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1857 की क्रान्ति || राजस्थान भूगोल || 1857 की क्रांति rajasthan || 1857 की क्रांति pdf

                         1857 की क्रान्ति

मुगल साम्राज्य के पतन के पश्चात् देश में उत्पन्न अराजकता से राजस्थान भी अछूता नहीं रहा। औरंगजेब की मृत्यु से उत्पन्न शक्ति रिक्तता को एकबारगी तो मराठों ने भर दिया। मराठों ने दक्षिण में प्रभुत्व स्थापित करने के पश्चात् मालवा और गुजरात में अपना प्रभाव स्थापित कर लिया था। अतः अब उनके लिए राजस्थान मे प्रवेश करना सहज हो गया था। मई 1711 ई. में प्रथम बार मराठों ने मंदसौर के निकट मेवाड़ी क्षेत्र से धन एकत्र किया था। इस घटना से चिंतित उदयपुर के महाराणा संग्राम सिंह ने पहले जयपुर के शासक जयसिंह और बाद में मुगल बादशाह मुहम्मद शाह से मराठा समस्या के बारे में विचार-विमर्श किया था। 1724 ई. के बाद राजस्थान में मराठा आक्रमणों में तेजी आई। इसी बीच अप्रैल, 1734 ई. में बूँदी के पदच्युत शासक बुद्धसिंह ने मराठा सहायता प्राप्त कर दलेल सिंह को गद्दी से हटा दिया। राजस्थान के किसी शासक द्वारा आन्तरिक संघर्ष में मराठों को आमंत्रित करने का यह
प्रथम अवसर था। बाद में तो राजस्थान में मराठों का हस्तक्षेप बढ़ता ही गया।

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1735 ई. में मालवा पर अधिकार करने के बाद मराठों को राजस्थान पर आक्रमण करने के लिए एक आसान मार्ग मिल गया। राजस्थान में मराठे कोटा, मेवाड़, डूंगरपुर. बांसवाड़ा में घुसपैठ कर वहाँ से धन पाने के बाद कुछ समय तक संतुष्ट रहे, लेकिन शीघ्र ही वे राजाओं को ही नहीं वरन सेठ-साहूकारों को भी लूटने लगे। उन्होंने राजस्थान के नरेशों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करना भी प्रारम्भ कर दिया। बूँदी, जोधपुर और जयपुर रियासतों में उनका प्रवेश इसी बहाने हुआ।

नादिर शाह के आक्रमण के समय भी मराठों ने हिन्दू धर्म के नाम पर राजस्थान के राजाओं को संगठित करने का प्रयास किया। लेकिन मुगल दरबार में दलबन्दी के कारण राजपूत शासक भी परस्पर लड़ने लगे। इस प्रकार केन्द्र में उत्पन्न शून्यता के पूर्ति के लिए मराठा राजस्थान में आने लगे। शाहू ने पेशवा बाजीराव को राजस्थान से 'चौथ' और 'सरदेशमुखी' प्राप्त करने का आदेश दिया। 1732 ई. में सवाई जयसिंह, जो मालवा का सूबेदार बना, उसे मराठों ने घेर लिया। जयसिंह ने पराजय स्वीकार कर ली और 28 परगने मराठों को देने पड़े। 1761 से 1791 के मध्य राजस्थान में राजपूत शासकों की कमजोर स्थिति के कारण विभिन्न राज्यों पर मराठों का प्रभुत्व हो गया। राजस्थान में बढ़ते मराठा हस्तक्षेप ने जयसिंह तथा अन्य राजपूत राजाओं की आंखें खोल दी। मराठों से मुक्ति पाने के लिए धन का सहारा लिया गया। पर जब धन लेने के बाद भी मराठों ने मालवा खाली नहीं किया, तो पुनः संगठित प्रयास किए जाने लगे। अब धन के बजाग शक्ति के प्रयोग से मराठों को राजस्थान से निकालने का निश्चय किया गया। अतः जुलाई 1734 ई. में जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, कोटा, किशनगढ़, नागौर बीकानेर, के शासक मेवाड़ में हुरड़ा नामक स्थान पर एकत्र हुए और 17 जुलाई 1734 ई. को एक संधिपत्र पर हस्ताक्षर हुए, जिसके अनुसार राजस्थान के सभी शासकों ने विपत्ति के समय सहयोग देने का वादा किया। वर्षा ऋतु के बाद मराठों के विरुद्ध कार्रवाई हेतु रामपुरा में एकत्र होना तय किया।

 किसी राजा के शत्रु को अपने राज्य में आश्रय या शरण न देने की शपथ ली। परन्तु इस सम्मेलन के वांछित परिणाम नहीं निकले क्योंकि रियासती शासकों में आपसी द्वेष था। प्रतिभा सम्पन्न और क्रियाशील नेतृत्व का अभाव रहा। रियासतों की स्वार्थी नीतियां और कार्य सम्भवतः सम्मेलन की असफलता के लिए उत्तरदायी थे। 1735 ई. में मुगल सम्राट और राजपूत शासकों की सेनाओं ने मराठों को खदेड़ने का पुनः असफल प्रयास किया। पेशवा अक्टूबर 1735 ई. में उत्तर भारत की यात्रा पर निकला। उसने महाराजा जगतसिंह का आतिथ्य स्वीकार किया और उपहार तथा चौथ का समझौता हुआ। फिर वह जयपुर आया। जयसिंह ने मराठों और मुगल सम्राटों में समझौता करवाना चाहा, पर वह असफल रहा। पेशवा की राजस्थान यात्रा का परिणाम यह निकला कि मुगलों के साथ-साथ राजपूत मराठों के भी करदाता बन गए। 1738 ई. में मुगल सम्राट की ओर से निजाम को बिना युद्ध किए ही दुराहसराय की
अपमानजनक संधि करनी पड़ी, जिसके अनुसार मराठों को मालवा की सूबेदारी और 50 लाख रुपये प्राप्त हुए।

