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गैंग्रीन/रोज़ - अज्ञेय || हिन्दी कहानिया

                  गैंग्रीन/रोज़ (कहानी) - अज्ञेय

* 'बिंदु को, डलहौजी जेल, मई 1931'- में लिखा।

प्रिय पाठकों,........इस पोस्ट में हम हिंदी कहानियों के महत्वपूर्ण बिंदुओं को क्रमवार समाहित किया गया है। यदि आपको हमारे द्वारा किया गया यह प्रयास अच्छा लगा है, तो इस पोस्ट को अपने साथियों के साथ अवश्य साझा करें। आप अपने सुझाव नीचे कमेंट बॉक्स में दर्ज कर सकते है। जिससे हम हिंदी साहित्य के आगामी ब्लॉग को और बेहतर बनाने की कोशिश कर सकें।

* संग्रह :  विपथगा (1937 ई.)

* विपथगा

* दुःख और तितलियाँ

* पगोडा वृक्ष

* मिलन

* हरसिंगार

* एकाकी तारा

* हारिति

* अमर वल्लरी

* रोज़

* कड़ियाँ

* अकलंक

* शत्रु

नोट: - * पहले संस्करण (1937 ई.) में 'रोज़' नाम से फिर पाँचवें संस्करण (1990 ई.) में 'ग्रैंगीन' नाम से प्रकाशित।

* इस कहानी  के माध्यम से हम इसकी सम्पूर्ण जानकारी के बारे मे चर्चा करेंगे और हम इसके पात्र , कथासार का सार , और इसके प्रमुख उद्धरण के बारे मे विस्तार से  चर्चा करेंगे ?

                                       प्रतिपाद्य 

* यह अज्ञेय की सबसे प्रसिद्ध कहानी है जिसमें उन्होंने दिखाया है कि किसी भी प्रकार के नयेपन से रहित जीवन में व्यक्ति और व्यक्तियों के संबंध किस प्रकार टूटते हैं। इस कहानी का केंद्रीय वाक्य- 'ऐसा तो रोज होता है' बार-बार इस विडम्बना को उजागर करता है। इस कहानी को 'नयी कहानी' की पूर्व-पीठिका भी कहते हैं।

* पहाड़ी गाँव का परिवेश है।

* 'मैं' शैली में लिखी संवादात्मक कहानी है।

* मध्यवर्गीय मानसिकता को चित्रित करती है।

* यह एक चरित्र प्रधान कहानी है।

* कहानी में नारी जीवन की विवशता का चित्रण किया गया है।

* नारी जीवन में विवाह के उपरांत आने वाले दायित्व से उत्पन्न नीरसता, यांत्रिकता, घुटन का सजीव चित्रण है।

* संयुक्त परिवार के टूटने और एकल परिवार में व्याप्त एकाकीपन को यह कहानी दर्शाती है।

* जीवन की एकरसता और व्यर्थता बोध का चित्रण इस कहानी में किया गया है। 

* लेखक मालती से 4 वर्ष बाद मिलता है। (विवाह के दो वर्ष बाद)

* लेखक को लगता है कि मालती के घर में किसी शाप की छाया है जो उसे भी वश में कर लेगा।

* एकल परिवार में बच्चे की स्थिति का चित्रण 

                                          पात्र 

* मालतीः -  लेखक के दूर के रिश्ते की बहन या सखी

- मध्यवर्गीय स्त्री

- विवाह पूर्व स्वच्छंद, चचंल लड़की जो विवाह के उपरांत अत्यंत गंभीर स्त्री हो जाती है।

