधपुर, नागौर, चूरू ऊँटों के लिए प्रसिद्ध है। गाय एवं बैलों की यहाँ उत्तम नस्लें पाली जाती है। बाड़मेर में काकरेज, जैसलमेर में थारपारकर, बीकानेर-गंगानगर में राठी नस्ल की गायें दूध के लिए प्रसिद्ध है। बीकानेर दुग्ध उद्योग का प्रमुख केन्द्र। बैलों के लिए नागौर सम्पूर्ण देश में विख्यात है। भेड़ पालन तथा बकरी पालन यहाँ अधिकता से होता है क्योंकि ये दोनों जानवर घटिया घास एवं किसी भी प्रकार की वनस्पति पर जीवित रह सकते हैं।
*  भेड़ों से यहाँ ऊन उद्योग विकसित हुआ है। बीकानेर इसका प्रमुख केन्द्र है। जबकि बकरियाँ मांस के लिए अधिक पाली जाती है।
खनिज सम्पदा -
* इस प्रदेश में अनेक प्रकार के खनिज उपलब्ध है। जिप्सम के प्रमुख भण्डार बीकानेर के जायसर, लूनकरनसर क्षेत्र, नागौर, जोधपुर, चुरू, हनुमानगढ़ में हैं। लिग्नाइट कोयले का भण्डार बीकानेर के पलाना क्षेत्र में है। संगमरमर मकराना, परबतसर में, टंगस्टन नागौर के डेगाना में, चूने का पत्थर सोजत, गोटन, अटबड़ा, मूँडवा में, डोलोमाईट सीकर, जोधपुर में, तामड़ा सीकर के महया, बागेश्वर में, मुल्तानी मिट्टी बीकानेर, बाड़मेर, जैसलमेर में उपलब्ध है। हाल ही में जैसलमेर जिले में तेल एवं गैस भण्डारों का पता चला है तथा तानोट और रामगढ़ में चार कुओं से गैस के भण्डार मिले हैं यहाँ खनिज तेल और गैस का उत्पादन प्रारम्भ हो गया है। अन्य क्षेत्रों में भी तेल और प्राकृतिक गैस आयोग द्वारा अनुसंधान जारी है तथा उसके उत्तम परिणाम निकलने की सम्भावना है। 
* औद्योगिक दृष्टि से मरूस्थलीय प्रदेश पिछड़ा हुआ है। अधिकांशतः मध्यम श्रेणी के उद्योग एवं लघु उद्योग ही यहाँ विकसित हुए है। ऊन उद्योग, कालीन, नमदे, वस्त्रों की छपाई, रंगाई, जूतियाँ बनाना, कसीदाकारी आदि प्रमुख कुटीर उद्योग हैं। जोधपुर, बीकानेर, पाली, गंगानगर, हनुमानगढ़, खेतड़ी, सीकर प्रमुख औद्योगिक केन्द्र है। गंगानगर, हनुमानगढ़ और पाली जिले में सूती वस्त्र एवं कपास जिनिंग-प्रेसिंग मिले हैं। ऊनी वस्त्र उद्योग जोधपुर, बीकानेर, चूरु, नवलगढ़ में। चीनी की राज्य सरकार की मिल गंगानगर में है जिसके साथ डिस्टलरी भी है।
* तेल मिल अनेक स्थानों पर है। नमक उद्योग डीडवाना, साँभर, कुचामन एवं सुजानगढ़, में केन्द्रित है। मकराना संगमरमर उद्योग का केन्द्र है। सामान्यतया यह प्रदेश औद्योगिक दृष्टि से विकसित नहीं है किन्तु भविष्य में विकास की पर्याप्त सम्भावनाएं हैं।
परिवहन :-
* परिवहन का विकास इस प्रदेश में मुख्यतया स्वतन्त्रता के पश्चात् ही हुआ है। इस प्रदेश के प्रमुख रेल मार्ग है- बीकानेर-जोधपुर-पाली-मारवाड़, जोधपुर - मेड़ता - फुलेरा -दिल्ली, बीकानेर - रतनगढ़ - चूरु - दिल्ली, जोधपुर - बीकानेर - सूरतगढ़ - हनुमानगढ़ - भटिण्डा मार्ग, सूरतगढ़ - अनूपगढ़, जोधपुर - जयपुर - सवाईमाधोपुर - कोटा, जोधपुर - जैसलमेर, जौधपुर - अहमदाबाद, बाड़मेर - मुनाबाब रेल, मारवाड़ -अहमदाबाद।
