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ध्रुवस्वामिनी नाटक - जयशंकर प्रसाद || हिन्दी नाटक

          ध्रुवस्वामिनी नाटक - जयशंकर प्रसाद 

इसका प्रकाशन वर्ष 1933 ई. है। 

यह नाटक 3 अंकों में विभक्त है। इसमें स्त्री-पुनर्विवाह का चित्रण किया गया है। साथ ही स्त्री-पात्रों के सशक्तीकरण का चित्रण मिलता है।



प्रिय पाठकों,........इस पोस्ट में हिंदी नाटक के महत्वपूर्ण बिंदुओं को क्रमवार से समाहित किया है। यदि आपको हमारे द्वारा किया गया यह प्रयास अच्छा लगा है, तो इस पोस्ट को अपने साथियों के साथ अवश्य साझा करें। आप अपने सुझाव नीचे कमेंट बॉक्स में दर्ज कर सकते है। जिससे हम हिंदी साहित्य के आगामी ब्लॉग को और बेहतर बनाने की कोशिश कर सकें।

                                    विषयवस्तु

* यह समस्यामूलक ऐतिहासिक नाटक है। जिसका कथानक गुप्त काल से है। ध्रुवस्वामिनी में प्रसाद ने भारतीय समाज में नारी जीवन के कटु यथार्थ पर गहन विचार किया है। नाटक की भूमिका में प्रसाद जी लिखते हैं-

* "यह ठीक है कि हमारे आचार-विचार और धर्मशास्त्र की व्यवहारिकता की परपंरा विच्छिन्न-सी है। आगे जितने सुधार या समाजशास्त्र के परीक्षात्मक प्रयोग देखे या सुने जाते हैं, उन्हें चिंतित और नवीन समझकर हम बहुत शीघ्र अभारतीय कह देते हैं। किंतु मेरा ऐसा विश्वास है कि तात्कालिक कल्याणकारी परिवर्तन भी हुए हैं। इसलिये डेढ़ हजार वर्ष पहले यह होना अस्वाभाविक नहीं था। क्या होना चाहिये और कैसा होगा यह तो व्यवस्थापक विचार करे, किंतु इतिहास के आधार पर जो कुछ हो चुका या जिस घटना के घटित होने की संभावना है, उसी को लेकर इस नाटक की कथावस्तु का विकास किया गया है।"

* इस नाटक के माध्यम से हम इसकी सम्पूर्ण जानकारी के बारे मे चर्चा करेंगे और हम इसके पात्र , कथासार का सार , और इसके प्रमुख उद्धरण के बारे मे विस्तार से  चर्चा करेंगे ?

                                     * पात्र *

                                     मुख्य पात्र

* ध्रुवस्वामिनी :- 

- रामगुप्त की पत्नी और चंद्रगुप्त की पूर्व प्रेमिका। 

- यह दृढ़ एवं साहसी स्त्री पात्र है। 

- परिस्थितिवश वह ज़रूर कमज़ोर पड़ती है पर हौसला नहीं हारती । 

- पुरुष-प्रवृत्ति एवं धर्म के नियामकों से तीखे प्रश्न करती है। -

- चंद्रगुप्त को उसके अधिकारों के प्रति उद्वेलित करती है।

* मंदाकिनी : -

नाटक की सजीव पात्र जो अपने तीखे प्रश्नों से स्त्री की व्यथा को सामने रखती है।

-  वह भी धर्म के नियामक पुरोहित से बिना किसी डर-भय के सीधे प्रश्न पूछती है।

-  वह रामगुप्त द्वारा ध्रुवस्वामिनी को भेजे जाने के निर्णय को खूब कोसती है।

* कोमा : -

- शकराज की प्रेमिका जो उसे छोड़ देती है।

-  कोमा स्वाभिमानी है। 

- शकराज से कहती है - "राजनीति का प्रतिशोध क्या एक नारी को कुचले बिना नहीं हो सकता।" अंत में वह शकराज का शव लेने आती है।

* चंद्रगुप्त : -

- गुप्त सम्राज्य का साहसी एवं साम्राज्य के लिये मर-मिटने वाला चरित्र। 

- रामगुप्त का भाई, परंतु उसके चरित्र के बिल्कुल विपरीत।

-  शकराज से अकेले युद्ध के लिये तैयार है किंतु गुप्त साम्राज्य की ध्रुवस्वामिनी को भेजने के लिये हरगिज़ तैयार नहीं।

