स्कंदगुप्त नाटक - जयशंकर प्रसाद || हिन्दी नाटक
स्कंदगुप्त नाटक - जयशंकर प्रसाद - 1928 ई.
* इसका प्रकाशन वर्ष 1928 ई. है।
* यह नाटक 5 अंकों में विभक्त है।
* प्रसाद ने अपने नाटक स्कंदगुप्त में भारत तथा यूरोप दोनों की नाट्य कलाओं का समावेश किया है।
प्रिय पाठकों,........इस पोस्ट में हिंदी नाटक के महत्वपूर्ण बिंदुओं को क्रमवार से समाहित किया है। यदि आपको हमारे द्वारा किया गया यह प्रयास अच्छा लगा है, तो इस पोस्ट को अपने साथियों के साथ अवश्य साझा करें। आप अपने सुझाव नीचे कमेंट बॉक्स में दर्ज कर सकते है। जिससे हम हिंदी साहित्य के आगामी ब्लॉग को और बेहतर बनाने की कोशिश कर सकें।
* गुप्तवंशीय सम्राट स्कंदगुप्त (455 ई.-467 ई.) के जीवन को आधार बनाकर, इस नाटक के माध्यम से प्रसाद ने तत्कालीन परिदृश्य में औपनिवेशिक सत्ता से संघर्ष तथा राष्ट्र के एकीकरण के लिये प्रेरित किया है।
* अंक-5,
दृश्य-33,
गीत-16,
पुरुष पात्र-17,
स्त्री पात्र-8
* इस नाटक के माध्यम से हम इसकी सम्पूर्ण जानकारी के बारे मे चर्चा करेंगे और हम इसके पात्र , कथासार का सार , और इसके प्रमुख उद्धरण के बारे मे विस्तार से चर्चा करेंगे ?
भूमिका
एन.टी.ए. यूजीसी नेट/जेआरएफ हिंदी साहित्य
* प्रसाद के ऐतिहासिक नाटक अतीत के तथ्यों के गहरे शोध पर आधारित हैं। 'स्कंदगुप्त' नाटक की भूमिका स्वरूप प्रसाद ने स्कंदगुप्त तथा मातृगुप्त (कालिदास) संबंधी ऐतिहासिक तथ्यों का विवेचन किया है तथा गुप्त राजवंश की वंशावली प्रस्तुत की है।
* प्रसाद ने इतिहास में तीन विक्रमादित्य तथा तीन कालिदास माने हैं। स्कंदगुप्त तीसरे विक्रमादित्य हैं तथा उनके समकक्ष दूसरे वाले काव्यकार कालिदास हैं। प्रसाद ने नाटककार तथा काव्यकार कालिदास को अलग-अलग माना है।
* प्रपंचबुद्धि और मुद्गल कल्पित पात्र हैं।
* देवसेना और जयमाला वास्तविक और कल्पित पात्र, दोनों हो सकते हैं।
* विजया, कमला, रामा और मालिनी कल्पित हैं।
* स्कंद की माता का नाम देवकी रखा है। इसका स्पष्ट ऐतिहासिक प्रमाण नहीं अतः यह संदिग्ध है।
* शेष पात्र ऐतिहासिक हैं।
पात्र
स्कंदगुप्त : - युवराज (विक्रमादित्य)
कुमारगुप्त :- मगध का सम्राट
गोविंदगुप्त :- कुमारगुप्त का भाई
पर्णदत्त : - मगध का महानायक
चक्रपालित :- पर्णदत्त का पुत्र
बंधुवर्मा : - मालव का राजा
भीमवर्मा :- बंधुवर्मा का भाई
मातृगुप्त :- काव्यकर्ता कालिदास
प्रपंचबुद्धि :- बौद्ध कापालिक
शर्वनाग :- अंतर्वेद का विषयपति
कुमारदास (धातुसेन): - सिंहल का राजकुमार
पुरगुप्त :- कुमारगुप्त का छोटा पुत्र
भटार्क :- नवीन महाबलाधिकृत
पृथ्वीसेन :- मंत्री कुमारामात्य
खिंगिल :- हूण आक्रमणकारी
मुद्गल :- विदूषक
प्रख्यातकीर्ति :- लंकाराज-कुल का श्रमण, महाबोध बिहार - स्थविर, महाप्रतिहार, महादंडनायक, नन्दी-ग्राम का दंडनायक, प्रहरी, सैनिक इत्यादि।
स्त्री पात्र
देवकी :-
- कुमारगुप्त की बड़ी रानी
- स्कंदगुप्त की माता
अनंतदेवी : -
- कुमारगुप्त की छोटी रानी
- पुरगुप्त की माता
जयमाला :-
- बंधुवर्मा की स्त्री
- मालव की रानी
देवसेना :-
- बंधुवर्मा की बहिन
विजया :-
- मालव के धनकुबेर की कन्या
कमला : - भटार्क की जननी
रामा : - शर्वनाग की स्त्री
मालिनी : -
- मातृगुप्त की प्रणयिनी सखी, दासी इत्यादि।
कथासार
* अंक : -1