1742 ई. में मराठों ने मारवाड़ में प्रविष्ट होकर सोजत, रायपुर और जैतारण परगनों में चौथ वसूल करना आरम्भ कर दिया। 1787 ई. में राजपूतों ने संगठित होकर तूंगा नामक स्थान पर मराठों को परास्त किया। 1791 ई. के बाद मराठा शक्ति क्षीण होने लगी। इस समय दक्षिण भारत में अंग्रेजों ने अपने पैर जमा लिए थे और वे राजस्थान में घुसने का प्रयास कर रहे थे। राजस्थान के राज्यों में उत्तराधिकार के संघर्ष और सामन्ती प्रतिस्पर्धा के कारण उनकी राजनीतिक स्थिति कमजोर हो गई। 1791 ई. में अम्बाजी इंगले ने मेवाड़ के महाराणा को सहयोग दिया। फलस्वरूप डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ आदि क्षेत्रों पर मेवाड़ के महाराणा का अधिकार हो गया। परन्तु रियासती घरानों के आपसी वैमनस्य के कारण अम्बाजी इंगले पूर्ण सफलता नहीं पा सके। 1795 ई. में मेवाड़ पर चूंडावतों का अधिकार हो गया। अतः उनका अन्य शासकीय समूहों के साथ संघर्ष शुरू हो गया। 

1802 ई. में अमीर खां पिंडारी ने नाथद्वारा पर अधिकार कर लिया। भीमसिंह रियासती घरानों के आपसी वैमनस्य को नियंत्रित नहीं कर पाए। 1803 ई. में मेवाड़ के शासक ने जयपुर नरेश के माध्यम से अंग्रेजों से संधि करने का प्रयास किया, पर वह असफल रहे। 1793 ई. से 1813 ई. के मध्य जोधपुर की अव्यवस्था का मुख्य कारण सामन्ती प्रतिस्पर्धा, संकीर्णता एवं उत्तराधिकार का संघर्ष था। दोनों ही पक्षों ने भाड़ैत सैनिकों को ऊँची धनराशि देकर अपनी ओर मिलाने का प्रयास किया। परिणामतः राज्य आर्थिक संकट में घिर गया। राजस्थान के शासकों ने मराठों के बढ़ते आतंक से मुक्ति पाने के लिए मराठों के शत्रु अंग्रेजों से मित्रता करने के प्रयास शुरू कर दिए। सर्वप्रथम जयपुर के महाराजा पृथ्वीसिंह ने 1776 ई. में अपने एक प्रतिनिधि को गवर्नर जनरल के पास भेजा और अंग्रेजों से मैत्री की इच्छा प्रकट की। जोधपुर राज्य ने भी ऐसा ही प्रयास किया, पर वह सफल नहीं हुआ। 1803 ई. में अपनी नीति में परिवर्तन कर अंग्रेज भी राजपूत राज्यों से संधि करने के इच्छुक हो गए। 

नवंबर 1803 ई. में अंग्रेज सेनापति लॉर्ड लेक ने राजस्थान की उत्तरी पूर्वी सीमा पर स्थित लासवाड़ी के रण क्षेत्र में सिंधिया को निर्णायक रूप से परास्त कर दिया। मराठों की इस पराजय ने राजपूत शासकों के लिए मराठों की अधीनता से मुक्ति का स्वर्णावसर प्रदान कर दिया। 1803 ई. की संधि की शर्तों में तय किया गया कि दोनों एक दूसरे के प्रति मैत्रीपूर्ण व्यवहार रखेंगे; कम्पनी इन राज्यों से खिराज नहीं लेगी तथा आन्तरिक मामलों में भी हस्तक्षेप नहीं करेगी;
इन राज्यों की सुरक्षा का दायित्व कम्पनी पर होगा; अन्य राज्यों से विवाद कम्पनी की सहायता से सुलझाए जाएंगे, इत्यादि। भरतपुर, अलवर, जयपुर, जोधपुर आदि ने इस संधि पर हस्ताक्षर कर दिए।

1811 ई. में सेटन के स्थान पर चार्ल्स मेटकॉफ दिल्ली का रेजीडेंट बना। उसने गवर्नर जनरल लॉर्ड मिंटो को सुझाव दिया कि मराठों, अमीर खौं और पिण्डारियों की विध्वंसकारी कार्रवाइयों को समाप्त करने के लिए ब्रिटिश संरक्षण में राजपूत राज्यों का एक संघ बना लिया जाए।

तत्कालीन गवर्नर लॉर्ड हेस्टिंग्स सभी विरोधियों का दमन करके भारत में कम्पनी की सर्वोच्च सत्ता स्थापित करना चाहता था। किन्तु यह तभी संभव था कि जब होलकर और सिंधिया को उनके राज्यों में सीमित कर दिया जाता और पिण्डारियों की शक्ति का दमन किया जाता। इसके लिए राजपूत राज्यों को संरक्षण में लेना अंग्रेजों के लिए अनिवार्य था क्योंकि ये राज्य ही सिंधिया, होलकर और पिण्डारियों के प्रभाव क्षेत्र में थे। अतः अंग्रेजों ने 5 नवंबर 1817 ई. को होलकर से नई संधि करके राजस्थान के राज्यों 


क्रांति रियासतरियासती शासक
कोटा रियासतराम सिंह
जोधपुर रियासततख्त सिंह
भरतपुर रियासतजसवंत सिंह
उदयपुर रियासतस्वरूप सिंह
जयपुर रियासतराम सिंह द्वितीय
सिरोही रियासतशिव सिंह
धौलपुर रियासतभगवंत सिंह
बीकानेर रियासतसरदार सिंह
करौली रियासतमदनपाल
टोंक रियासतनवाब वजीरूद्दौला
बूंदी रियासतराम सिंह
अलवर रियासतविनय सिंह
जैसलमेर रियासतरणजीत सिंह
झालावाड़ रियासतपृथ्वी सिंह
प्रतापगढ़ रियासतदलपत सिंह
बांसवाड़ा रियासतलक्ष्मण सिंह
डूंगरपुर रियासतउदय सिंह

के साथ संधि करने का अधिकार प्राप्त कर लिया। इधर मेटकॉफ का निमंत्रण मिलते ही करौली, कोटा, उदयपुर, बीकानेर, किशनगढ़, जयपुर, जैसलमेर आदि ने कम्पनी से संधि कर ली। सबसे अंत में 1823 ई. में सिरोही राज्य से संधि की गई। इस प्रकार 1817 ई. से 1823 ई. के दौरान राजस्थान पर स्थापित यह ब्रिटिश आधिपत्य 1947 ई. में स्वतंत्रता प्राप्ति तक अक्षुण्ण रहा।