* रामगुप्तः -

गुप्त सम्राज्य का शासक जो पिता द्वारा आयोग्य घोषित किये जाने के बावजूद छल-कपट से राजा बना। 

- विलासी प्रवृत्ति के साथ-साथ घोर कायर पात्र जो युद्ध से बचने हेतु अपनी पत्नी को शत्रु को सौंपता है।

* शिखर-स्वामी : -

- रामगुप्त का सहयोगी एवं गुप्त सम्राज्य का अमात्य राष्ट्र रक्षा का उपाय सबसे ऊपर बताते हुए रामगुप्त के फैसले का समर्थन या यूँ कहें रामगुप्त के निर्णय को धर्म/नीति की आड़ में सही बताने वाला यह अवसरवादी, कुटिल, धूर्त एवं अयोग्य अमात्य है।

* पुरोहित :-

- एक दृढ़ एवं सत्यनिष्ठ चरित्र जिसे धर्म की सच्ची व्याख्या करने में कोई भय नहीं।

* शकराज : -

- स्वार्थी एवं विलासी प्रवृत्ति का शासक। 

- ध्रुवस्वामिनी की चाह रखता है। 

- स्त्री को महज वस्तु समझता है।

-  भाग्यवादी है एवं मंगल अमंगल पर विश्वास रखता है। 

* खिंगल :-

- रामगुप्त के यहाँ शकराज का संधि प्रस्ताव लेकर जाने वाला।

* मिहिरदेव : -

- कोमा के पिता एवं शक सम्राज्य के आचार्य। 

- ये धार्मिक एवं नैतिक हैं।

                                    गौण पात्र

* कुबड़ा, बौना, हिजड़ा, प्रतिहारी, सामंत कुमार, खड्गधारिणी, शक-सामंत, दासी, नर्त्तकियाँ

                                      विशेष

* रंगमंच की दृष्टि से प्रसाद की सबसे सफल नाट्यकृति है।

* गुप्त काल का ऐतिहासिक विवरण प्राप्त होता है।

* प्रसाद जी ने इस नाटक में संस्कृतनिष्ठ एवं व्यावहारिक भाषा का प्रयोग किया है।

* इस नाटक में मनोवैज्ञानिकता का भी प्रभाव है।

* इसमें नाटकीय तत्त्वों का सर्वांगीण विकास हुआ है।

                                    कथासार

                     * यह नाटक तीन अंकों में विभाजित है।

* पहला अंक :- 

 - नाटक का प्रारंभ ध्रुवस्वामिनी और खड्गधारिणी के वार्तालाप से हुआ है। नाटक के इसी अंश में प्राप्त होता है कि गुप्त सम्राट रामगुप्त की पत्नी पहले उसके भाई चंद्रगुप्त की प्रेमिका रह चुकी है। समुद्रगुप्त ने अपने बड़े पुत्र को अयोग्य जानकर उत्तराधिकार चंद्रगुप्त को घोषित किया, परंतु रामगुप्त ने छल और कपट को न्याय का नाम देकर सत्ता संभाल ली। रामगुप्त कुटिल एवं विलासी प्रवृत्ति का शासक है। वह डरपोक है। शक सम्राट की संधि जिसमें उससे ध्रुवस्वामिनी मांगी गई थी, उसने देने का निर्णय कर लिया। विवाह को अस्वीकार करते हुए वह कहता है- 'आचार्य के द्वारा पढ़े गए मंत्रों का बोझ वह क्यों उठाए?'

* ध्रुवस्वामिनी बार-बार उससे अपने सम्मान की भीख माँगती है पर वह युद्ध के डर से उसे शकराज को सौंप देता है।

* चंद्रगुप्त इस निर्णय से असहमत होते हुए स्वयं शकराज के यहाँ जाने का निर्णय करता है परंतु ध्रुवस्वामिनी उसे अकेले नहीं जाने देना चाहती, वह स्वयं भी सांथ जाती है।

* दूसरा अंक :-

- इस अंक का आरंभ कोमा के साथ हुआ है, वह भी एक व्यथित नारी है, क्योंकि उसका प्रेमी शकराज भी विलासी प्रवृत्ति का शासक है। ध्रुवस्वामिनी को प्राप्त करने की इच्छा रखने वाला शकराज स्त्री को भोग्या और वस्तु के अतिरिक्त कुछ नहीं समझता। अपने आवेश में शकराज आचार्य मिहिरदेव का अपमान करता है।