- भारत की संकटग्रस्त स्थिति का वर्णन प्रथम अंक में हुआ है। विदेशी आक्रमणों तथा अंर्तकलहों से राष्ट्र संकट में है। गुप्त वंश का अनिश्चित उत्तराधिकार नियम समस्या को और गहरा कर देता है। ऐसे में स्कंदगुप्त पुष्यमित्रों को तथा मालव पर हमला कर रहे शकों को पराजित करता है, परंतु राजधानी में अनंत देवी, पुरगुप्त और भटार्क सत्ता हथियाने के पंडयंत्र में सम्राट की हत्या कर देते हैं।
* अंक-2:-
- विजया, स्कंदगुप्त के प्रति आकर्षित होती है। स्कंदगुप्त। सिंहासन पर बैठने के प्रति उदासीन है। प्रपंचबुद्धि, भटार्क और शर्वनाग को देवकी की हत्या के लिये तैयार करता है। रामा देवकी को बचाने का प्रयत्न करती है। अंततः स्कंदगुप्त आकर देवकी को बचा लेता है, तथा पुरगुप्त और अनंतदेवी को फिर विद्रोह न करने की चेतावनी देकर छोड़ देता है। इधर बंधुवर्मा मालव का राज्य स्कंदगुप्त को अर्पित करते हैं। उज्जयिनी में स्कंदगुप्त का राज्यारोहण।
* अंक-3: -
- प्रपंचबुद्धि तथा भटार्क, विजया की सहायता से देवसेना की बलि का उपक्रम रचते हैं। मातृगुप्त तथा स्कंदगुप्त उसे बचाते हैं। उपहार स्वरूप मातृगुप्त को कश्मीर का शासक बना दिया जाता है। भटार्क, अनंतदेवी, पुरगुप्त का हूणों के साथ सहयोग। गोविंदगुप्त की वीरगति। सिंधु प्रदेश से म्लेच्छ राज्य ध्वस्त होने पर स्कंदगुप्त द्वारा विक्रमादित्य की उपाधि धारण की गई। गांधार की घाटी में युद्ध करते हुए बन्धुवर्मा को वीरगति प्राप्त हुई। अंततः भटार्क के विश्वासघात से स्कंदगुप्त कुंभा नदी में बह जाता है।
* अंक-4 :-
- स्कंदगुप्त गायब। किसी को पता नहीं वह कहाँ है? निराशा का माहौल। अराजकता की स्थिति। विजया तथा शर्वनाग राष्ट्र-हित के लिये प्रतिबद्ध होते हैं। स्कंदगुप्त को मृत समझकर आघात से देवकी की मृत्यु। कमला के धिक्कारने पर भटार्क का शस्त्र-त्याग। ब्राह्मण-श्रमण विवाद तथा समाधान के पांथिक एकता की वकालत । स्कंदगुप्त की वापसी।
* अंक-5: -
- पुरुगुप्त सम्राट की उपाधि धारण करता है। विजया स्कंदगुप्त को रत्न-गृह देने का प्रस्ताव करती है। स्कंदगुप्त का देवसेना से प्रणय निवेदन। देवसेना ठुकरा देती है। प्रख्यातकीर्ति के नेतृत्व में बौद्ध-संघों का हूणों तथा अनंतदेवी के सहयोग से इंकार। अंततः हूण स्विगिल पराजित तथा हत। पुरगुप्त को युवराज घोषित करता है। राष्ट्र के लिये सभी संकटों को जीत कर भी स्कंदगुप्त निजी जीवन में पराजित। देवसेना के साथ रहने का स्पप्न अधूरा। नाटक का अंत।
प्रमुख उद्धरण
* "इस नाट्य-रचना का आधार दो मंतव्यों पर स्थिर किया गया है; जिनके संबंध में हमें कुछ कहना है: पहला यह कि उज्जयिनी का पर-दुख-भंजक विक्रमादित्य गुप्त वंशीय स्कंदगुप्त था और दूसरा यह कि मातृगुप्त ही दूसरा कालिदास था, जिसने 'रघुवंश' आदि काव्य बनाए।" - भूमिका से
प्रथम अंक :-
* "अधिकार सुख कितना मादक और सारहीन है। अपने को नियामक और कर्त्ता समझने की बलवती स्पृहा उससे बेगार कराती है।"
- स्कंदगुप्त
* "राष्ट्रनीति, दार्शनिकता और कल्पना का लोक नहीं है। इस कठोर प्रत्यक्षवाद की समस्या बड़ी कठिन होती है।"
- पर्णदत्त, स्कंदगुप्त से
* "युद्ध तो करना ही पड़ता है। अपनी सत्ता बनाये रखने के लिये यह आवश्यक है।"
- कुमारगुप्त, धातुसेन से
* "नहीं धर्मावतार! समझ में तो इतनी बात आ गई कि लड़कर ले लेना ही एक प्रधान स्वत्व है। संसार में इसी का बोलबाला है।"
- धातुसेन
* "नहीं तो क्या रोने से, भीख माँगने से कुछ अधिकार मिलता है? जिसके हाथों में बल नहीं, उसका अधिकार ही कैसा? और यदि माँगकर मिल जाय, तो शांति की रक्षा कौन करेगा?"
