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धरती धन न अपना (जगदीशचन्द्र) - 1972 ई.- उपन्यास || dharatee dhan na apana (jagadeeshachandr) - upanyaas

    धरती धन न अपना (जगदीशचन्द्र) - 1972 ई.

यह उपन्यास पंजाब के होशियारपुर जिले के दोआब क्षेत्र के घोड़ेवाहा। गाँव के दलित समाज पर केंद्रित है। इसका प्रकाशन सन् 1972 ई. में हुआ था। 



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इस उपन्यास के केंद्र में काली और ज्ञानो की प्रेमकथा है। तथा पूँजीवादी सभ्यता द्वारा किस तरह हरिजनों का शोषण होता है। इसे दर्शाने की कोशिश की गई है। उपन्यास का आरंभ काली, जो हरिजन जाति का है, उसके 6 वर्ष बाद कानपुर शहर से घोड़ेवाहा लौटने से होता है। चाची के अंधविश्वास की वजह से काली की मृत्यु, नंद सिंह का बार-बार धर्म परिवर्तन, पं. संतराम का धार्मिक पाखंड और दंभ, काली और ज्ञानो का प्रेम-संघर्ष तथा पूँजीपतियों द्वारा चमार जाति के लोगों को प्रताड़ित करना अर्थात् उनकी वेदना को इस उपन्यास के द्वारा चित्रित किया गया है। जगदीश चन्द्र ने उपन्यास की भूमिका में लिखा है कि "मेरा यह उपन्यास मेरी किशोरावस्था की कुछ अविस्मरणीय स्मृतियों और उनके दामन में छिपी एक अदम्य वेदना की उपज में लिखा गया है।

" लेखक ने यह उपन्यास सोम आनंद को समर्पित किया है।

इस उपन्यास के माध्यम से हम इसकी सम्पूर्ण जानकारी के बारे मे चर्चा करेंगे और हम इसके पात्र , कथासार का सार , और इसके प्रमुख उद्धरण के बारे मे विस्तार से  चर्चा करेंगे ? 

पात्र :- 

* काली:- केंद्रीय पात्र

* ज्ञानो:- काली की प्रेमिका

* प्रतापी: - काली की चाची

* जस्सो :-  ज्ञानो की माँ

* मंगूः-  ज्ञानो का भाई

* चौधरी: - हरनाम सिंह (चौधरी साहब गाँव के)

* छज्जूशाह :- साहूकार

* बिशनदास : - डॉक्टर

* निहाली : - काली की पड़ोस की ताई, जीतू की माँ

* जीतू :- काली का दोस्त 

* प्रीतो: - पड़ोस की चाची

* निक्कूः - प्रीतो का पति

* मुंशी शिवराम : - गाँव के मास्टर

* पंड़ित संतराम :- गाँव के पंडित

* बंतूः- पिता चन्ना राम और ठाकुरी माता का पुत्र

* सिद्धः - काली के चाचा

* अमरू :- निक्कू का बेटा

* दीनूः - गाँव का कुम्हार

* लच्छो :-  प्रीतो की पुत्री;

* हरदेवः - हरनाम सिंह का भतीजा

* नाहर सिंह : - संतासिंह का भाई

* नंदसिंह: - जाति बदलने वाला मोची है, बाद में इसका नाम रामदसिया पड़ गया

* पालो : - बूरा सिंह का लड़का

* ठाकरी: - नंदसिंह की पत्नी 

* संतासिंह :-  मिस्त्री, बढ़ई।

                    कथासार 

* 'धरती धन न अपना' उपन्यास का आरंभ कालीदास के अपने गाँव घोड़ेवाहा लौटने से होता है। गाँव में उसकी एक चाची प्रतापी रहती है जिसने उसको पाला-पोसा था। उसके माँ-बाप की मृत्यु उसकी शैशवावस्था में ही हो जाती है।

* छह वर्ष बाद जब काली कानपुर से अपने गाँव आता है तो देखता है कि चमारों के मोहल्ले में एक कोठा भी अभी तक पक्का नहीं हुआ है। गाँव में ज़मीनों के मालिक चौधरी हैं। वो लोग बेबात चमारों से गाली-गलौज और मारपीट करते हैं। उपन्यास के प्रारंभ में ही हरनाम सिंह निर्दोष जीतू की पिटाई करता है। मंगू चमार चौधरी हरनाम सिंह का गुलाम बना रहता है, जबकि उसकी बहन ज्ञानो चौधरियों के अन्याय का विरोध करती है।

