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चीफ की दावत - भीष्म साहनी || हिन्दी कहानिया

                चीफ की दावत - भीष्म साहनी

                                   पृष्ठभूमि 

* पहला पाठ (1957 ई.) इसमें कुल 15 कहानियाँ संगृहीत हैं।

* यह साहनी जी का दूसरा कहानी-संग्रह है।

* पहला कहानी-संग्रह भाग्यरेखा है।

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                                      प्रतिपाद्य 

* मध्यवर्ग का खोखलापन एवं उसकी मूल्यहीनता की ओर संकेत किया गया है। कहानी का नायक शामनाथ है, जिसके चीफ उसके घर डिनर पर आने वाले हैं। इस दौरान वह अपनी बूढ़ी माँ को बाधा समझता है और उसे छिपाना चाहता है परंतु माँ से ही काम बनता देख उनकी खुशामद करने लगता है।

* यह कहानी एक अर्थ में प्रेमचंद की 'बूढ़ी काकी' का अगला चरण है। उस कहानी की तरह यहाँ भी एक दावत है किंतु यहाँ मूल समस्या वृद्ध माँ के भूखे होने की नहीं बल्कि अप्रस्तुतियोग्य होने की है। माँ इस अपमानजनक स्थिति से बेहद दुःखी है किंतु जैसे ही उसे पता चलता है कि उसके फुलकारी बनाने से बेटे की तरक्की हो सकती है तो वह अचानक खुश हो जाती है ओर बेटे के लिये मंगलकामना करती है। कहानी के अंत में 'बूढ़ी काकी' की तरह बेटे या बहू का हृदय तो नहीं बदलता, किंतु सारे अपमान के बावजूद माँ का हृदय बेटे के लिये असीम ममता से भरा है- यही इस कहानी का सारतत्त्व है।

इस कहानी  के माध्यम से हम इसकी सम्पूर्ण जानकारी के बारे मे चर्चा करेंगे और हम इसके पात्र , कथासार का सार , और इसके प्रमुख उद्धरण के बारे मे विस्तार से  चर्चा करेंगे ?

                                         पात्र 

                                        मुख्य पात्र 

* शामनाथ : - 

- मध्यवर्गीय नौकरी पेशा व्यक्ति जिसकी जीवनशैली में दिखावा बहुत है।

- पदोन्नति पाने के लिये चीफ को प्रसन्न करना चाहता है।

- बूढ़ी माँ को फालतू वस्तु समझता है और उसी से अपनी स्वार्थ सिद्धि भी करता है।

* बूढ़ी माँः-

- शामनाथ की निरक्षर विधवा माँ जिसके पास पारंपरिक भारतीय माता का विराट हृदय है।

- पुरानी पीढ़ी का प्रतीक और अपने ही घर में दोयम दर्जे की चीज।

- खड़ाऊँ पहनती है और बीमारी की वजह से खर्राटे लेती है जिससे आधुनिक पीढ़ी के शामनाथ को चिढ़ है।

- चीफ से मिलने पर सकुचाती है, ताकि उसका बेटा बुरा न माने।

- बेटे की तरक्की के लिये कमज़ोर आँखें होने के बावजूद खुशी-खुशी फुलकारी बनाने को तैयार हो जाती है।

- फुलकारी पंजाब के गावों की दस्तकारी का एक सुंदर रूप है।

* चीफ :-

- शामनाथ के 'बॉस' जिसकी वह खुशामद करता है।

- संश्रांत परंतु सहज शामनाथ की बूढ़ी माँ से प्यार से मिलता है।

- बकौल चीफ उसे गाँव के लोग बहुत पसंद हैं; शामनाथ की माँ से गीत सुनने की इच्छा प्रकट करता है।

                                     गौण पात्र 

* शामनाथ की धर्मपत्नी: - इनमें भी दिखावटीपन का बोध है। पति की तरक्की के लिये खुशामदी में शामिल।

- चीफ की पत्नी अन्य देशी स्त्रियों की आराधना का केंद्र थी।

                                       विशेष 

* बूढ़ी माँ स्वयं को अपमानित महसूस करती है परंतु पुत्र की खुशी के लिये जैसा वह कहता है, करती है। देशी स्त्रियाँ उन पर खूब हँसती हैं।

* आधुनिक परिवारों में वृद्धों की किस प्रकार उपेक्षा होती है वह कहानी के केंद्र में है।

* आधुनिक दिखने की चाह में मध्यवर्गीय व्यक्ति प्रदर्शनप्रिय हो गया है।

* 'चीफ की दावत' पारिवारिक जीवन मूल्यों के विघटन को भी प्रदर्शित करती है।

* माँ का विशाल हृदयस्पर्शी ममत्व भी कहानी में स्पष्ट दिखता है।

                                    प्रमुख उद्धरण 

* “घर का फालतू सामान अलमारियों के पीछे और पलंगों के नीचे छिपाया जाने लगा। तभी शामनाथ के सामने सहसा एक अड़चन खड़ी हो गई, माँ का क्या होगा?"

* "जो वह सो गई और नींद में खर्राटे लेने लगीं, तो?"

* "अच्छी-भली यह भाई के पास जा रही थीं। तुमने यूँ ही खुद अच्छा बनने के लिये बीच में टाँग अड़ा दी!"

* "और खुदा के वास्ते नंगे पाँव नहीं घूमना। न ही वह खड़ाऊँ पहन कर सामने आना। किसी दिन तुम्हारी यह खड़ाऊँ उठा कर मैं बाहर फेंक दूंगा।"

* "सात बजते-बजते माँ का दिल धक-धक करने लगा। अगर चीफ सामने आ गया और उसने कुछ पूछा, तो वह क्या जवाब देंगी। अंग्रेज को तो दूर से ही देखकर घबरा उठती थीं, यह तो अमरीकी है। न मालूम क्या पूछे। मैं क्या कहूँगी। माँ का जी चाहा कि चुपचाप पिछवाड़े विधवा सहेली के घर चली जाएँ। मगर बेटे के हुक्म को कैसे टाल सकती थीं। चुपचाप कुर्सी पर से टाँगें लटकाये वहीं बैठी रहीं।"

* "शामनाथ का क्रोध बढ़ने लगा था, बोलते गए- तुम मुझे बदनाम करना चाहती हो, ताकि दुनिया कहे कि बेटा माँ को अपने पास नहीं रख सकता।"

* "नहीं बेटा, अब तुम अपनी बहू के साथ जैसा मन चाहे रहो। मैंने अपना खा-पहन लिया। अब यहाँ क्या करूँगी। जो थोड़े दिन जिंदगानी के बाकी हैं, भगवान का नाम लूँगी। - तुम मुझे हरिद्वार भेज दो!"

* “तुम चली जाओगी, तो फुलकारी कौन बनाएगा? साहब से तुम्हारे सामने ही फुलकारी देने का इकरार किया है।"

* "मेरी आँखें अब नहीं हैं, बेटा, जो फुलकारी बना सकूँ। तुम कहीं और से बनवा लो। बनी-बनाई ले लो।"

* “माँ, तुम मुझे धोखा देके यूँ चली जाओगी? मेरा बनता काम बिगाड़ोगी? जानती नहीं, साहब खुश होगा, तो मुझे तरक्की मिलेगी!"

* "माँ के चेहरे का रंग बदलने लगा, धीरे-धीरे उनका झुर्रियों-भरा मुँह खिलने लगा, आँखों में हल्की-हल्की चमक आने लगी। तो मैं बना दूँगी, बेटा, जैसे बन पड़ेगा, बना दूँगी।"

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