*  सड़क परिवहन का पर्याप्त विकास विगत पचास वर्षों में हुआ है। राष्ट्रीय राजमार्ग 15 गंगानगर से बीकानेर, बालोतरा, बाड़मेर होते हुए गुजरात के काँडला तक चला गया है। अन्य प्रमुख सड़क मार्गों में जोधपुर-अहमदाबाद सड़क मार्ग, जोधपुर - बीकानेर, बीकानेर - गंगानगर, जोधपुर - पाली - सिरोही, रतनगढ़ - नागौर - जोधपुर, गंगानगर - हनुमानगढ़-
सरदार शहर आदि है। जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर और गंगानगर जिलों में सीमावर्ती क्षेत्रीय विकास के अन्तर्गत सड़क मार्गों का विकास किया गया है। 
* वर्तमान मे सम्पूर्ण प्रदेश सड़क मार्गों से संयुक्त है और सभी नगर एवं कस्बे तथा बड़े ग्राम सड़कों से जुड़े हैं। वायु परिवहन की नियमित सुविधा केवल जोधपुर नगर में है, जो दिल्ली, जयपुर, बम्बई से वायु सेवा द्वारा जुड़ा
हुआ है।
जनसंख्या :-
- राजस्थान का मरूस्थलीय प्रदेश अपेक्षाकृत कम जनसंख्या को प्रश्रय देता है क्योंकि यहाँ की प्राकृतिक परिस्थितियाँ कठोर है तथा आर्थिक विकास भी अपेक्षाकृत कम है। किन्तु यहाँ के निवासी कठोर परिश्रम से अपना जीवन यापन करते आये हैं और उन्होंने विशिष्ट सांस्कृतिक क्षेत्रों जैसे मारवाड़, बांगड़, शेखावाटी आदि का विकास किया है।
- इस प्रदेश में वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार जोधपुर जिले की जनसंख्या सबसे अधिक 36.85 लाख अंकित की गई। इसके पश्चात् नागौर जिले की 33.09 लाख तथा सीकर की 26.27 लाख जनसंख्या थी। सबसे कब जनसंख्या जैसलमेर जिले की 6.72 लाख अंकित की गई करना पाया गया। जनसंख्या घनत्व की दृष्टि से सर्वाधिक जिले में 361 व्यक्ति प्रति व्यक्ति किमी. है। जबकि सबसे कम घनत्व जैसलमेर जिले में 17 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी. है जो राज्य का न्यूनतम है।
- जोधपुर इस प्रदेश का सबसे बड़ा नगर है। अन्य प्रमुख नगर है - बीकानेर, गंगानगर, पाली, सीकर, हनुमानगढ़, चूरु और झुंझुनूँ। इस क्षेत्र के अन्य नगर बाड़मेर, जैसलमेर, जालौर, नागौर, रतनगढ़, बालोत्तरा, नवलगढ़, मुकन्दगढ़, पिलानी, सुजानगढ़, एवं सरदार शहर है।
- मरूस्थलीय प्रदेश के उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि राज्य का यह क्षेत्र प्राकृतिक कठिनाई से युक्त है किन्तु यहाँ के निवासी कर्मठ एवं परिश्रमी है और सदियों से यहाँ जीवन यापन कर रहे हैं। आर्थिक विकास सीमित हुआ है किन्तु इस दिशा में निरन्तर प्रगति हो रही है,
- विशेषकर नहरों द्वारा सिंचाई के विस्तार ने मरुभूमि के विस्तृत भाग को हरा-भरा बना दिया है।
- कृषि, पशुपालन, उद्योग आदि विकसित हो रहे हैं। पर्यटन उद्योग में यहाँ निरन्तर वृद्धि हो रही है। जैसलमेर, जोधपुर तथा बीकानेर के पर्यटन स्थल विदेशियों के आकर्षण के केन्द्र हैं।
निसन्देह इस प्रदेश के विकास की पर्याप्त सम्भावनाएँ हैं।
नोट:- इस पोस्ट को अपने साथियों के साथ अवश्य साझा करें। आप अपने सुझाव नीचे कमेंट बॉक्स में दर्ज कर सकते है। जिससे हम राजस्थान भूगोल के आगामी ब्लॉग को और बेहतर बनाने की कोशिश कर सकें।
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