* कालीदास अपने कच्चे मकान को गिराकर पक्का मकान बनाना चाहता है, लेकिन उसे छज्जू साह बताता है कि जहाँ दलित लोग रहते हैं वह ज़मीन उनकी नहीं है। वो 'शामलात' है अर्थात् वो लोग उस पर केवल रह सकते हैं। काली को अपना घर पक्का बनवाते देखकर चौधरी लोग दलितों को आपस में ही लड़वाते हैं। मंगू और काली के बीच लड़ाई हो जाती है। इसी दौरान, काली का ज्ञानो के साथ प्रेम भी बढ़ने लगता है।

* काली को पक्का मकान बनवाते देखकर छज्जू शाह, मिस्त्री आदि सभी लोग उसे चमार कह कर छुआछूत का व्यवहार करते हैं। इसी छुआछूत से बचने के लिये नंद सिंह पहले सिख और फिर बाद में इसाई बनता है। लेकिन उसके साथ फिर भी वैसा ही व्यवहार होता है। कॉमरेड बिशनदास छुआछूत के व्यवहार को रोकने का प्रयास करता है। कबड्डी में जान-बूझकर हरनाम सिंह का भतीजा 'हरदेव' काली का कूल्हा तोड़ देता है।

* अचानक काली की चाची प्रतापी बीमार पड़ जाती है और उसका देहांत हो जाता है। तभी काली का सारा धन और उसकी चाची द्वारा बनवाए गहने एक पड़ोसिन चुरा लेती है। वह चाची की मृत्यु पर शोक जताने आई थी। काली फिर से घास खोदने और लालू पहलवान के यहाँ मजदूरी करने लगता है। गाँव में बाढ़ आती है तो उसका मुकाबला चमार और चौधरी मिलकर करते हैं, लकिन चमार लोग बेगारी करने से मना कर देते हैं। इससे चमारों का सामाजिक बहिष्कार किया जाता है। अंत में 15 दिन तक बच्चों को भूख से बिलबिलाते देखकर चमारों का साहस जवाब दे जाता है और वो चौधरियों की शर्तों को मान लेने के लिये विवश हो जाते हैं। दोनों पक्ष संघर्ष को व्यर्थ समझ आधे दिन की दिहाड़ी पर समझौता कर लेते हैं।

* उपन्यास का अंत काली के प्रेम की त्रासदी से होता है। जहाँ ज्ञानो गर्भवती हो जाती है और काली का कोई नहीं होने के कारण उसका विवाह उससे नहीं किया जाता है, बल्कि उसे जहर देकर मार दिया जाता है। अंत में काली को अपनी प्रेमिका की हत्या का मर्मान्तक दुख लेकर गाँव से भागना पड़ता है।

                  प्रमुख उद्धरण 

* "गोबर की तेज बदबू ने उसे चमादड़ी (हरिजनों की बस्ती) के निकट ही होने का संकेत दिया।"

* "गली में कई कुत्तों ने मिलकर उसका स्वागत किया। दूसरी ओर से भी कुत्तों ने उत्तर में भौंकना शुरू कर दिया और इतना शोर मचाया कि काली को यह शक होने लगा कि शायद इस गली में सिर्फ कुत्ते ही रहते हैं।"

* "चाची ने काली की आवाज को पहचानते हुए स्नेह और आश्चर्य भरे स्वर में कहा जैसे उसे विश्वास न आया हो। फिर उसने काली के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे ऊपर उठाया और उसका माथा चूमकर बोली, "रख साइयां दी।" 

-चाची, काली से

* "आज तेरा बाप जिंदा होता तो तुम्हें देखकर कितना खुश होता। उसने तो तुम्हें जी भरकर देखा भी नहीं था कि मौत ने आ घेरा। तेरी माँ को प्लेग खा गई। तेरा चाचा चप्पे गिन-गिनकर तुम्हें पाल-पोस रहा था, लेकिन उसे भी हैजे ने खा लिया। तुम्हें तो शायद उसकी सूरत भी याद न हो। सारे खानदान की तू ही तो एक निशानी है।"

- चाची, काली से

* "जीतू के सख्त और प्रौढ़ शरीर को देख काली को महसूस हुआ कि बालपन के बाद जीतू पर यौवन और बुढ़ापा एक साथ ही शुरू हो गए हैं।"

* "चौधरी, एक बार ही इसका खात्मा कर दे। रोज-रोज का क्लेश तो मिट जाएगा। किसी की फसल कट जाए तो चोर जीतू। किसी का कोई नुकसान हो जाए तो जिम्मेदार जीतू।"

- निहाली, चौधरी से

* "निहाली जीतू की ओर संकेत करती हुई बोली, "काली, देख चौधरी ने इसका क्या हाल किया है। नाक को हाथ लगाती हूँ तो तड़प उठता है। भला इसने चौधरी का क्या बिगाड़ा था जो इसे पुलसियों की मार मारी है। पूरा साल उसकी बेगार करता रहा और इसे सारी मेहनता का यह इनाम मिला है।"

