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कानों में कँगना (कहानी) - राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह - Kaanon Mein Kangana - Raaja Raadhikaaraman Prasaad Singh

  कानों में कँगना (राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह)

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                            पृष्ठभूमि 

* 'इंदु' पत्रिका में 1913 ई. में प्रकाशित हुई थी।

* कहानी का नायक 'नरेंद्र' अपनी आपबीती लिख रहा है। (आत्मकथानक कहानी)



* इस कहानी  के माध्यम से हम इसकी सम्पूर्ण जानकारी के बारे मे चर्चा करेंगे और हम इसके पात्र , कथासार का सार , और इसके प्रमुख उद्धरण के बारे मे विस्तार से  चर्चा करेंगे ?

                                    प्रतिपाद्य 

* केंद्रीय पात्र एवं कथावाचक नरेंद्र का किरण से प्रेम, विवाह और फिर किन्नरी के सौंदर्य से वशीभूत हो प्रेम-विमुख हो जाने और अंत में किरण के प्रण-त्याग के समय वास्तविकता के एहसास होने की कहानी।

* पत्नी से अलग दुनिया के प्रेम में फरेब, छल और विश्वासघात होता है। लेखक का उद्देश्य प्रेम, सत्य, ईमानदारी और नैतिक मूल्यों का बोध कराकर आदर्शवाद की स्थापना करना है।

                                     पात्र 

                                   मुख्य पात्र 

* किरण: - 

- कहानी की नायिका, जो नायक नरेंद्र की पत्नी और उसके गुरु योगीश्वर की पुत्री है।

-  किरण आदर्शवादी नारी है।

-  नायिका की सुंदरता की तुलना लेखक ने प्रकृति से की है "आकाश में तारों को देखा या उन जगमग आंखों को देखा, बात एक ही थी।"

* नरेंद्र: -

- किरण का पति जो पहले उसके पिता का ही शिष्य रहता है, किरण से खूब प्रेम करता है। बाद में एक किन्नरी के जाल में फँसकर सब गँवा देता है।

* योगीश्वर :-

-  नरेंद्र के गुरु किरण के पिता

गौण पात्र :-

* जूही (नरेंद्र के घर की नौकरानी) 

* किन्नरी (खलनायिका)

*  मोहन (नरेंद्र का पहचान वाला)

                                    विशेष

* अत्यंत आलंकारिक व क्लिष्ट भाषा।

* इसमें दो स्थानों की चर्चा है : -  ऋषिकेश और मुरादाबाद

* भोली-भाली स्त्री की पीड़ा का मौन वर्णन

* गलत संगति का असर

* प्रकृति की खूबसूरती/सौंदर्य वर्णन

* आत्मग्लानि एवं पश्चाताप का बोध

                              प्रमुख उद्धरण 

* “उसे वन के फूलों का भोलापन समझो। नवीन चमन के फूलों की भंगी नहीं; विविध खाद या रस से जिनकी जीविका है, निरंतर काट-छाँट से जिनका सौंदर्य है, जो दो घड़ी चंचल चिकने बाल की भूषा है- दो घड़ी तुम्हारे फूलदान की शोभा। वन के फूल ऐसे नहीं। प्रकृति के हाथों से लगे हैं। मेघों की धारा से बढ़े हैं। चटुल दृष्टि इन्हें पाती नहीं। जगद्वायु इन्हें छूती नहीं। यह सरल सुंदर सौरभमय जीवन हैं। जब जीवित रहे, तब चारों तरफ अपने प्राणधन से हरे-भरे रहे, जब समय आया, तब अपनी माँ की गोद में झड़ पड़े।"

* "सुनहरी किरनें सुदूर पर्वत की चूड़ा से देख रही थीं। वह पतली किरन अपनी मृत्यु-शैया से इस शून्य निविड़ कानन में क्या ढूँढ़ रही थी, कौन कहे! किसे एकटक देखती थी, कौन जाने ! अपनी लीला-भूमि को स्नेह करना चाहती थी या हमारे बाद वहाँ क्या हो रहा है, इसे जोहती थी- मैं क्या बता सकूँ?"

* "हम दूर से तारों के सुंदर शून्य झिकमिक को बार-बार देखते हैं, लेकिन वह सस्पन्द निश्चेष्ट ज्योति सचमुच भावहीन है या आप-ही-आप अपनी अंतर-लहरी से मस्त है, इसे जानना आसान नहीं। हमारी ऐसी आँखें कहाँ कि उनके सहारे उस निगूढ़ अंतर में डूबकर थाह लें।"

* "गोपियों को कभी स्वप्न में भी नहीं झलका था कि बाँस की बाँसुरी में घूँघट खोलकर नचा देनेवाली शक्ति भरी है।"

* "समय ने सब कुछ पलट दिया। अब ऐसे वन नहीं, जहाँ कृष्ण गोलोक से उतरकर दो घड़ी वंशी की टेर दें। ऐसे कुटीर नहीं जिनके दर्शन से रामचंद्र का भी अंतर प्रसन्न हो, या ऐसे मुनीश नहीं जो धर्मधुरंधर धर्मराज को भी धर्म में शिक्षा दें। यदि एक-दो भूले-भटके हों भी, तब अभी तक उन पर दुनिया का परदा नहीं उठा- जगन्माया की माया नहीं लगी। लेकिन वे कब तक बचे रहेंगे? लोक अपने यहाँ अलौकिक बातें कब तक होने देगा। भवसागर की जल-तरंगों पर थिर होना कब सम्भव है?"

* "कंकड़ी जल में जाकर कोई स्थायी विवर नहीं फोड़ सकती। क्षण भर जल का समतल भले ही उलट-पुलट हो, लेकिन इधर-उधर से जलतरंग दौड़कर उस छिद्र का नाम-निशान भी नहीं रहने देती। जगत की भी यही चाल है। यदि स्वर्ग से देवेन्द्र भी आकर इस लोक चलाचल में खड़े हों, फिर संसार देखते ही देखते उन्हें अपना बना लेगा। इस काली कोठरी में आकर इसकी कालिमा से बचे रहें, ऐसी शक्ति अब आकाश-कुसुम ही समझो। दो दिन में राम 'हाय जानकी, हाय जानकी' कहकर वन-वन डोलते फिरे। दो क्षण में यही विश्वामित्र को भी स्वर्ग से घसीट लाया।"

* "चढ़ा नशा उतर पड़ा। सारी बातें सूझ गईं आँखों पर की पट्टी खुल पड़ी; लेकिन हाय। खुली भी तो उसी समय जब जीवन में केवल अंधकार ही रह गया।" 

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