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पिता - ज्ञानरंजन || हिन्दी कहानिया

                     पिता - ज्ञानरंजन

प्रिय पाठकों,........इस पोस्ट में हम हिंदी कहानियों के महत्वपूर्ण बिंदुओं को क्रमवार समाहित किया गया है। यदि आपको हमारे द्वारा किया गया यह प्रयास अच्छा लगा है, तो इस पोस्ट को अपने साथियों के साथ अवश्य साझा करें। आप अपने सुझाव नीचे कमेंट बॉक्स में दर्ज कर सकते है। जिससे हम हिंदी साहित्य के आगामी ब्लॉग को और बेहतर बनाने की कोशिश कर सकें।


* संग्रहः-      फैंस के इधर-उधर (1968 ई.)

* दिवास्वपनी

* कलह

* खलनायिका और बारूद की फूल

* आत्महत्या

* सीमाएँ

* फेंस के इधर-उधर

* शेष होते हुए

* पिता

* एक नमूना सार्थक दिन

* दिलचस्पी

* छलावा

* संबंध

* इस कहानी  के माध्यम से हम इसकी सम्पूर्ण जानकारी के बारे मे चर्चा करेंगे और हम इसके पात्र , कथासार का सार , और इसके प्रमुख उद्धरण के बारे मे विस्तार से  चर्चा करेंगे ?

                                     प्रतिपाद्य  

* नए-पुराने मूल्यों और संस्कारों की टकराहट का बड़ा ही सूक्ष्म अंकन और विश्लेषण ज्ञानरंजन की कहानियों में मिलता है। 'पिता' कहानी में लेखकीय दृष्टि स्थिति का पूरा-पूरा जायजा लेती है और दो पीढ़ियों के अंतर को सही रूप में पकड़ती है

* आधुनिक मध्यवर्गीय परिवारों में पीढ़ीगत संघर्ष एवं द्वंद्व का चित्रण।

* कुछ समीक्षक पिता-विरोधी कहानी मानते हैं।

* गर्मी का प्रतीकात्मक प्रयोग

                                   उल्लिखित स्थान

* धूमनगंज

* खुल्दाबाद

                                         पात्र 

                                      मुख्य पात्र 

* सुधीरः -

- पुत्र

- नई पीढ़ी का प्रतिनिधि

- घनश्यामनगर का निवासी

- इसी के मार्फत कथा कही गई है।

* पिताः-

- जिद्दी

- जीवन की सुविधाओं से चिढ़ने वाले।

- लंबे समय से रामायण-गीता का पाठ करने वाले।

- कलकत्ता के हाल एंडरसन के सिले कोट पहनते थे।

                                       गौण पात्र 

* देवाः-  सुधीर की पत्नी

* कप्तान भाईः - सुधीर का भाई

* वायुसेना में कार्यरत

* बहन का यूनिवर्सिटी का खर्चा वहन करता है।

* दादा भाई

                                    प्रमुख उद्धरण 

* "धीरे-धीरे सबके लिये सुविधाएँ जुटाते रहेंगे, लेकिन खुद उसमें नहीं या कम से कम शामिल होंगे। पहले लोग उनकी काफी चिरौरी किया करते थे, अब लोग हार गए हैं।"

* "लड़कों द्वारा बाज़ार से लाई बिरिफटें, महँगे फल पिता कुछ भी नहीं लेते। कभी लेते भी हैं तो बहुत नाक-भौं सिकोड़कर, उसके बेस्वाद होने की बात पर शुरू में ही जोर देते हुए। अपनी अमावट, गजक और दाल-रोटी के अलावा दूसरों द्वारा लाई चीजों की श्रेष्ठता से वह कभी प्रभावित नहीं होते। वह अपना हाथ-पाँव जानते हैं, अपना अर्जन, और उसी में उन्हें संतोष है। वे पुत्र, जो पिता के लिये कुल्लू का सेब मँगाने और दिल्ली एंपोरियम से बढ़िया धोतियाँ मँगाकर उन्हें पहनाने का उत्साह रखते थे, अब तेजी से पिता-विरोधी होते जा रहे हैं। सुखी बच्चे भी अब गाहे-बगाहे मुँह खोलते हैं और क्रोध उगल देते हैं।"

* "हमारे समाज में बड़े-बूढ़े लोग जैसे बहू-बेटियों के निजी जीवन को स्वच्छंद रहने देने के लिये अपना अधिकांश समय बाहर व्यतीत किया करते हैं।"

* "अगर कोई शीत युद्ध न होता पिता और पुत्रों के बीच, तो वह उन्हें जबरन खींच के नीचे लाकर सुला देता। लेकिन उसे लगा कि उसका युवापन एक प्रतिष्ठा की जिद कहीं चुराए बैठा है। वह इस प्रतिष्ठा के आगे कभी बहुत मजबूर, कभी कमजोर हो जाता है और उसे भुगत भी रहा है। दरअसल उसका जी अक्सर चिल्ला उठने को हुआ है। पिता, तुम हमारा निषेध करते हो। तुम ढोंगी हो, अहंकारी-वज्र अहंकारी! लेकिन वह कभी चिल्लाया नहीं।"

* "बस कहीं उल्लू एकगति, एकवजन और वीभत्सता में बोल रहा है। रात्रि में शहर का आभास कुछ पलों के लिये मर-सा गया है। उसको उम्मीद हुई कि किसी भी समय दूर या पास से कोई आवाज़ अकस्मात उठ आएगी, घड़ी टनटना जाएगी या किसी दौड़ती हुई ट्रक का तेज लंबा हॉर्न बज उठेगा और शहर का मरा हुआ आभास पुनः जीवित हो जाएगा। पूरा शहर, कभी नहीं सोता या मरता। बहुत-से, सोते हुए जान पड़ने वाले भी संक्षिप्त ध्वनियों के साथ या लगभग ध्वनिहीनता के बीच जगे होते हैं। रात काफी बीत चुकी है और इस समय यह सब (सोचना) सिवाय सोने के कितना निरर्थक है।"

* "इस विचार से कि पिता सो गए होंगे, उसे परम शांति मिली और लगा कि अब वह भी सो सकेगा।"

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