19वीं सदी के आरम्भ में 20 रियासतें थी। इनमें से 17 राजपूत, 2 जाट और एक मुस्लिम शासक द्वारा शासित थी। इन राज्यों के साथ की गई संधियों में कुछ सामान्य शर्ते थीं तो कुछ विशिष्ट, जो उस राज्य से संबंधित थीं। 

संधि की सामान्य शर्तें इस प्रकार थीं-

(1) संधि द्वारा रियासती शासकों ने अंग्रेजों की सर्वोच्चता स्वीकार कर ली।

(2) अंग्रेजों ने रियासती राजाओं का वंशानुगत राज्याधिकार स्वीकार कर लिया।

(3) अंग्रेजों ने बाहरी आक्रमण से प्रत्येक राज्य की सुरक्षा करने और आन्तरिक शांति एवं व्यवस्था बनाये रखने में सहायता का आश्वासन दिया।

(4) संधि करने वाले प्रत्येक राज्य में एक अंग्रेज पोलिटिकल एजेन्ट रखना तय किया गया। साथ ही यह आश्वासन भी दिया गया कि पोलिटिकल एजेन्ट उनके राज्य-कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।

(5) ब्रिटिश संरक्षण के बदले रियासती शासकों को अपनी विदेश नीति अंग्रेजों को सौंपनी पड़ी और अपने आपसी विवादों को अंग्रेजों की मध्यस्थता हेतु प्रस्तुत करने का वादा करना पड़ा।

(6) आवश्यकता पड़ने पर रियासती शासक अपने राज्यों के समस्त सैनिक साधन अंग्रेजों के सुपुर्द कर देंगे।

(7) अंग्रेजों को वार्षिक खिराज देने संबंधी धारा सभी राज्यों की संधियों में अलग-अलग थी। खिराज की यह राशि निर्धारित करने के लिए मराठों को दिए जाने वाले खिराज को आधार बनाया गया था। ब्रिटिश संरक्षण स्वीकार करने के फलस्वरूप राजस्थान के रियासती नरेशों को सुरक्षा तो प्राप्त हुई, पर उन्हें अपनी स्वतंत्रता खोनी पड़ी।

उपर्युक्त संधियों का राजस्थान के राज्यों पर बहुविध प्रभाव पड़ा। कम्पनी सरकार को नियमित रूप से खिराज देने से राजस्थान के राज्यों की आर्थिक स्थिति कमजोर हो गई। पोलिटिकल एजेन्ट राज्य में व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर निरन्तर हस्तक्षेप करने लगे। शासन कार्य और अधिकारों में आई कमी के कारण, राजा शासन संबंधी कार्यो के प्रति उदासीन रहने लगे। ऐसी परिस्थितियों में ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेन्ट राज्य में तानाशाह बन गए। कम्पनी द्वारा खिराज वसूल करने के अलावा समय-समय पर कई खर्चे बलात् थोप दिए जाते थे। अंग्रेजों ने राज्यों के आर्थिक साधनों पर भी अधिकार करने का प्रयास किया। नमक उत्पादन के प्रमुख क्षेत्र सांभर झील और मेवाड़ के अफीम उत्पादन क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया गया। शांति और व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर लगभग सभी राज्यों में अंग्रेजी सैनिक टुकड़ियां स्थापित कर दी गईं, जिनका खर्च भी संबंधित राज्यों को ही वहन करना पड़ता था। भारी खिराज पर ब्याज और अन्य खर्चों के थोपे जाने के फलस्वरूप राज्यों की आर्थिक स्थिति कमजोर हो गई।

राजस्थान के शासकों ने मराठा आतंक से सुरक्षा तथा अपने सामन्तों पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए ही अंग्रेजों के साथ 1818 ई. की संधि की थी। संधि सम्पन्न होने के बाद राजपूत शासकों ने अंग्रेजों की सहायता से सामंतों की शक्ति कुचलने का प्रयास किया। कालांतर में अंग्रेजों ने ऐसे अनेक कदम उठाए, जिनसे सामंतों की स्थिति कमजोर हुई। यथा, सामंतों की सैनिक सेवा के बदले अब उनसे नकद रुपया वसूल करने का निश्चय किया गया। जागीर क्षेत्रों में सामंतों को कई विशेषाधिकार प्राप्त थे। जैसे जागीरों के निवासी अपने सामन्त की आज्ञा के बिना किसी दूसरे स्थान पर नहीं बस सकते थे। सामंत व्यापारियों से राहदारी और दाना-पानी आदि शुल्क वसूल करके, उसके बदले व्यापारियों को सुरक्षा प्रदान करते थे। उनके इन विशेषाधिकारों को समाप्त कर दिया गया। 19 वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक जागीर क्षेत्र का नेतृत्व सामन्तों के पास था तथा समाज में उनकी प्रतिष्ठा भी बढ़ी-चढ़ी थी। किन्तु 19 वीं सदी के अंत तक जागीर क्षेत्रों में सामन्तों के नेतृत्व में कमी आई। अब वे उतने प्रभावशाली नहीं रहे।

अंग्रेजों ने डूंगरपुर के शासक जसवंत सिंह को गद्दी से हटाकर प्रतापगढ़ के शासक के पौत्र दलपत सिंह को वहाँ का शासक बना दिया। इससे वहाँ की जनता में ब्रिटिश सरकार के प्रति घृणा उत्पन्न हो गई। इसी प्रकार जब अंग्रेजों ने जयपुर की राजमाता भटियाणी को अधिकारच्युत करने का प्रयास किया, तो वहाँ के लोगों ने क्रुद्ध होकर कप्तान ब्लेक की हत्या कर दी। कोटा में अंग्रेजों ने तत्कालीन महाराव किशोर सिंह के विरुद्ध रियासत के फौजदार जालिम सिंह के दावों का समर्थन किया जिससे कोटा के हाड़ा राजपूत अंग्रेजों के विरुद्ध हथियार लेकर उठ खड़े हो गए। अलवर और भरतपुर रियासतों में अंग्रेजों ने हस्तक्षेप कर वहाँ अवयस्क राजकुमारों को गद्दी पर बैठा दिया, क्योंकि शासक के अवयस्क होने की स्थिति में अंग्रेजों को राज्य के प्रशासन पर अपना नियंत्रण स्थापित करने का अवसर मिल जाता था। जोधपुर के महाराजा मानसिंह भी ब्रिटिश सरकार के घोर विरोधी थे। उनके प्रयत्नों से अन्य रियासतों में भी ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध असंतोष पनपने लगा।

