भारत-दुर्दशा - भारतेन्दु हरिश्चंद्र || हिन्दी नाटक
भारत-दुर्दशा - भारतेन्दु हरिश्चंद्र - 1880 ई.
रामस्वरूप चतुर्वेदी ने इसके समय को 1876 तथा डॉ नगेन्द्र द्वारा संपादित इतिहास में व रामचन्द्र तिवारी ने 1880 ई. माना है। भारत की तत्कालीन राजनीतिक व सामाजिक दुर्दशा का प्रतीकात्मक चित्रण।
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विषयवस्तु
* क्रांतिकारी नाटककार भारतेंदु ने तत्कालीन अंग्रेजी राज्य द्वारा किये गए अत्याचारों की अप्रत्यक्ष निंदा के लिये भारत-दुर्दशा नाटक की रचना की।
* इस नाटक में भारतेंदु ने प्राचीन परंपरा के गौरव तथा वर्तमान जीवन की विसंगतियों पर गंभीर रूप से प्रकाश डाला है।
* इस नाटक में भारतेंदु ने प्रतीकों के माध्यम से भारत की तत्कालीन दयनीय स्थिति का वर्णन किया है।
* भारतेंदु ने समाज की पतनोन्मुखता को नाटक के माध्यम से सामने रखा है।
* यह एक दुखांत नाटक है।
* भारतेंदु ने इस नाटक को 'लास्य रूपक' भी कहा है।
* इस नाटक की कथावस्तु 6 अंकों में विभक्त है।
इस नाटक के माध्यम से हम इसकी सम्पूर्ण जानकारी के बारे मे चर्चा करेंगे और हम इसके पृष्ठभूमि, विषयवस्तु, पात्र , कथासार का सार , और इसके प्रमुख उद्धरण के बारे मे विस्तार से चर्चा करेंगे ?
* प्रमुख पात्र *
मुख्य पात्र
* भारतः - नाटक में भारत नायक के रूप में है। वह नाटक के दूसरे अंक में आता है। नाटक में भारत अपनी अत्यंत दीन-हीन दशा पर रोता है। और अंत में भारत-दुर्देव के भय से मूच्छित हो जाता है। उसकी यही मूर्च्छा मृत्यु में बदल जाती है।
* भारत-दुर्देवः - यह नाटक में खलनायक के रूप में आता है। यह एक शक्तिशाली चरित्र है। यह नाटक के तीसरे अंक में आता है।
* भारत-भाग्य :- भारत-भाग्य भारत का एक सहयोगी चरित्र है। वह भारत के अतीत का गौरव गान करता है तथा उसे बार-बार जगाने की चेष्टा करता है, पर वह सफल नहीं हो पाता है। अंत में वह आत्मघात कर लेता है।
गौण पात्र
* निर्लज्जता
* डिसलॉयल्टी
* सत्यानाश फौजदार
* रोग, महर्ध, कर, मद्य, आलस, अंधकार
* अपव्यय, अदालत, फैशन और सिफारिश
* फूट, डाह, लोभ, भय, उपेक्षा, स्वार्थपरता, पक्षपात, हठ, शोक आश्रयभाजन, निर्बलता
* बंगाली, महाराष्ट्रीय, एडिटर, देशी महानुभाव
विशेष
* यह वस्तुतः एक 'नाट्य रासक' है।
* भारत दुर्दशा का गद्य तो खड़ी बोली में है, लेकिन पद्य ब्रजभाषा में।
* भारत दुर्दशा हिंदी का संभवतः पहला ऐसा नाटक है जो राजनीतिक विषयवस्तु पर आधारित है।
* नवजागरण के दौर में भारतेंदु की इस नाट्य कृति ने एक मशाल की भूमिका निभाई।
* भारतेंदु नाटक में भारत का धन विदेश जाने पर लिखते हैं-
"अंग्रेज राज सुख साज सजै सब भारी।
पै धन विदेश चलि जात इहै अति ख्वारी।।"
* कथासार *
* पहला अंक (बीथी): -
एक योगी आकर लावनीगीत गाता है। इसी गीत में वह भारत के प्राचीनतम गौरव एवं वर्तमान दुरवस्था पर प्रकाश डालता है।
* दूसरा अंक (श्मसान, टूटे-फूटे मंदिर): -
इस अंक में भारत स्वयं आकर क्रंदन करता है कि जिस देश के लोग अपनी मातृभूमि को 'सूच्यग्रं न दास्यामि बिना युद्धेन केशवः' द्वारा सुरक्षा प्रदान करते थे वहीं के लोग आज क्या कर रहे हैं। अंग्रेजों का राज्य होने पर सोचा था कि हम अपने दुःखी मन को पुस्तकों से बहलावेंगे और सुख मानकर जन्म बितावेंगे पर वहाँ भी निराशा ही है। अंत में वह ईश्वर का स्मरण करता है पर वह भी नहीं करने पाता। तब भय से मूच्छित हो जाता है और निर्लज्जता एवं आशा आकर उसे ले जाती है।
* तीसरा अंक (मैदान): -
