सिक्का बदल गया - कृष्णा सोबती || हिन्दी कहानिया
सिक्का बदल गया - कृष्णा सोबती
यह कहानी सर्वप्रथम जुलाई (1948 ई.) माह की 'प्रतीक' पत्रिका में प्रकाशित संग्रह 'बादलों के घेरे' (1980 ई.) में छपी थी।
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* इस संग्रह में कुल 24 कहानियाँ हैं-
* बादलों के
घेरे * दादी-अम्मा * भोले बादशाह * बहनें * बदली बरस गई * गुलाबजल
गँडेरियाँ * कुछ नहीं कोई
नहीं * टीलो ही
टीलोमा * अभी उसी दिन
ही तो * दोहरी साँझ * डरो मत,
मैं तुम्हारी
रक्षा करूँगा * जिगरा की बात |
* सिक्का बदल
गया * आज़ादी
शम्मोजान की * कामदार
भीखमलाल * पहाड़ों के
साए तले * न गुल था,
न चमन था * एक दिन * कलगी * नफीसा * मेरी माँ
कहाँ... * लामा * दो राहें :
दो बाँहेंगी * खम्माघणी,
अन्नदाता |
प्रतिपाद्य
* यह एक ऐसी कहानी है जो विभाजन के दौर को दर्शाती है। जहाँ
शाहनी शादी के बाद आई थी, उस जगह को छोड़कर जाना पड़
रहा है। कोई भी उसकी मदद नहीं करता। यहाँ तक कि वह शेरा भी नहीं जिसे उसने छोटी उम्र से बच्चों की तरह पाला है। सब का ध्यान शाहनी की संपत्ति पर है।
* शाहनी चनाब नदी नहाकर अपने घर जाती है। वहाँ उसे मारने के लिये लोग बैठे हैं। सभी चाहते हैं कि शाहनी यह जगह छोड़ दे।
पात्र
मुख्य पात्र
* शाहनी:-
- जमींदार शाहजी की पत्नी
- विभाजन के कारण जिन्हें विस्थापित होना पड़ा।
- सारी धन दौलत छोड़कर वह कैंप लौटी।
* शेराः-
- हसैना का पति और शाहनी का कामगार
- अपनी माँ के मरने के बाद शाहनी के यहाँ पला।
- सांप्रदायिक भावना से भरकर शाहनी को मारने की सोचता है पर मार नहीं पाता।
गौण पात्र
* हसैना:- शेरा की पत्नी
* शाहजी:- शाहनी का पति, जमींदार
* फिरोज़ः - शाहनी को मारने के लिये शेरा को भड़काने वाला
* जैना: - शेरा की माँ (जो मर गई थी)
* नवाब बीबी
* बेगू पटवारी
* जौलदार
* दाऊद खाँ इंस्पेक्टर
* इस्माइल
* रसूली
विशेष
* भारत-पाक विभाजन के कारण होने वाले विस्थापन के दर्द की कहानी।
* अविभाजित कश्मीर में चुनाव के तट स्थित जबलपुर की कथा
* देश-विभाजन की पृष्ठभूमि पर आधारित कहानी
* विभाजन से उत्पन्न पीड़ा का चित्रण
* विभाजन से आए मानसिक बदलाव का चित्रण
* विधवा नारी की पराधीनता का मनौवैज्ञानिक अंकन
* क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग
प्रमुख उद्धरण
* "आज इस प्रभात की मीठी नीरवता में न जाने क्यों कुछ भयावना-सा लग रहा है। वह पिछले पचास वर्षों से यहाँ नहाती आ रही है। कितना लंबा अरसा है। शाहनी सोचती है, एक दिन इसी दुनिया के किनारे वह दुलहिन बनकर उतरी थी। और आज... आज शाहजी नहीं, उसका वह पढ़ा-लिखा लड़का नहीं, आज वह अकेली है, शाहजी की लंबी-चौड़ी हवेली में अकेली है। पर नहीं यह क्या सोच रही है वह सवेरे सवेरे। अभी भी दुनियादारी से मन नहीं फिरा उसका। शाहनी ने लंबी सांस ली और 'श्री राम, श्री राम', करती बाजरे के खेतों से होती घर की राह ली।"
* "ये शाहजी की ही असामियां हैं। शाहनी ने नज़र उठाई। यह मीलों फैले खेत अपने ही हैं। भरी-भराई नई फसल को देखकर शाहनी किसी अपनत्व के मोह में भीग गई। यह सब शाहजी की बरकतें हैं। दूर-दूर गाँवों तक फैली हुई जमीनें, जमीनों में कुएँ सब अपने हैं। साल में तीन फसल, जमीन तो सोना उगलती है।"
* "शाहनी चौंक पड़ी। देर, मेरे घर में मुझे देर। आंसुओं की भँवर में न जाने कहाँ से विद्रोह उमड़ पड़ा। मैं पुरखों के इस बड़े घर की रानी और यह मेरे ही अन्न पर पले हुए... नहीं, यह सब कुछ नहीं। ठीक है, देर हो रही है पर नहीं, शाहनी रो-रोकर नहीं, शान से निकलेगी इस पुरखों के घर से, मान से लाँघेगी यह देहरी, जिस पर एक दिन वह रानी बनकर आ खड़ी हुई थी। अपने लड़खड़ाते कदमों को संभालकर शाहनी ने दुपट्टे से आंखें पोछीं और ड्योढ़ी से बाहर हो गयी। बड़ी-बूढ़ियाँ रो पड़ीं। किसकी तुलना हो सकती थी इसके साथ! खुदा ने सब कुछ दिया था, मगर दिन बदले, वक्त बदले।"
* "टूकें अब तक भर चुकी थीं। शाहनी अपने को खींच रही थी। गाँव वालों के गलों में जैसे धुंआ उठ रहा है। शेरे, खूनी शेरे का दिल टूट रहा है। दाऊद खाँ ने आगे बढ़कर ट्रक का दरवाजा खोला। शाहनी बढ़ी। इस्माइल ने आगे बढ़कर भारी आवाज से कहा शाहनी, कुछ कह जाओ। तुम्हारे मुँह से निकली असीस झूठ नहीं हो सकती ! और अपने साफे से आंखों का पानी पोछ लिया। शाहनी ने उठती हुई हिचकी को रोककर सँधे रुँधे गले से कहा, "रब्ब तुहानू सलामत रक्खे बच्चा, खुशियाँ बक्शे...।"
वह छोटा-सा जनसमूह रो दिया। जरा भी दिल में मैल नहीं शाहनी के। और हम शाहनी को नहीं रख सके।"
* "रात को शाहनी जब कैंप में पहुँचकर जमीन पर पड़ी तो लेटे-लेटे आहत मन से सोचा राज पलट गया है... सिक्का क्या बदलेगा? वह तो मैं वहीं छोड़ आई..."
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