- भटार्क
* "कविता करना अनंत पुण्य का फल है।"
- मातृगुप्त
* "कवित्व वर्णमय चित्र है, जो स्वर्गीय भावपूर्ण संगीत गाया करता है! अंधकार का आलोक से, असत् का सत् से, जड़ का चेतन से, और बाह्य जगत् का अंतर्जगत् से संबंध कौन कराती है? कविता ही न!"
- मातृगुप्त, मुद्गल से
* "तुम अपनी निष्ठुर क्रीड़ा के विभ्रम से, बहकाने से। सुखी हुए, फिर लगे देखने मुझे पथिक पहचाने-से। उस सुख का आलिंगन करने कभी भूलकर आ जाना। मिलन क्षितिज-तट मधु-जलनिधि में मृदु हिलकोर उठा जाना।"
- मातृगुप्त, अपनी जन्मभूमि कश्मीर के वियोग में
* "इस गतिशील जगत् में परिवर्तन पर आश्चर्य? परिवर्तन रुका कि महापरिवर्तन-प्रलय-हुआ ! परिवर्तन ही सृष्टि है, जीवन है। स्थिर होना मृत्यु है, निश्चेष्ट-शांति मरण है। प्रकृति क्रियाशील है, समय पुरुष और स्त्री की गेंद लेकर दोनों हाथ से खेलता है। पुल्लिंग और स्त्रीलिंग की समष्टि अभिव्यक्ति की कुंजी है। पुरुष उछाल दिया जाता है, उत्क्षेपण होता है। स्त्री आकर्षित करती है। यही जड़ प्रकृति का चेतन रहस्य है।"
- धातुसेन, मातृगुप्त से
* "पुरुष है कुतूहल और प्रश्न; और स्त्री है विश्लेषण, उत्तर और सब बातों का समाधान।"
- धातुसेन, मातृगुप्त से
* “युद्ध क्या गान नहीं है? रुद्र का श्रृंगीनाद, भैरवी का तांडवनृत्य और शस्त्रों का वाद्य मिलकर एक भैरव-संगीत की सृष्टि होती है। जीवन के अंतिम दृश्य को जानते हुए, अपनी आँखों से देखना; जीवन-रहस्य के चरम सौंदर्य की नग्न और भयानक वास्तविकता का अनुभव केवल सच्चे वीर-हृदय को होता है। ध्वंसमयी महामाया-प्रकृति का वह निरंतर संगीत है। उसे सुनने के लिये हृदय में साहस और बल एकत्र करो। अत्याचार के श्मशान में ही मंगल का, शिव का, सत्य सुंदर संगीत का समारंभ होता है।"
- जयमाला, विजया से
द्वितीय अंक :-
* "पवित्रता की माप है मलिनता, सुख का आलोचक है दुख, पुण्य की कसौटी है पाप।"
* "जहाँ हमारी सुंदर कल्पना आदर्श का नीड़ बनाकर विश्राम करती है, वही स्वर्ग है।"
- देवसेना, विजया से
* "संसार में जो सबसे महान है, वह क्या है? त्याग। त्याग का ही दूसरा नाम महत्त्व है।"
- स्कंदगुप्त, चक्रपालित से
• "संपूर्ण संसार कर्मण्य वीरों की चित्रशाला है। वीरत्व एक स्वावलम्बी गुण है। प्राणियों का विकास सम्भवतः इसी विचार के उर्जित होने से हुआ है।"
- चक्रपालित, स्कंदगुप्त से
* "ऐसा जीवन तो विडम्बना है, जिसके लिये दिन-रात लड़ना पड़े!"