में क्रांति के समय ब्रिटिशपॉलिटिकल एजेन्ट
कोटा रियासतमेजर बर्टन
जोधपुर रियासतमैक मैसन
भरतपुर रियासतमोरिसन
जयपुर रियासतईडन
उदयपुर रियासतशावर्स ऑर
सिरोही रियासतजे. डी. हॉल

राजनीतिक आधिपत्य स्थापित करने के पश्चात अंग्रेज सरकार, ब्रिटिश भारत की भांति राजस्थान पर भी सांस्कृतिक विजय प्राप्त करने को उत्सुक हो उठी। ब्रिटिश सरकार ने सामाजिक सुधार के लिए प्रचलित परम्पराओं, रीतिरिवाजों और कुरीतियों को समाप्त करने के लिए विशेष कदम उठाए। इन कुरीतियों में कन्या वध, दास प्रथा, सतीप्रथा सम्मिलित थीं। इस दिशा में उठाए गए कदमों से जनता यह समझने लगी कि अंग्रेज राजस्थान के सामाजिक ढांचे को विघटित करना चाहते है। अंग्रेजों की सामाजिक और सामान्य जीवन में हस्तक्षेप की नीति ने जनता में असंतोष उत्पन्न किया।

इस प्रकार हम देखते हैं कि 1818 की संधि के बाद, अंग्रेजों द्वारा राजस्थान के राज्यों के प्रशासन में अवांछनीय हस्तक्षेप, आर्थिक संसाधनों पर आधिपत्य, अंग्रेजों द्वारा वसूल की जाने वाली वार्षिक खिराज की राशि, सामंतों के विशेषाधिकारों पर कुठाराघात और राजस्थान के सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप ने सर्वत्र असंतोष को जन्म दिया। राजा, सामंत और साधारण जनता सभी वर्ग अंग्रेजों से असंतुष्ट थे।

ईसाई मत के प्रचारकों की संदिग्ध गतिविधियों के कारण अजमेर-मेरवाड़ा क्षेत्र में यह विचार पनपने लगा कि अंग्रेज हिन्दुओं का मतान्तरण कर उन्हें जबरदस्ती ईसाई बनाने के लिए प्रयत्नशील है। इससे उनमें ब्रिटिश सत्ता के प्रति तीव्र आक्रोश उत्पन्न हो गया। ब्रिटिश विरोधी भावनाओं को पनपाने में राजस्थान के कवियों व साहित्यकारों ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके द्वारा ऐसे शासकों की निन्दा की गई जो ब्रिटिश सत्ता के भक्त थे तथा उन शासकों एवं सामन्तों की प्रशंसा की गई जो ब्रिटिश सत्ता के विरोधी थे। ऐसे कवियों में कवि बांकीदास, राघोदास, सान्दू गांगजी तथा महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण आदि के नाम उल्लेखनीय है। इससे स्पष्ट है कि भारत में क्रांति प्रारम्भ होने
से पूर्व ही देशी रियासतों में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध तीव्र असंतोष व्याप्त था।

सन् 1857 की क्रांति आरम्भ होने के समय राजस्थान में अंग्रेजी सैनिकों की 6 छावनियां थी- नसीराबाद, नीमच, देवली, ब्यावर, एरिनपुरा और खैरवाड़ा। इन सब छावनियों में लगभग पांच हजार सैनिक थे, किन्तु किसी भी छावनी में कोई अंग्रेज सैनिक नहीं था। केवल 30 अंग्रेज अधिकारी थे। मेरठ में क्रांति होने की सूचना जैसे ही राजस्थान के ए.जी.जी. को प्राप्त हुई, उसने देशी रियासतों के शासकों को यह आवश्यक निर्देश भेजे कि वे क्रांतिकारियों को अपने राज्य में न घुसने दें और जो भी ब्रिटिश सत्ता का विरोध करे, उनका कठोरतापूर्वक दमन करें।

                    नसीराबाद में क्रांति 

राजस्थान में क्रांति का सूत्रपात नसीराबाद से हुआ। इसके निम्न कारण रहे हैं-

1. उस समय नसीराबाद में 15 वीं और 30 वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री, भारतीय तोपखाने की सैनिक टुकड़ी तथा पहली बम्बई लांसर्स के सैनिक विद्यमान थे। मेरठ विद्रोह की सूचना से 15वीं नेटिव इन्फैंट्री के सैनिकों ने सोचा कि यह सारी कार्रवाई भारतीय सैनिकों को कुचलने के लिए की गई है तथा तोपें भी उनके विरुद्ध प्रयोग करने के लिए तैयार की गई है। अतः उनमें विद्रोह की भावना जाग्रत हो गई।

2. 15वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री की एक टुकड़ी काफी समय से अजमेर शस्त्रागार की रक्षा कर रही थी। संदेह के कारण उसे वहां से नसीराबाद भेज दिया। इससे सैनिकों के मन में यह धारणा बन गई कि उन पर अविश्वास किया जा रहा है। अतः वे ब्रिटिश अधिकारियों से नाराज हो गए।

3. इन दिनों बाजारों और छावनियों में बंगाल और दिल्ली के संदेशवाहक साधू और फकीरों के वेश में राजस्थान आए और उन्होंने चर्बी वाले कारतूसों के विरुद्ध प्रचार कर विद्रोह का संदेश प्रचारित किया।
भारतीय सैनिकों ने सोचा कि अंग्रेज उन्हें धोखे से ईसाई बनाना चाहते हैं। इस धार्मिक भावना के कारण
भी उत्तेजना फैली।

4. भारतीय सैनिकों पर नियंत्रण रखने के लिए बाहर से यूरोपियन सेना और कुछ तोपें मंगवाई गई। इस तथ्य को गुप्त रखा गया था और बाद में जब यह बात प्रकट हो गई, तो सेना में उत्तेजना फैल गई।

