अपना अपना भाग्य (कहानी) - जैनेन्द्र कुमार || Apana Apana Bhaagy (kahane)- Jainendr kumar
अपना अपना भाग्य (कहानी)- जैनेन्द्र कुमार
* "कहानी एक भूख है जो निरंतर समाधान पाने की कोशिश करती है।" - जैनेंद्र
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* प्रथम प्रकाशनः- विशाल भारत पत्रिका में, 1929 ई.।
* संग्रह: - वातायन (1931 ई.)
* फोटाग्राफी * व्याह * खेल * निर्मम * चोरी * साधु की हठ * अपना-अपना
भाग्य |
* चलित-चित्र * दिल्ली में * तमाशा * अंधे का भेद * भाभी * आतिथ्य |
प्रतिपाद्य
* मध्यवर्ग की खोखली सहानुभूति और भाग्य की क्रूरता को चित्रित करती है एवं उसकी क्षुब्धता पर व्यंग्य करती है।
* यह कहानी सामाजिक भेदभाव, विषमता एवं पराधीनता को दिखाती है। इस कहानी में व्याप्त विषमता आर्थिक और सामाजिक दोनों स्तर पर है।
* शिक्षित मध्य वर्ग की स्वार्थपरकता को उजागर करने वाली कहानी।
* गुलाम भारत की बीसवीं शती के नैनीताल शहर का परिवेश।
विशेष
* संवाद शैली का प्रयोग।
* पहाड़ों के सौंदर्यबोध को उद्घाटित करती है।
* यह एक विचार-प्रधान कहानी है।
* यह कहानी भाग्यवादी विचारों का समर्थन नहीं करती।
* भारतीय स्त्री-पुरुषों की तुलना अंग्रेज स्त्री-पुरुषों से की गई है। • अंग्रेजों की चाटुकारिता करने वालों पर व्यंग्य करती है।
* कहानी में बेरोजगारी की समस्या का चित्रण हुआ है।
* कहानी में पहाड़ी लोगों पर किये जाने वाले तथाकथित अविश्वास की समस्या का चित्रण भी किया गया है।
उल्लिखित स्थान
* नैनीताल (जहाँ की घटना कहानी में वर्णित है।)
* 'होटल डी पब' (जहाँ लेखक और उसका मित्र रहता है।)
पात्र
मुख्य पात्र
* पहाड़ी लड़का (10 वर्ष)
* लेखक (कथावाचक)
* लेखक का मित्र
गौण पात्र
* दो वकील मित्र (इन्हीं में से एक लड़के को नौकर नहीं रखता है
* लड़के का साथी (जिसे उसका मालिक मार देता है)
प्रमुख उद्धरण
* "पीछे हमारे पोलो वाला मैदान फैला था। सामने अंग्रेज़ों का एक प्रमोदगृह था, जहाँ सुहावना, रसीला बाजा बज रहा था और पाश्च में था वही सुरम्य अनुपम नैनीताल।"
* "नैनीताल की संध्या धीरे-धीरे उतर रही थी।"
* "अधिकार-गर्व में तने अंग्रेज उसमें थे और चिथड़ों से सजे घोड़ों की बाग थामे वे पहाड़ी उसमें थे, जिन्होंने अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान को कुचलकर शून्य बना लिया है और जो बड़ी तत्परता से दुम हिलाना सीख गए हैं।"
"अंग्रेज पिता थे, जो अपने बच्चों के साथ भाग रहे थे, हँस रहे थे और खेल रहे थे, उधर भारतीय पितृदेव भी थे, जो बुजुर्गी को अपने चारों तरफ लपेटे धन-संपन्नता के लक्षणों का प्रर्दशन करते हुए चल रहे थे।"
* “अंग्रेज़ रमणियाँ थीं, जो धीरे-धीरे नहीं चलती थीं, तेज चलती थीं। उन्हें न चलने में थकावट आती थी, न हँसने में मौत आती थी। कसरत के नाम पर घोड़े पर भी बैठ सकती थीं और घोड़े के साथ ही साथ, जरा जी होते ही किसी-किसी हिंदुस्तानी पर कोड़े भी फटकार सकती थीं। वे दो-दो, तीन-तीन, चार-चार की टोलियों में, निःशंक, निरापद इस प्रवाह में मानो अपने स्थान को जानती हुई, सड़क पर चली जा रही थीं।"