- स्कंदगुप्त, चक्रपालित से
* "नये ढंग के आभूषण, सुंदर वसन, भरा हुआ यौवन-यह सब तो चाहिये ही, परंतु एक वस्तु और चाहिये सुपुरुष को वशीभूत करने के पहले- चाहिये एक धोखे की टट्टी।"
- देवसेना
* "प्रत्येक परमाणु के मिलन में एक समय है।"
- देवसेना
* "सर्वात्मा के स्वर में, आत्म-समर्पण के प्रत्येक ताल में अपने विशिष्ट व्यक्तिवाद का विस्मृत हो जाना-एक मनोहर संगीत है!"
- देवसेना, जयमाला से
* "समष्टि में भी व्यष्टि रहती है। व्यक्तियों से ही जाति बनती है। विश्व प्रेम, सर्वभूत-हित-कामना परम धर्म है; परंतु इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि अपने पर प्रेम न हो। इस अपने ने क्या अन्याय किया है जो इसका बहिष्कार हो?"
- जयमाला, देवसेना से
* "बलिदान करने के योग्य वह नहीं, जिसने अपना आपा नहीं खोया।"
- बन्धुवर्मा, जयमाला से
* "वीरता उन्माद नहीं है, आँधी नहीं है, जो उचित अनुचित का विचार न करती हो। केवल शस्त्रबल पर टिकी हुई वीरता बिना पैर की होती है। उसकी दृढ़ भित्ति है- न्याय।"
- गोविन्दगुप्त, भटार्क से
* "क्षमा पर मनुष्य का अधिकार है, वह पशु के पास नहीं मिलती। उठो, मैं तुम्हें क्षमा करती हूँ।"
- देवकी (शर्वनाग से)
तृतीय अंक :-
* "संसार का मूक शिक्षक 'श्मशान' क्या डरने की वस्तु है? जीवन की नश्वरता के साथ ही सर्वात्मा के उत्थान का ऐसा सुंदर स्थल और कौन है?"
- देवसेना विजया से
* "सब जीवन बीता जाता है धूप-छाँह के खेल-सदृश-सब, समय भागता है प्रतिक्षण में, नव-अतीत के तुषार-कण में, हमें लगा कर भविष्य-रण में, आप कहाँ छिप जाता है-सब. बुल्ले, लहर, हवा के झोंके, मेघ और बिजली के टोंके, किसका साहस है कुछ रोके, जीवन का वह नाता है-सब।"
- नेपथ्य से गान
* "यवनों से उधार ली हुई सभ्यता नाम की विलासिता के पीछे आर्य्यजाति उसी तरह पड़ी है, जैसे कुलवधू को छोड़कर कोई नागरिक वेश्या के चरणों में।"
- सैनिक
* "उतरोगे अब कब भूभार मानवता में राक्षसत्व का अब है पूर्ण प्रचार।"
- मातृगुप्त व मुदगल (ईश्वर से प्रार्थना)
चतुर्थ अंक :-
* "प्रणय-वंचिता स्त्रियाँ अपनी राह के रोड़े विघ्नों को दूर करने के लिये वज से भी इढ़ होती हैं। हृदय को छीन लेने वाली स्त्री के प्रति हत्सर्वस्वा रमणी पहाड़ी नदियों से भयानक, ज्वालामुखी के विस्फोट से वीभत्स और प्रलय की अनल-शिखा से भी लहरदार होती है। क्षमा और उदारता वहीं सच्ची है जहाँ स्वार्थ की भी बलि हो।"
- विजया, अनंतदेवी से
* "भारत समग्र विश्व का है, और सम्पूर्ण वसुंधरा इसके प्रेमपाश में आबद्ध है। अनादिकाल से ज्ञान की, मानवता की ज्योति यह विकीर्ण कर रहा है।"
- धातुसेन, प्रख्यातकीर्ति से
* "राष्ट्र और समाज मनुष्य के द्वारा बनते हैं उन्हीं के सुख के लिये। जिस राष्ट्र और समाज से हमारी सुख-शांति में बाधा पड़ती हो. उसका हमें तिरस्कार करना ही होगा। इन संस्थाओं का उद्देश्य है
- मानवों की सेवा
यदि वे हमीं से अवैध सेवा लेना चाहें और हमारे कष्टों को न हटावें, तो हमें उनकी सीमा से बाहर जाना ही पड़ेगा!"