- निहाली, काली से

* "प्रीतो मुहल्ले की औरतों में सबसे आगे खड़ी थी। वह मटकते हुए बोली, "रंडी का पूत, सौदागर का घोड़ा, जो करे सो ही थोड़ा। जीतू तो आग की नाल है नाल। कहीं लगता है तो कहीं बुझाता है।"

* "ताई निहाली सोच में डूबी हुई बोली, "घर में गुड़ तो है, चाय की पत्ती भी मिल जाएगी, लेकिन दूध कहाँ से आएगा? चौधरी के घर से तो लस्सी भी बहुत मुश्किल से मिलती है, दूध कौन देगा? गली में तो सिर्फ मंगू के घर में भैंस है। वहाँ से दूध तो क्या, खाली बर्तन भी वापस नहीं मिलेगा।"

- निहाली

* "माई, तूने इसे सिर चढ़ा रखा है। उठा इसे, बेकार खाट तोड़ रहा है। अगर बात थाने तक पहुँच गई तो वे मार-मारकर इसे दिन में तारे और रात में सूरज दिखा देंगे। चौधरी के खेत में बाड़ लगाई जा रही है। इसे कहो वहाँ चला जाये। चौधरी खुश हो जायेगा।"

- मंगू, निहाली से 

* "काली की बातें सुन चाची खुश हो गई थी और साथ ही चिंतित भी। वह सोच रही थी कि छोकरे को क्या हो गया है। वह अनहोनी बातें क्यों करने लगा है? भला आज तक इस मुल्ले में किसी ने मकान को पक्की ईंटें लगाई हैं। चाची ने मन ही मन में मन्नत माँगी कि काली ऐसी बातें सोचना छोड़ दे।"

* "तुम्हारे चाचा सिद्धू ने बारह साल पहले मकान बनाने के लिये एक सौ रुपये उधार लिये थे। उससे ब्याज लेना तो मैंने मुनासिब नहीं समझा क्योंकि वह अपना प्रेमी था। उसने असल रकम में से पचहत्तर। रुपये ही वापिस किये थे और पच्चीस रुपये अभी बाकी थे कि उसे मौत ने आ घेरा। बेचारा बहुत ईमानदार आदमी था। मेरा बड़े-बड़े चौधरियों और साहूकारों से लेन-देन है, लेकिन उस जैसा ईमानदार आदमी आज तक नहीं देखा। 

- छज्जूशाह, काली से

* "छप्पड़ सबका साझा है। क्या कमीन क्या चमार, क्या जाट क्या महाजन, जितनी जी चाहे मिट्टी खोद लो। लेकिन इतना ख्याल रखना कि कहीं बहुत गहरा गड्‌ढा न बन जाये। पारसार ऊँचे मुहल्ले के पूरणसिंह ने वहाँ कुआँ-सा खोद दिया था। बरसात में छज्जूशाह की भैंस उसमें ऐसी फँसी कि उसे बल्लियाँ देकर निकालना पड़ा था।"

- चौधरी, काली से

* "शरारत पहले भी होती थी, लेकिन लोग चुपचाप सहन कर लेते थे। मैं उस समय चुप नहीं रह सकता जब पानी सिर से गुजरने लगता है।"

-काली, चौधरी से

* "मैं तो जमीन के इस टुकड़े को भी जायदाद नहीं समझता। मैं तो सिर्फ मलबे का मालिक हूँ।"

-काली, चौधरी से

* "व्याह के बिना जिंदगी भी सुलगती लकड़ी की ही तरह है जिसमें से सिर्फ धुआँ निकलता है। वह आँखों में आँसू तो ला देता है. लेकिन गरमाइश नहीं पहुँचाता।"

- मिस्त्री, काली से

* "अच्छा-अच्छा, निक्कू के साथ तेरा झगड़ा हुआ था.... मुझे नंदसिंह ने बताया था कि काली और निक्कू में झगड़ा हो गया है। उस समय मुझे समझ में नहीं आया था कि तेरा ही नाम काली है। सच्ची बात पूछो तो गाँव में कुत्तों और चमारों की पहचान रखना है भी मुश्किल।' संतासिंह ने हंसते हुए कहाँ"

* "वही जो कुत्ते का कुतिया से होता है। काली, रन (पत्नी) वह को अपनी ब्याहता हो। उसे सिर पर चढ़ाओ या पांव के नीचे दवाओ, कोई उँगली नहीं उठा सकता। लेकिन पराई जनानी (स्त्री) तो मुँहजोर घोड़ी की तरह होती है, पता नहीं कब बिदक जाये।"

- संतासिंह, काली से

* "बहुत अच्छा किया बेटा... ईसा मसीह की भी यही तालीम है कि पड़ोसियों के साथ शांति से रहो। आसमानी किताब में लिखी हुई बातें सदा सच होती हैं।"