तीसरे अंक में भारत दुर्देव आता है और भारत-दुर्दशा का पूरा विवरण प्रस्तुत करता है। अकाल, मँहगाई, रोग, अनावृष्टि, फूट, बैर के साथ-साथ प्लेग, टिकस, कालाधन आदि का भी उल्लेख करता है।
* अंग्रेज़ी शासन में भी हिंदुओं में सुधार नहीं हुआ और वे अंग्रेज़ों से अवगुण ही ग्रहण करते रहे। आज भी प्रायः पंचानवे प्रतिशत हिंदू निरक्षर हैं, साक्षरों में कुछ ही सुशिक्षित हैं। इस अंक में ही भारत दुर्देव के फौजदार सत्यानाश जी आते हैं और भारत के निजी दोषों का भारत दुर्देव के सैनिकों के रूप में विवरण प्रस्तुत करते हैं। धर्म की आड़ में भारत की जो दुर्दशा हुई है वह उल्लेखनीय है यथा मत-मतांतर का आधिक्य, वर्ण व्यवस्था की खींचातानी, बाल विवाह, विधवा-विवाह-निषेध, वृद्ध विवाह, बहुविवाह, समुद्र यात्रा निषेध आदि से देश अवनति की ओर जा रहा है। लोग वेदांत का अध्ययन करके तो महाज्ञानी बन जाते हैं, परंतु स्वदेश की चिंता ही छोड़ देते हैं।
* चौथा अंक (कमरा अंग्रेजी सजा हुआ, मेज, कुर्सी लगी हुई):-
इस अंक में भारत-दुर्देव रोग आलस्य, मदिरा और अंधकार को क्रमशः भारत भेजता है। रोग यहाँ के लोगों पर अट्टहास करते हुए कहता है कि यहाँ के लोग रोग की दवा न करवाकर झाड़-फूंक में ही प्राण खो देते हैं। उसी प्रकार यहाँ अफीमची, मदकची और आलसी लोगों की कमी नहीं है। अज्ञान रूपी अंधकार ने भारत को चारों तरफ से घेर लिया है। अविद्या-प्रेमी भारत शिक्षा और पठन-पाठन को मात्र आजीविका का साधन मानता है।
* पाँचवाँ अंक (किताबखाना): -
इस अंक में भारत की दुर्दशा को सुधारने के लिये एक कमेटी का दृश्य है। जिसमें सभापति तथा उसके 6 सहयोगी सदस्य हैं- एक बंगाली, एक महाराष्ट्रीय, एक कवि, एक पत्रसंपादक तथा दो देशी महानुभाव हैं। बंगाली सदस्य 'हञ्जते बंगालः' वाली प्रसिद्ध कहावत को चरितार्थ करते हैं। कवि नायिका बनकर अंग्रेजों से स्वयं की रक्षा करना चाहते हैं जो अनौचित्यपूर्ण है। संपादक आर्टिकलबाजी की प्रशंसा में लगे हैं। महाराष्ट्रीय सज्जन स्वेदशी वस्त्र पहनना और सार्वजानिक संस्थाएँ स्थापित करना चाहते हैं। देशी सभ्यजन कुछ कह नहीं पाते, बस चापलूसी को ही ध्येय मानते हैं और अंत में डिसलॉयल्टी पुलिस आकर सभी को पकड़ लेती है।
* छठा अंक (गंभीर, वन का मध्यभाग):-
इस अंक में भारत-भाग्य आता है जो प्राचीन गौरव तथा वर्तमान दुर्दशा का संक्षेप में परंतु ओजपूर्ण भाषा में चित्रण करता है। वर्तमान भारत की दुर्दशा पर उसे ग्लानि होती है। वह परतंत्रता, ईर्ष्या द्वेष आदि संसार के संपूर्ण कलंकों से लाछित होते हुए भी मिटा नहीं; ऐसे शक्तिहीन देश का मिट जाना ही श्रेयस्कर है-
"धोवहु भारत अपजस पंका।
मेटहु भारत भूमि कलंका।।"
* नाटक के अंत में भारत-भाग्य आत्मघात कर लेता है तथा नाटक का अंत दुःखमय (दुखांत) हो जाता है
प्रमुख उद्धरण
पहला अंक :-
* 'रोअहु सब मिलिकै आवहु भारत भाई'
'लरि बैदिक जैन डुबाई पुस्तिक सारी'
'अँग्रेजराज सुख साज सजै सब भारी' - योगी
चौथा अंक :-
* "दुनिया में हाथ पैर हिलाना नहीं अच्छा।
मर जाना पै उठके जाना नहीं अच्छा।।" - आलस्य
पाँचवाँ अंक :-
* 'कविवचन सुधा' पत्रिका का ज़िक्र - 'डिसलॉयल्टी' के द्वारा
छठा अंक:-
* जागो जागो रे भाई - भारत-भाग्य
* भारत को भारत-भाग्य बहुतेरे प्रयास कर जब जगाने में असफल हो जाता है तो भारत-भाग्य आत्महत्या कर लेता है।
नोट - इस पोस्ट को अपने साथियों के साथ अवश्य साझा करें। आप अपने सुझाव नीचे कमेंट बॉक्स में दर्ज कर सकते है। जिससे हम हिंदी साहित्य के आगामी ब्लॉग को और बेहतर बनाने की कोशिश कर सकें।
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