* "उधर हमारी भारत की कुललक्ष्मी, सड़क के बिल्कुल किनारे दामन बचाती और संभालती हुई, साड़ी क़ी कई तहों में सिमट-सिमटकर लोक-लाज, स्त्रीत्व और भारतीय गरिमा के आदर्श को अपने परिवेष्टनों में छिपाकर सहमी-सहमी धरती में आंख गाड़े, कदम-कदम बढ़ा रही थीं।"
* "इसके साथ ही भारतीयता का एक और नमूना था। अपने कालेपन को खुरच-खुरचकर बहा देने की इच्छा करने वाले अंग्रेज़ीदां पुरुषोत्तम भी थे, जो नेटिवों को देखकर मुंह फेर लेते थे और अंग्रेज़ को देखकर आँखें बिछा देते थे और दुम हिलाने लगते थे। वैसे वे अकड कर चलते थे- मानो भारतभूमि को इसी अकड़ के साथ कुचल-कुचलकर चलने का उन्हें अधिकार मिला हो।"
- अंग्रेज़ों की चाटुकारिता करने वालों पर व्यंग्य
* “एक शुभ्र महासागर ने फैलकर संस्कृति के सारे अस्तित्व को डुबो दिया। ऊपर-नीचे, चारों तरफ वह निर्भेद्य, सफेद शून्यता ही फैली हुई थी।"
- पहाड़ का सौंदर्य
* “एक लड़का सिर के बड़े-बड़े बालों को खुजलाता चला आ रहा है। नंगे पैर हैं, नंगा सिरा एक मैली-सी कमीज लटकाए है। पैर उसके न जाने कहाँ पड़ रहे हैं, और वह न जाने कहाँ जा रहा है- कहाँ जाना चाहता है। उसके कदमों में जैसे कोई न. अगला है, न पिछला है, न दायां है, न बायां है।"
* "वह हमें न देख पाया। वह जैसे कुछ भी नहीं देख रहा था। न नीचे की धरती, न ऊपर चारों तरफ फैला हुआ कुहरा, न सामने का तालाब और न बाकी की दुनिया। वह बस, अपने विकट वर्तमान को देख रहा था।"
* "मेरे कई छोटे भाई-बहिन हैं- सो भाग आया वहाँ काम नहीं, रोटी नहीं। बाप भूखा रहता था और मारता था मां भूखी रहती थी और रोती थी। सो भाग आया।"
- लड़का
* "अजी, ये पहाड़ी बड़े शैतान होते हैं। बच्चे-बच्चे में गुल छिपे रहते हैं। आप भी क्या अजीब हैं। उठा लाए कहीं से- लो जी, यह नौकर लो।"
- वकील लेखक से (पहाड़ियों के प्रति अविश्वास)
* मैंने कहा- "दस का नोट ही दे दो।" सकपकाकर मित्र मेरा मुँह देखने लगे- "अरे यार! बजट बिगड़ जाएगा। हृदय में जितनी दया है, पास में उतने पैसे तो नहीं हैं।"
"तो जाने दो, यह दया ही इस जमाने में बहुत है।" मैंने कहा।
* सिकुड़ते हुए मित्र ने कहा- "भयानक शीत है। उसके पास कम-बहुत कम कपड़े..."
"यह संसार है यार!" मैंने स्वार्थ की फिलासफी सुनाई- "चलो, पहले बिस्तर में गर्म हो लो, फिर किसी और की चिंता करना।" उदास होकर मित्र ने कहा- "स्वार्थ! जो कहो, लाचारी कहो, निष्ठुरता कहो, या बेहयाई!"
* "मोटर में सवार होते ही थे कि यह समाचार मिला कि पिछली रात, एक पहाड़ी बालक सड़क के किनारे, पेड़ के नीचे, ठिठुरकर मर गया! मरने के लिये उसे वही जगह, वही दस बरस की उम्र और वही काले चिथड़ों की कमीज मिली। आदमियों की दुनिया ने बस यही उपहार उसके पास छोड़ा था। पर बताने वालों ने बताया कि गरीब के मुँह पर; छाती, मुट्ठी और पैरों पर बरफ की हल्की-सी चादर चिपक गई थी। मानो दुनिया की बेहयाई ढकने के लिये प्रकृति ने शव के लिये सफेद और ठण्डे कफन का प्रबंध कर दिया था। सब सुना और सोचा, अपना-अपना भाग्य।"
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