- महेश्वर की पत्नी

- टिटी की माँ

* लेखक:-

- अपने दूर के रिश्ते की बहन के पास चार वर्ष बाद मिलने जाता है।

- विवाह के उपरांत मालती में हुए परिवर्तनों से चिंतित रहता है।

* महेश्वर : - 

- मालती का पति

- पहाड़ी गाँव में सरकारी डिस्पेंसरी में डॉक्टर है।

- टिटी का पिता

-  एक निर्दिष्ट ढर्रे पर जीवन जीता है।

* टिटी:-  मालती और महेश्वर का पुत्र

                                         प्रमुख उद्धरण

* "मैंने देखा, उन आँखों में कुछ विचित्र-सा भाव था, मानो मालती के भीतर कहीं कुछ चेष्टा कर रहा हो, किसी बीती हुई बात को याद करने की, किसी बिखरे हुए वायुमंडल को पुनः जगाकर गतिमान करने की, किसी टूटे हुए व्यवहार-तन्तु को पुनरुज्जीवित करने की, और चेष्टा में सफल न हो रहा हो... वैसे जैसे देर से प्रयोग में न लाये हुए अंग को व्यक्ति एकाएक उठाने लगे और पाये कि वह उठता ही नहीं है, चिरविस्मृति में मानो मर गया है, उतने क्षीण बल से (यद्यपि वह सारा प्राप्य बल है) उठ नहीं सकता... मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो किसी जीवित प्राणी के गले में किसी मृत जन्तु का तौक डाल दिया गया हो, वह उसे उतारकर फेंकना चाहे, पर उतार न पाये.."

* “दोपहर में उस सूने आँगन में पैर रखते हुए मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो उस पर किसी शाप की छाया मँडरा रही हो, उसके वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्य, अस्पृश्य, किंतु फिर भी बोझिल और प्रकम्पमय और घना-सा फैल रहा था..."

* “मैं आज कोई चार वर्ष बाद उसे देखने आया हूँ। जब मैंने उसे इससे पूर्व देखा था, तब वह लड़की ही थी, अब वह विवाहिता है, एक बच्चे की माँ भी है।"

* “क्या विवाह के दो वर्ष में ही वह बीते दिन भूल गयी? या अब मुझे दूर- इस विशेष अंतर पर रखना चाहती है? क्योंकि वह निर्बाध स्वच्छन्दता अब तो नहीं हो सकती... पर फिर भी, ऐसा मौन, जैसा अजनबी से भी नहीं होना चाहिये..."

* "मैंने देखा, उन आँखों में कुछ विचित्र-सा भाव था, मानो मालती के भीतर कहीं कुछ चेष्टा कर रहा हो, किसी बीती हुई बात को याद करने की, किसी बिखरे हुए वायुमंडल को पुनः जगाकर गतिमान करने की, किसी टूटे हुए व्यवहार-तन्तु को पुनरुज्जीवित करने की, और चेष्टा में सफल न हो रहा हो... वैसे जैसे देर से प्रयोग में न लाये हुए अंग को व्यक्ति एकाएक उठाने लगे और पाये कि वह उठता ही नहीं है, चिरविस्मृति में मानो मर गया है, उतने क्षीण बल से (यद्यपि वह सारा प्राप्य बल है) उठ नहीं सकता... मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो किसी जीवित प्राणी के गले में किसी मृत जन्तु का तौक डाल दिया गया हो, वह उसे उतारकर फेंकना चाहे, पर उतार न पाये.."

* "उनका जीवन भी बिलकुल एक निर्दिष्ट ढर्रे पर चलता है, नित्य वही काम, उसी प्रकार के मरीज, वही हिदायतें, वही नुस्खे, वही दवाइयाँ। वह स्वयं उकताए हुए हैं और इसलिये और साथ ही इस भयंकर गरमी के कारण वह अपने फुरसत के समय में भी सुस्त ही रहते हैं..." 

- महेश्वर के संदर्भ में

* "महेश्वर बोले, कुछ हँसकर, 'वह पीछे खाया करती है', पति ढाई बजे खाना खाने आते हैं, इसलिये पत्नी तीन बजे तक भूखी बैठी रहेगी!"