 इन्हीं कारणों से 28 मई, 1857 ई. को 15वीं बटालियन नेटिव इन्फैंट्री के सैनिकों ने तोपखाने पर अधिकार कर लिया। सारी छावनी में भगदड़ मच गई। सैनिकों ने शस्त्रागार लूट लिया। अंग्रेज सैनिक अधिकारियों मेजर स्पोटिसवुड और कर्नल न्यू बारी की हत्या कर दी गई। लेफ्टिनेंट लॉक तथा कप्तान हार्डी घायल हो गए। अंग्रेज अधिकारियों ने नसीराबाद से भागकर ब्यावर में शरण ली। चर्च और अधिकारियों के बंगले में आग लगा दी गई। खजाने की तिजोरियां तोड़ दी गई पर इन विद्रोही सैनिकों ने 4 ब्रिटिश अधिकारियों के अलावा रक्त की एक बूंद भी नहीं बहाई। छावनी को तहस-नहस करने के बाद विप्लवी सैनिकों ने अविलम्ब दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। 18 जून, 1857 ई. को विप्लवी दिल्ली पहुंच गए और दिल्ली में डेरा डाले अंग्रेजी पलटन पर पीछे से आक्रमण किया, जिसमें अंग्रेज परास्त हुए।

                नीमच में क्रांति

नसीराबाद की क्रांति की सूचना जब नीमच पहुंची, तो 3 जून, 1857 ई. को नीमच के सैनिकों ने भी विद्रोह कर दिया। क्रांतिकारियों ने छावनी को लूट लिया तथा उसमें आग लगा दी। नीमच छावनी को लूटने के बाद क्रांतिकारी नीमच से रवाना होकर सरकारी बंगलों को लूटते हुए और उनमें आग लगाते हुए शाहपुरा पहुंचे। शाहपुरा के शासक ने क्रांतिकारियों को भोजन व ठहरने की सुविधा प्रदान की। इसके पश्चात् क्रांतिकारी निम्बाहेड़ा पहुंचे, जहां की जनता ने इनका बड़ा स्वागत किया। तत्पश्चात क्रांतिकारी यहां से देवली, टोंक व आगरा होते हुए दिल्ली पहुंचे। मार्ग में अनेक स्थानों पर जनता ने क्रांतिकारियों का स्वागत किया तथा क्रांतिकारियों की संख्या में भी काफी वृद्धि हो गई। नीमच से क्रांतिकारियों के चले जाने के पश्चात ए.जी.जी. लॉरेन्स के निर्देश पर कप्तान शॉवर्स ने कोटा, बूंदी और मेवाड़ की राजकीय फौजों की सहायता से 8 जून, 1857 ई. को नीमच पर पुनः अधिकार कर लिया।

             एरिनपुरा और आउवा की क्रांति

अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का झण्डा उठाने और उनकी सत्ता को चुनौती देने का काम मारवाड़ के जागीरदारों ने किया। एरिनपुरा में स्थित जोधपुर की सैनिक टुकड़ी को जब नसीराबाद में हुई क्रांति की सूचना मिली, तो उसने भी 21 अगस्त 1857 ई. को क्रांति का बिगुल बजा दिया। क्रांतिकारियों ने एरिनपुरा स्टेशन को लूटा और मारवाड़ के रास्ते दिल्ली की ओर रवाना हो गए। जब क्रांतिकारी पाली पहुंचे, तो आउवा (पाली जिले में स्थित एक गांव) के ठाकुर कुशाल सिंह ने उन्हें अपनी सेवा में ले लिया। आउवा का ठाकुर मारवाड़ का शक्तिशाली सामन्त था। वह अंग्रेजों एवं जोधपुर के महाराजा दोनों का विरोधी था। ऐसा कहा जाता है कि मेवाड़ और मारवाड़ के अनेक सामन्त अपनी सेनाएं लेकर कुशाल सिंह की सहायता के लिए आउवा आ पहुंचे।

जोधपुर के महाराजा ने सिंघवी कुशलराज के नेतृत्व में एक फौज अंग्रेजों का दमन करने हेतु आउवा भेजी। 8 सितंबर 1857 ई. को आउवा के ठाकुर व क्रांतिकारियों की संयुक्त सेना ने जोधपुर की राजकीय फौज को पराजित कर दिया। इस संघर्ष में किलेदार अनार सिंह मारा गया तथा सिंघवी कुशलराज जान बचाकर वहां से भाग खड़ा हुआ। जोधपुर फौज की तोपें व बहुत सारी युद्ध सामग्री क्रांतिकारियों के हाथ लग गई। इस घटना के कुछ समय पश्चात ही ए.जी.जी. लॉरेन्स एक सेना लेकर स्वयं आउवा आया। 18 सितंबर को लॉरेन्स की सेना व क्रांतिकारियों के बीच भीषण संघर्ष हुआ, जिसमें लॉरेन्स को पराजय का सामना करना पड़ा। ब्रिटिश फौज को परास्त करने के बाद क्रांतिकारी दिल्ली की ओर कूच कर गए।

जॉर्ज लॉरेन्स आउवा की पराजय को भूला नहीं था। इसलिए आउवा के ठाकुर से बदला लेने के लिए उसने ब्रिगेडियर होम्स के नेतृत्व में एक विशाल सेना आउवा की ओर भेजी। 20 जनवरी 1858 ई. को ब्रिगेडियर होम्स ने आउवा पर आक्रमण कर दिया। दोनों सेनाओं के बीच भीषण संघर्ष हुआ। इस संघर्ष के दौरान ठाकुर कुशाल सिंह आउवा के किले को छोड़कर सलूम्बर चला गया। उसके जाते ही ब्रिटिश फौजों ने आउवा के किले पर अपना अधिकार कर लिया। अंग्रेजों में बदले की भावना इतनी प्रबल थी कि उन्होंने पूरे गांव को बुरी तरह लूटा तथा आउवा के किले को बारूद से उड़ा दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने आउवा के मंदिरों और मूर्तियों को पूरी तरह नष्ट कर दिया तथा वहां के निवासियों पर भीषण अत्याचार किए।