* यह पूरा प्रकरण शकराज के चरित्र के स्वार्थी और विलासी स्वरूप का उदाहरण है। इसी अंक में वह चंद्रगुप्त के हाथों मारा जाता है।

* तीसरा अंक :-

 तीसरा अंक पूर्व के दोनों अंकों में उद्घाटित समस्याओं के विश्लेषण और समाधान के लिये रचा गया है। इस अंक में ध्रुवस्वामिनी और रामगुप्त का विवाह पुरोहित द्वारा खारिज किया जाता है क्योंकि रामगुप्त गौरव से नष्ट और आचरण से पतित था। रामगुप्त परिषद् की बैठक में चंद्रगुप्त को मारने के चक्कर में स्वयं एक सामंत द्वारा मार गिराया जाता है और चंद्रगुप्त की जय-जयकार के साथ नाटक समाप्त होता है।

                                      प्रमुख उद्धरण

पहला अंक :- 

* “राजनीति के सिद्धांत में राष्ट्र की रक्षा सब उपायों से करने का आदेश है।" - शिखर

* "मूर्खा ने स्वार्थ के लिये साम्राज्य के गौरव का सर्वनाश करने का निश्चय कर लिया है। सच है वीरता जब भागती है तो उसके पैरों से राजनीतिक छलछंद का धूल उड़ती है।" - मंदाकिनी

* "जीवन विश्व की संपत्ति है। प्रमाद से, क्षणिक आवेश से या दुःख की कठिनाइयों से उसे नष्ट करना ठीक तो नहीं।" - चंद्रगुप्त

* "अनार्य! निष्ठुर। मुझे कलंक कालिमा के कारागर में बंद कर, मर्म-वाक्य के धुए से दम घोंटकर मार डालने की आशा न करो। आज मेरी असहायता मुझे अमृत पिलाकर मेरा निर्लज्ज जीवन बढ़ाने के लिये तत्पर है।... जाओ, मैं एकांत चाहती हूँ। - ध्रुवस्वामिनी

* "कितना अनुभूतिपूर्ण था वह एक क्षण का आलिंगन। कितने संतोष से भरा था। नियति ने अज्ञात भाव से मानो लू से तपी हुई वसुधा को क्षितिज के निर्जन में सांयकालीन शीतल आकाश से मिला दिया हो।" - ध्रुवस्वामिनी

द्वितीय अंक :-

* "यौवन ! तेरी चंचल छाया" - कोमा

* "छल का बहिरंग सुंदर होता है।" - मिहिरदेव

* "प्रेम का नाम न लो। वह एक पीड़ा थी जो छूट गई।" - कोमा (शकराज से)

* "सौभाग्य और दुर्भाग्य मनुष्य की दुर्बलता को ही सबका नियामक समझता हूँ।" के नाम हैं।... मैं तो पुरुषार्थ - शकराज

* "राजनीति ही मनुष्यों के लिये सब कुछ नहीं है। राजनीति के पीछे नीति से भी हाथ न धो बैठो, जिसका विश्व मानव के साथ व्यापक संबंध है।" - मिहिरदेव

* "चंद्रे! मेरे भाग्य के आकाश में धूमकेतु-सी अपनी गति बंद करो।" - ध्रुवस्वामिनी

तृतीय अंक :- 

* "पुरोहित जी! मैं राजनीति नहीं जानती; किंतु इतना समझती हूँ कि जो रानी शत्रु के लिये उपहार में भेज दी जाती है, वह महादेवी की उच्च पदवी से पहले ही वंचित हो गई होगी।" - ध्रुवस्वामिनी

* "विधान की स्याही का एक बिंदु गिरकर भाग्य-लिपि पर कालिमा भी चढ़ा देता है। - चंद्रगुप्त

* "भगवान ने स्त्रियों को उत्पन्न करके ही अधिकारों से वंचित नहीं किया है बल्कि तुम लोगों की दस्युवृत्ति ने उन्हें लूटा है।" - मंदाकिनी

* "जिन स्त्रियों को धर्म बंधन में बाँधकर, उनकी सम्मति के बिना उनका सब अधिकार छीन लेते हैं, तब क्या धर्म के पास कोई प्रतिकार, कोई संरक्षण नहीं छोड़ते जिससे वे स्त्रियाँ अपनी आपत्ति में अवलंब माँग सकें?" - मंदाकिनी 

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