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आकाशदीप कहानी - जयशंकर प्रसाद || Aakaashadeep Kahaanee - Jayashankar Prasaad

         आकाशदीप कहानी - जयशंकर प्रसाद

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* संग्रह :-   (आकाशदीप-1929 ई.)

आकाशदीप

वैरागी

ममता

बनजारा

चूड़ीवाला

हिमालय का पथिक

भिखारिन

देवदासी

कला

अपराधी

रमला

प्रतिध्वनि

स्वर्ग के

खंडहर में

रूप की छाया

समुद्र-संतरण

सुनहला साँप

प्रणय-चिह्न

ज्योतिष्मती

बिसाती

इस कहानी  के माध्यम से हम इसकी सम्पूर्ण जानकारी के बारे मे चर्चा करेंगे और हम इसके पात्र , कथासार का सार , और इसके प्रमुख उद्धरण के बारे मे विस्तार से  चर्चा करेंगे ?

                                प्रतिपाद्य

* ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में प्रेम और घृणा के द्वंद्व को उद्घाटित करती हुई कथा।

* कर्त्तव्य और प्रेम के अंतर्द्वद्व (पिता की हत्या के आरोपी बुधगुप्त से ही प्रेम) से जूझती चंपा द्वारा संपूर्ण जीवन कर्त्तव्य के लिये समर्पित करने की रोमैंटिक कहानी।

* पिता की हत्या का प्रतिशोध रूप

                                    पात्र 

                                 मुख्य पात्र 

* बुद्धगुप्त :-  ताम्रलिप्ति का क्षत्रिय

- पोताध्यक्ष मणिभद्र की हत्या कर स्वयं व चंपा को मुक्त करता है।

- नए द्वीप को 'चंपा द्वीप' नाम देता है, जहाँ वे रहते हैं।

- बाली, जावा, सुमात्रा के वाणिज्य पर एकाधिकार स्थापित करता है।

- चंपा 'महानाविक' संबोधित करती है।

- चंपा से विवाह कर भारत लौटने को इच्छुक

- चंपाः जाह्नवी के तट पर, चंपा नगरी की क्षत्रिय बालिका

- पिता मणिभद्र के यहाँ प्रहरी

- बुद्धगुप्त को पिता की मृत्यु का कारण मानती है।

- मणिभद्र के 'घृणित-प्रस्ताव' को ठुकराने पर बंदी बना ली गई।

- बुद्धगुप्त के भारत लौट-जाने पर भी चंपा द्वीप पर ही रह जाती है।

- बुद्धगुप्त के प्रति प्रेम और घृणा का द्वंद्व।

                                   गौण पात्र 

* मणिभद्र :-  बुद्धगुप्त और चंपा को बंदी बनाने वाला खलनायक

* जया:-  चंपा की सेविका

* 'चंपा :- द्वीप की मूल निवासी'

                                     विशेष

* संस्कृतनिष्ठ शब्दावली

* कहानी में एक स्थल पर पांच वर्ष का अंतराल आता है।• चरित्र-प्रधान

* सामुद्रिक जीवन

* प्रच्छन्न प्रेम

                                प्रमुख उद्धरण 

* "क्या स्त्री होना कोई पाप है? (चंपा)"

* "दुर्दान्त दस्यु ने देखा, अपनी महिमा में अलौकिक एक तरुण बालिका। वह विस्मय से अपने हृदय को टटोलने लगा। उसे एक नई वस्तु का पता चला। वह थी कोमलता।"

* "हँसी आती है। तुम किसको दीप जलाकर पथ दिखलाना चाहती हो? उसको, जिसको तुमने भगवान मान लिया है?"

* "हाँ, वह भी कभी भटकते हैं, भूलते हैं; नहीं तो, बुद्धगुप्त को इतना ऐश्वर्य क्यों देते।"

* "आह चंपा! तुम कितनी निर्दय हो। बुद्धगुप्त को आज्ञा देकर देखो तो, वह क्या नहीं कर सकता। जो तुम्हारे लिये नए द्वीप की सृष्टि कर सकता है, नई प्रजा खोज सकता है, नए राज्य बना सकता है, उसकी परीक्षा लेकर देखो तो... कहो, चंपा ! वह कृपाण से अपना हृदय-पिंड निकाल अपने हाथों अतल जल में विसर्जन कर दे।"

- बुद्धगुप्त, चंपा से

* "मुझे स्मरण है, जब मैं छोटी थी, मेरे पिता नौकरी पर समुद्र में जाते थे- मेरी माता, मिट्टी का दीपक बाँस की पिटारी में भागीरथी के तट पर बाँस के साथ ऊँचे टाँग देती थी। उस समय वह प्रार्थना करती - "भगवान्! मेरे पथ-भ्रष्ट नाविक को अंधकार में ठीक पथ पर ले चलना।" और जब पिता बरसों पर लौटते तो कहते- "साध्वी ! तेरी प्रार्थना से भगवान् ने संकटों में मेरी रक्षा की है।" वह गद्गद हो जाती।"

* "जब मैं अपने हृदय पर विश्वास नहीं कर सकी, उसी ने धोखा दिया, तब मैं कैसे कहूँ? मैं तुम्हें घृणा करती हूँ फिर भी तुम्हारे लिये मर सकती हूँ। अंधेर है जलदस्यु। तुम्हें प्यार करती हूँ।"

- चंपा, बुद्धगुप्त से

* "हम लोग जन्मभूमि- भारतवर्ष से कितनी दूर इन निरीह प्राणियों में इंद्र और शची के समान पूजित हैं। स्मरण होता है वह दार्शनिकों का देश! वह महिमा की प्रतिमा! मुझे वह स्मृति नित्य आकर्षित करती है; परंतु मैं क्यों नहीं जाता? जानती हो, इतना महत्त्व प्राप्त करने पर भी मैं कंगाल हूँ। मेरा पत्थर-सा हृदय एक दिन सहसा तुम्हारे स्पर्श से चंद्रकांत मणि ही तरह द्रवित हुआ।

मैं ईश्वर को नहीं मानता, मैं पाप को नहीं मानता, मैं दया को नहीं समझ सकता, मैं उस लोक में विश्वास नहीं करता। पर मुझे अपने हृदय के एक दुर्बल अंश पर श्रद्धा हो चली है। तुम न जाने कैसे एक बहकी हुई तारिका के समान मेरे शून्य में उदित हो गई हो।"

- बुद्धगुप्त, चंपा से

* "पहले विचार था कि कभी-कभी इस दीप-स्तंभ पर से आलोक जलाकर अपने पिता की समाधि का इस जल से अन्वेषण करूँगी। किंतु देखती हूँ, मुझे भी इसी में जलना होगा, जैसे: आकाशदीप।"

- चंपा, बुद्धगुप्त से

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