- श्रमण ब्राह्मण से
* "धर्म के अंध भक्तों मनुष्य अपूर्ण है। इसलिये सत्य का विकास जो उनके द्वारा होता है, अपूर्ण होता है। यही विकास का रहस्य है। यदि ऐसा न हो तो ज्ञान की वृद्धि असम्भव हो जाय। सभी धर्म, समय और देश की स्थिति के अनुसार, निवृत्त होते रहें हैं और होंगे। हम लोगों को हठधर्मिता में उन आगंतुक क्रमिक पूर्णता प्राप्त करने वाले ज्ञानों से मुँह न फेरना चाहिए।"
- प्रख्यातकीर्ति
* "भविष्यत् का अनुचर तुच्छ मनुष्य केवल अतीत का स्वामी है।"
* "बौद्धों का निर्वाण, योगियों की समाधि और पागलों की-सी सम्पूर्ण विस्मृति मुझे एक साथ चाहिए।"
- स्कंदगुप्त
* "जो अपने कर्मों को ईश्वर का कर्म समझकर करता है, वही ईश्वर का अवतार है।"
- कमला स्कंद से
पंचम अंक :-
* "आवश्यकता ही संसार के व्यवहारों की दलाल है।"
- विजया
* "अपने कुकर्मों का फल चखने में कड़ावा; परंतु परिणाम में मधुर होता है।"
- भटार्क
* "अन्न पर स्वत्व है भूखों का और धन पर स्वत्व है देशवासियों का। प्रकृति ने उन्हें हमारे लिये हमें भूखों के लिये रख छोड़ा है। वह थाती है।"
- पर्णदत्त, देवसेना से
* "कोई दुख भोगने के लिये है, कोई सुख। फिर सबका बोझा अपने सिर पर लादकर क्यों व्यस्त होते हो?"
- विजया
* "परंतु इस संसार का कोई उद्देश्य है। इसी पृथ्वी को स्वर्ग होना है, इसी पर देवताओं का निवास होगा; विश्व नियंता का ऐसा ही उद्देश्य मुझे विदित होता है। फिर उसकी इच्छा क्यों न पूर्ण करूँ; विजया। मैं कुछ नहीं हूँ, उसका अस्त्र हूँ- परमात्मा का अमोघ अस्त्र हूँ। मुझे उसके संकेत पर केवल अत्याचारियों के प्रति प्रेरित होना है। किसी से मेरी शत्रुता नहीं, क्योंकि मेरी निज की कोई इच्छा नहीं। देशव्यापी हलचल के भीतर कोई शक्ति कार्य कर रही है, पवित्र नियम अपनी रक्षा करने के लिये स्वयं सन्नद्ध है।"
- स्कंदगुप्त
* "निर्लज्ज हारकर भी नहीं हारता, मरकर भी नहीं मरता।"
- भटार्क
* "देश की दुर्दशा निहारोगे? डूबते को कभी उबारोगे?"
- देवसेना
* "वीरो! हिमालय के आँगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार। उषा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक हार।"
- मातृगुप्त
* "सुना है वह दधीचि का त्याग हमारा जातीयता विकास। पुरंदर ने पवि से है लिखा अस्थि-युग का मेरा इतिहास। सिंधु-सा विस्तृत और अथाह एक निर्वासित का उत्साह। दे रही अभी दिखाई भग्न मग्न रत्नाकर में वह राह।"
- मातृगुप्त
* "किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं। हमारी जन्म-भूमि थी यहीं, कहीं से हम आये थे नहीं।"
- मातृगुप्त
* "जियें तो सदा उसी के लिये, यही अभिमान रहे, यह निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष।" हर्ष।
- मातृगुप्त
* "आह! वेदना मिली विदाई मैंने भ्रमवश जीवन संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई"
- देवसेना
* "कष्ट हृदय की कसौटी है, तपस्या अग्नि है, सम्राट्!"
- देवसेना
नोट :- इस पोस्ट को अपने साथियों के साथ अवश्य साझा करें। आप अपने सुझाव नीचे कमेंट बॉक्स में दर्ज कर सकते है। जिससे हम हिंदी साहित्य के आगामी ब्लॉग को और बेहतर बनाने की कोशिश कर सकें।
Post a Comment