मेवाड़ में क्रांति की गूंज :- 

इस समय मेवाड़ की जनता में भी अंग्रेजों के विरुद्ध काफी रोष था। मेवाड़ के अधिकांश सामन्त ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध थे। नसीराबाद में हुई क्रांति की सूचना उदयपुर पहुंच चुकी थी। अतः मेवाड़ की फौजें भी अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए लगभग तैयार थी। किन्तु मेवाड़ के महाराणा की सूझबूझ ने तथा अंग्रेज कप्तान शॉवर्स के कठोर रुख ने स्थिति को बिगड़ने से संभाल लिया। इस समय महाराणा व कम्पनी की सरकार दोनों को ही मेवाड़ के सामन्तों से भय था, अतः दोनों एक दूसरे के साथ सहयोग करने के लिए बाध्य थे। 

ए.जी.जी. के निर्देश पर मेवाड़ के महाराणा स्वरूप सिंह ने 27 मई 1857 को अपने सभी सामन्तों को पत्र भेजकर कहा कि वे ब्रिटिश सैनिक कार्रवाई में सहयोग करें तथा पोलिटिकल एजेन्ट कप्तान शॉवर्स के निर्देशों का पालन करें। दूसरी ओर कप्तान शॉवर्स ने विरोधी सामन्तों को चेतावनी देते हुए कहा कि जो भी शांति भंग करने का प्रयत्न करेगा, उसे कठोर दण्ड दिया जाएगा। यहां तक कि सलूम्बर के रावत केसरी सिंह ने जब मेवाड़ के महाराणा के अधिकारों को चुनौती देते हुए कहा कि यदि आठ दिन में उसकी परम्परागत अधिकारों की मांग को स्वीकार नहीं किया गया, तो वह चित्तौड़ की गद्दी पर महाराणा के किसी प्रतिद्वन्दी को बैठा देगा, तब कप्तान शॉवर्स ने रावत केसरी सिंह को चेतावनी दी कि यदि उसने महाराणा के विरुद्ध किसी भी कार्रवाई में भाग लिया, तो उसे उसकी जागीर से अपदस्थ कर राजपूताने से ही निष्कासित कर दिया जाएगा। कप्तान शॉवर्स की इस धमकी से रावत केसरी सिंह शांत हो गये।

                   कोटा में क्रांति 

राजस्थान के राज्यों में हुई 1857 ई. की क्रांति में कोटा का महत्वपूर्ण स्थान है। कोटा में विद्रोह का मुख्य कारण यह था कि पोलिटिकल एजेन्ट मेजर बर्टन ने कोटा महाराव को यह सलाह दी कि कुछ अफसर वफादार नहीं हैं तथा उनका रवैया अंग्रेज विरोधी हैं। अतः वे ऐसे अफसरों को पदच्युत कर अंग्रेज अधिकारियों को सौंप दें, जिससे उन्हें उचित दण्ड दिया जा सके। मेजर बर्टन ने जिन अफसरों को सौंपने की मांग की थी, उनमें जयदयाल, रतनलाल, जियालाल आदि प्रमुख थे। मेजर बर्टन द्वारा महाराव को जो सलाह दी गई थी, वह किसी प्रकार महाराव की फौज तथा फौज के अधिकारियों पर प्रकट हो गई। फलस्वरूप फौज के सभी सिपाही क्रोध से पागल हो उठे और उन्होंने मेजर बर्टन से बदला लेने का निश्चय किया। तदनुसार 15 अक्टूबर 1857 ई. को कोटा के सैनिकों ने क्रांति का बिगुल बजा दिया।

कोटा के सैनिकों ने क्रांतिकारियों के साथ रेजीडेंसी को घेर लिया तथा उसमें आग लगा दी। क्रांतिकारियों ने मेजर बर्टन और उसके दोनों पुत्रों की हत्या कर दी। क्रांतिकारियों ने शहर में जुलूस निकाला और महाराव के महल को घेर लिया। महाराव अपने महल में एक प्रकार से कैद हो गए। फिर क्रांतिकारियों ने महाराव को एक संधिपत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए विवश किया, जिसमें 9 शर्तें थीं। 

इनमें से एक शर्त यह थी कि मेजर बर्टन तथा उसके पुत्रों की हत्या स्वयं महाराव के आदेश से की गई है। महाराव को क्रांतिकारियों की इच्छानुसार व्यवहार करने के लिए तब तक विवश होना पड़ा, जब तक करौली से सैनिक सहायता प्राप्त नहीं हो गई। क्रांतिकारियों का कोटा शहर पर लगभग 6 माह तक अधिकार रहा। उन्होंने सरकारी गोदामों, बंगलों, दुकानों, अस्त्र-शस्त्र के भण्डारों आदि को लूटा और उनमें आग लगा दी। उन्होंने जिले के विभिन्न कोषागारों को भी लूटा। ऐसा लगता है कि क्रांतिकारियों को कोटा रियासत के अधिकांश अधिकारियों का समर्थन और सहयोग प्राप्त हो गया था। क्रांतिकारियों ने शहर में लूटमार और अत्याचार कर नगर  के लोगों में भीषण आतंक पैदा कर दिया था। यह स्थिति तब तक बनी रही, जब मेजर एचजी. कोटा क्रांतिकारियों के नियंत्रण से मुक्त कराया जा सका। क्रांतिकारी नेताओं तथा विद्रोही सैनिकों को अमानुषिक दण्ड दिए गए और जयदयाल को गिरफ्तार करके तोप से उड़ा दिया गया 

अन्य राज्यों में क्रांति की गूँज :- 

राजस्थान में 1857 ई. की क्रांति केवल मारवाड़, मेवाड़ तथा कोटा तक ही सीमित नहीं रही, अपितु इसकी गूँज राजस्थान के अन्य राज्यों में भी सुनाई दी। भरतपुर, जो आगरा व मथुरा के काफी निकट है, क्रांति के समय अशांत रहा। मथुरा में विद्रोह हो जाने के बाद भरतपुर शहर में उत्तेजना फैल गई और भरतपुर की सेना ने भी क्रांति का बिगुल बजा दिया। भरतपुर के महाराजा ने वहां के पोलिटिकल एजेन्ट मेजर मोंरिसन को भरतपुर छोड़कर जाने की सलाह दी क्योंकि महाराजा को यह आशंका थी कि उसकी उपस्थिति से नीमच के क्रांतिकारी भरतपुर पर आक्रमण कर सकते हैं। महाराजा की सलाह पर मेजर मॉरिसन भरतपुर छोड़कर चला गया। क्रांति की अवधि में भरतपुर रियासत की स्थिति बड़ी विषम थी। क्रांतिकारी सैनिकों की अनेक टुकड़ियां भरतपुर की सीमा से होकर गुजरीं। भरतपुर की गूजर व मेवाती जनता क्रांति में पीछे नहीं रही, उसने खुलकर क्रांति में भाग लिया। जब पड़ोसी आगरा जिले में अंग्रेजों की शक्ति वहां के लाल किले की चारदीवारी तक सीमित हो गई, तो भरतपुर की जनता के मन में यह विश्वास भर गया कि अब भारत में 'ब्रिटिश सत्ता' समाप्त होने जा रही है। 