* "रोज ही ऐसा होता है।"

- मालती

* "मुझे ऐसा लग रहा था कि इस घर पर जो छाया घिरी हुई है, वह अज्ञात रहकर भी मानो मुझे भी वश में कर रही है, मैं भी वैसा ही नीरस निर्जीव-सा हो रहा हूँ, वैसे हाँ, जैसे यह घर, जैसे मालती..."

* "वही तीन बजने वाली बात मैंने फिर देखी, अबकी बार उग्र रूप में। मैंने सुना, मालती एक बिलकुल अनैच्छिक, अनुभूतिहीन, नीरस, यंत्रवत्-वही थके हुए यंत्र के से स्वर में कह रही है, चार बज गए, मानो इस अनैच्छिक समय को गिनने में ही उसका मशीन-तुल्य जीवन बीतता हो, वैसे ही जैसे मोटर स्पीडो मीटर यंत्रवत् फासला नापता जाता है, और यंत्रवत् विश्रांत स्वर में कहता है (किससे!) कि मैंने अपनी अमित शून्यपथ का इतना अंश तय कर लिया..." 

*  "मालती मेरी ओर देखकर बोली "ऐसे ही होते हैं, डॉक्टर सरकारी अस्पातल है न, क्या परवाह है! मैं तो रोज़ ही ऐसी बातें सुनती हूँ! अब कोई मर-मुर जाए तो ख्याल ही नहीं होता। पहले तो रात-रात-भर नींद नहीं आया करती थी।"

* "वह उद्धत और चचंल मालती आज कितनी सीधी हो गयी है, कितनी शांत, और एक अखबार के टुकड़े को तरसती है... यह क्या, यह..." • "मैंने देखा, पवन में चीड़ के वृक्ष... गरमी से सूख कर मटमैले हुए चीड़ के वृक्ष... धीरे-धीरे गा रहे हों... कोई राग जो कोमल है, किंतु करुण नहीं, अशान्तिमय है, किंतु उद्वेगमय नहीं।"

* "मैं तो रोज़ ही ऐसी बातें सुनती हूँ। अब कोई मर-मुर जाए तो ख्याल ही नहीं आता। पहले तो रात-रात भर नींद नहीं आया करती थी।"

- मालती, कथावाचक से

* "इसके चोटें लगती ही रहती हैं, रोज ही गिर पड़ता है।" - मालती

* "माँ, युवती माँ, यह तुम्हारे हृदय को क्या हो गया है, जो तुम अपने एकमात्र बच्चे के गिरने पर ऐसी बात कह सकती हो और यह अभी, जब तुम्हारा सारा जीवन तुम्हारे आगे है।"

- लेखक

* "सचमुच उस कुटुम्ब में कोई गहरी भयंकर छाया घर कर गई है, उनके जीवन के इस पहले ही यौवन में घुन की तरह लग गई है, उसका इतना अभिन्न अंग हो गई है कि वे उसे पहचानते ही नहीं, उसी की परिधि में घिरे हुए चले जा रहे हैं। इतना ही नहीं, मैंने उस छाया को देख भी लिया..."

* "तभी ग्यारह का घंटा बजा, मैंने अपनी भारी हो रही पलकें उठा कर अकस्मात् किसी अस्पष्ट प्रतीक्षा से मालती की ओर देखा। ग्यारह के पहले घंटे की खड़कन के साथ ही मालती की छाती एकाएक फफोले की भाँति उठी और धीरे-धीरे बैठने लगी, और घंटा-ध्वनि के कम्पन के साथ ही मूक हो जानेवाली आवाज़ में उसने कहा, 'ग्यारह बज गये...।"

नोट :-  इस पोस्ट को अपने साथियों के साथ अवश्य साझा करें। आप अपने सुझाव नीचे कमेंट बॉक्स में दर्ज कर सकते है। जिससे हम हिंदी साहित्य के आगामी ब्लॉग को और बेहतर बनाने की कोशिश कर सकें।

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