अलवर में भी, दिल्ली के कुछ क्रांतिकारियों के आ जाने के कारण क्रांतिकारी गतिविधियां पनपने लगी थीं। अलवर रियासत के गांवों के गूजरों ने अपने पड़ौसी राज्य भरतपुर की भांति ब्रिटिश विरोधी भावना का खुलकर प्रदर्शन किया। उन्होंने अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों से शासकों को काफी परेशान किया।

धौलपुर रियासत में भी गम्भीर उपद्रव हुए। अक्टूबर 1857 ई. के प्रारम्भ में ग्वालियर और इन्दौर के क्रांतिकारियों की संयुक्त सेना धौलपुर में प्रविष्ट हो गई। क्रांतिकारियों के प्रति सहानुभूति के कारण धौलपुर रियासत की सेना तथा अनेक अधिकारी राजा का साथ छोड़कर क्रांतिकारियों से मिल गए, जिससे धौलपुर की सत्ता खतरे में पड़ गई। क्रांतिकारियों ने धौलपुर में खूब लूटमार की। उन्होंने वहां के राजा को घेरकर जान से मारने की धमकी दी। विवश होकर राजा को क्रांतिकारियों की मांगें स्वीकार करनी पड़ी। धौलपुर में इन क्रांतिकारियों ने राव रामचन्द्र और हीरालाल के नेतृत्व में राजा की अधिकांश तोपों पर अधिकार कर लिया और उनकी सहायता से आगरा पर आक्रमण कर दिया। यह स्थिति तब तक बनी रही, जब दिसंबर में पटियाला के शासक द्वारा भेजी गई सेना की सहायता से धौलपुर में व्यवस्था स्थापित नहीं हो गई।

जयपुर में महाराजा को उनके एक पदाधिकारी राव शिवसिंह ने यह सलाह दी कि वे अंग्रेजों तथा मुगल बादशाह बहादुरशाह दोनों से मित्रतापूर्ण संबंध बनाए रखें। किन्तु उनके प्राइवेट सेक्रेटरी पं. शिवदीन ने महाराज पर अंग्रेजों का साथ देने के लिए जोर डाला। जयपुर में नवाब विलायत खाँ, मियां उस्मान खाँ और सादुल्ला खाँ मुगल सम्राट से मिलकर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध क्रांति का षड्यंत्र रच रहे थे। मुगल सम्राट के साथ किए गए इनके पत्र व्यवहार की जानकारी महाराज को मालूम हो गई। अतः उन्होंने सादुल्ला खां को राज्य से निष्कासित कर दिया और शेष दोनों को बन्दी बनाकर कारागार में डाल दिया।

अंग्रेजों के साथ था, मगर नवाब की सेना ने नीमच के क्रांतिकारियों को टोंक आने के लिए आमंत्रित किया और उनकी सहायता से नवाब के किले को घेर लिया। नवाब ने सैनिकों को डराने धमकाने का भरपूर प्रयास किया, किन्तु वह सफल नहीं हो सका।

सलूम्बर और कोठारिया का योगदान :- 

आउवा (जोधपुर) के ठाकुर कुशालसिंह से प्रेरणा लेकर मेवाड़ के दो प्रमुख सामन्तों सलूम्बर के रावत केसरीसिंह और कोठारिया के रावत ज्योतसिंह का 1857 ई. के स्वतंत्रता संग्राम में अपूर्व योगदान रहा है। यह सही है कि मारवाड़ के सामन्तों की भांति मेवाड़ के सामन्तों ने खुलकर क्रांति में भाग नहीं लिया, किन्तु अंग्रेजों का विरोध करने वाले क्रांतिकारी नेताओं तथा ब्रिटिश सत्ता के विरोधी जागीरदारों को सलूम्बर और कोठारिया के रावतों ने अपने यहां शरण दी। उन्होंने क्रांतिकारियों के परिवारों को भी आश्रय दिया।

सलूम्बर के रावत केसरीसिंह ने आस-पास के जागीरदारों को साथ लेकर आउवा के ठाकुर के स्वतंत्रता यज्ञ में भरपूर सहायता की। उदयपुर के महाराणा ने कम्पनी सरकार के साथ जो संधि की, केसरीसिंह ने उसका खुलकर विरोध किया। ए.जी. लॉरेन्स ने केसरीसिंह की ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों को देखकर महाराणा उदयपुर पर यह दवाब डाला कि वे उसके विरुद्ध कार्रवाई करें, किन्तु महाराणा उसके विरुद्ध कार्रवाई करने का साहस नहीं जुटा सके। अंग्रेजों द्वारा आउवा गांव को तहस नहस कर दिया गया तथा आउवा के ठाकुर कुशालसिंह निरीह अवस्था में इधर-उधर भटक रहे थे, तब कोठारिया के रावत ज्योतसिंह ने उनको गले लगाया। उन्होंने कोठारिया में पेशवा नाना साहब और उनके परिवार को भी शरण दी तथा सब प्रकार की सुख-सुविधा उपलब्ध कराई। इस प्रकार ब्रिटिश सत्ता का विरोध कर व भावी परिणामों की चिन्ता न कर सलूम्बर व कोठारिया के रावतों ने अपूर्व त्याग और साहस का परिचय दिया।

टोंक में भी नवाब की सेना ने मीर आलम खां के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। टोंक का नवाब अगस्त 1858 ई. तक समस्त भारत में विद्रोह कुचल दिया गया। नवंबर 1858 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत का शासन ब्रिटिश ताज को सौंप दिया। ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया की ओर से भारत के सभी नरेशों के अधिकारों एवं विशेषाधिकारों को सुरक्षित रखने का आश्वासन दिया गया। उदयपुर महाराणा ने इसका स्वागत किया और अंग्रेजों के सम्मान में भव्य दावत दी गई। यद्यपि राजस्थान में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम असफल रहा, परन्तु विप्लव के बाद राजस्थान के परम्परागत ढ़ांचे का स्वरूप बदलने लगा। आधुनिक शिक्षा का प्रसार, नए मध्यम वर्ग का जन्म, प्रशासनिक सेवाओं में जनसाधारण की नियुक्तियां, वैश्य समुदाय का सहयोग लिया जाने लगा। इन्हें महत्वपूर्ण पद और विभिन्न प्रकार के संरक्षण देना आदि कुछ इस तरह के कार्य होने लगे, जिससे राजपूतों का महत्व कम होता गया। राजस्थान के नरेश और जागीरदार अब अंग्रेजों पर पूरी तरह से निर्भर हो गए।

1857 की क्रांति की असफलता के कारण :- 

(1) राजस्थान के राजाओं ने अंग्रेजों के प्रति अपनी झुकने की प्रवृत्ति का परिचय दिया। जयपुर, अलवर, भरतपुर, धौलपुर, करौली, सिरोही, टोंक, बीकानेर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा और प्रतापगढ़ के शासकों ने विप्लव की आंधी को रोकने के लिए ब्रिटिश सत्ता को सहयोग दिया। मुगल सम्राट बहादुर शाह तथा स्थानीय विद्रोहियों ने राजस्थानी राजाओं को स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व प्रदान करने हेतु आमंत्रित किया, पर इसके बाद भी उन्होंने अंग्रेजों का साथ दिया।

(2) राजस्थान के विद्रोहियों में आपसी एकता और सम्पर्क का अभाव था। कोटा, नसीराबाद, भरतपुर, धौलपुर, टोंक आदि में अलग अलग समय पर क्रांति होने के कारण अंग्रेजों को विद्रोहियों से निपटने का अवसर मिल गया।

(3) मारवाड़, मेवाड़ और जयपुर आदि के नरेशों ने तांत्या टोपे को किसी प्रकार का सहयोग नहीं दिया।

(4) राजस्थान की 18 रियासतों में संगठन और एकता का अभाव था। नेतृत्व के लिए जब मेवाड़ के महाराणा से सम्पर्क किया, तो नेतृत्व प्रदान करने के बजाय उन्होंने शासकों के पत्र-व्यवहार संबंधी सारे कागजात ही ब्रिटिश अधिकारियों को सौंप दिए।

(5) राजस्थान अनेक देशी रियासतों में बंटा हुआ था। इस कारण उसमें क्रांतिकारियों का कोई केन्द्रीय संगठन नहीं था। उनमें नेतृत्व का भी सर्वथा अभाव था। क्रांतिकारियों के बीच आपस में सम्पर्क भी नहीं रहा था। उनमें त्याग और बलिदान की भावना तो थी, किन्तु उनमें न तो अंग्रेजों जैसा रणकौशल ही था और न वे अंग्रेज सैनिकों के समान प्रशिक्षित थे। इसके अतिरिक्त क्रांतिकारियों को धन, रसद और हथियारों की कमी का भी सामना करना पड़ा।

(6) अंग्रेजों ने अन्य क्षेत्रों में हुई क्रांति का दमन करते हुए जून 1858 ई. तक उत्तर भारत के अधिकांश भागों पर पुनः अपना नियंत्रण कर लिया। इस कारण उन्होंने राजस्थान में हुई क्रांति का दमन करने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा दी।

1857 की क्रांति की असफलता के परिणाम :-

(1) सन् 1857 की क्रांति के असफल होने के बाद राजस्थान की रियासतें ब्रिटिश संरक्षण में चली गई।

(2) ब्रिटिश सम्राट ने राजस्थान की सभी रियासतों में कम्पनी द्वारा की गई संधियां जारी रखी।

(3) राजस्थान की जनता पर अब गुलामी का दोहरा अंकुश हो गया। एक तो वे रियासती राजाओं के अधीन थे, दूसरे अंग्रेजों का भी उन पर नियंत्रण हो गया। परिणामस्वरूप यह निश्चित हो गया कि निकट भविष्य में राजस्थान में स्वतंत्रता आंदोलन का कोई भविष्य नहीं है।

(4) अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार के कारण भी लोगों में राष्ट्रीय जागृति का प्रादुर्भाव हुआ। स्वधर्म, स्वदेशी, स्वराज, स्वभाषा के फलस्वरूप लोगों में क्रांति की भावना पुनः पल्लवित हुई। इस भावना का बल प्रदान करने वालों में अर्जुनलाल सेठी, केसरीसिंह बारहठ, गोपालसिंह खरवा आदि अग्रणी माने जाते हैं।

 इस क्रांति की असफलता ने भावी संगठित आंदोलन की भूमिका तैयार कर दी।

अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न :
अभ्यास प्रश्न

1. 1823 ई. में अंग्रेजों ने सबसे अंत में राजस्थान के किस रियासत के साथ संधि की?
2. 1857 ई. की क्रांति आरंभ होने के समय राजस्थान में कहाँ-कहाँ सैनिक छावनियां थीं?
3. राजस्थान में 1857 ई. की क्रांति का आरम्भ किस दिनांक को हुआ?
4. राजस्थान के उन तीन प्रमुख स्थानों का नाम लिखिए, जहाँ 1857 ई. के सैनिक विद्रोह हुए ?
5. राजस्थान के उन तीन राजाओं के नामों का उल्लेख कीजिए, जिन्होंने 1857 ई. की क्रांति में क्रांतिकारियों का सहयोग किया?

लघु उत्तरात्मक प्रश्न :

1. राजस्थान में अंग्रेजी साम्राज्य के आरंभिक विस्तार पर प्रकाष डालिए।
2. राजस्थान में 1857 ई. की क्रांति के आरंभ के प्रमुख कारणों को संक्षेप में समझाइए।
3. राजस्थान में 1857 ई. की क्रांति में मेवाड़ के योगदान का वर्णन कीजिए।

निबंधात्मक प्रश्न :
1. राजस्थान में 1857 ई. की क्रांति के दौरान हुए विभिन्न सैनिक विद्रोहों का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
2. राजस्थान में 1857 ई. की क्रांति के दौरान स्थानीय षासकों की भूमिका की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।

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