- पादरी, काली से

* “तू भी बन जा क्रिस्तान!" पंडित संतराम उसे झिड़कता हुआ बोला। फिर कुछ देर तक खामोश रह हारी हुई आवाज में कहने लगा, "नंदसिंह तो पहले से ही नीच था। जो आदमी गौ माता और उसके कोख जाए तो चमड़े के जूते बना सकता है, वह गांय का माँस भी खा सकता है।"

* "कभी-कभी मैं आप लोगों के मुहल्ले में जाता हूँ। ईसा मसीह का भी यही हुक्म है। वैसे भी गरीब आदमी परमात्मा के ज़्यादा नजदीक होता है। अंजील पाक में लिखा है- ऊँट का सूई के सुराख से गुजर हो सकता है, लेकिन धनवान का स्वर्ग में गुजर मुमकिन नहीं है।"

- पादरी, काली से

* “तू जब भी मुँह खोलता है तो तेरी काली जबान पर मार्क्स और लेनिन का नाम होता है और जब यह पादरी बोलता है तो एक ही आवाज निकलती है- वह भी अंजील और ईसा मसीह की।"

- महाशय, बिशनदास से

* "सवेरे नंदसिंह को देख वह बोला- सुना चमारा, ईसाई बनने के बाद कुछ फर्क पड़ा? क्या टूट्टटी-पेशाब पहले की तरह ही करता है या तरीका बदल गया है? नंदसिंह ने भी उल्टा सीधा जवाब दिया और घड्डम चौधरी ने जूता उतार लिया और लगा मारने। मजे की बात यह कि जूता भी नंदसिंह का ही बनाया हुआ था और उसे उसके पैसे भी नहीं मिले थे वह चार जूते खाकर ही पेशाब के झाग की तरह बैठ गया। घड्डम चौधरी ने उससे कहा कि चमड़ा कलाया हो या लाल, कमाया हुआ हो या कच्चा, आखिर चमड़ा है। नंदसिंह खारिश खाये कुत्ते की तरह चूं-चूं करता हुआ अपने घर चला गया।"

- चौधरी और नंद सिंह

* “पूंजीपति यह कभी नहीं चाहते कि मजदूरों में एकता हो। मुतवाजी यूनियन बनाना भी एक इम्पीरियलिस्ट चाल है, मजदूरों के इत्तहाद को तोड़ने की।" 

- बिशनदास, काली से

* “सिख बन जाने का मतलब यह तो नहीं कि चमार नहीं रहा। धर्म बदलने से जात तो नहीं बदल जाती।"

- संतासिंह, नंद सिंह से

* "वाह-वाह.... नंद सिंह तेरे सिर पर अभी सींग तो उगे नहीं..... पागला तू कुछ भी बन जा, लेकिन रहेगा चमार का चमार ही। जात कर्म से नहीं, जन्म से बनती है।

* "जिस तरह बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है, उसी तरह बड़ा तबका छोटे तबके को एक्सप्लायट करता है। यानी उसकी मेहनत का फल उसे नहीं खाने देता बल्कि खुद खा जाता है। इसी से क्लास स्ट्रगल (वर्ग संघर्ष) पैदा होता है। लेकिन मार्क्सवादी इन्कलाब से यह तबका खत्म हो जायेगा और प्रोलतारिया का बोलबाला होगा।"

- बिशनदास, काली से

* “तू क्या समझता है कि ईसाई बनने से उसका हुलिया बदल जायेगा। सब मजहब फरेब है। अमीरों और पूँजीपतियों ने आम लोगों को लूटने और उन्हें गुमराह करने के लिये ये सब ढकोसले खड़े किये हैं।"

- बिशनदास, बंतू से

* "हम चमार हैं, चौधरियों के कमीन। आप चौधरी हैं, हमारे मालिक। आप जो भी दण्ड देंगे, जिसको भी देंगे, वह उसे कबूल करना होगा। नदी में रहकर मगरमच्छ से बैर नहीं रखा जा सकता।"

- बाबे फत्तू, चौधरियों से

* "चौधरियों, आमद किसी का राजक नहीं है। हमारा राजक भी वही है जो तुम्हारा है। तुम लोगों को ज़मीनों का अहंकार है.... हमने तुम्हारी बहुत बातें सुनी हैं। लेकिन हर चीज की हद होती है। हम पत्थर नहीं हैं, हम भी इनसान हैं।" काली ने आगे बढ़कर उत्तेजित स्वर में कहाँ"

* “कालीदास, दरअसल सारी खराबी कैपिटलिस्ट सिस्टम की है। हमारे देश में तो हालत और भी गंभीर है। यहाँ अभी पूँजीवाद भी पूरी तरह नहीं आया। दुनिया समाजवाद की तरफ बढ़ रही है और हम अभी तक जागीरदारी के चक्कर में फँसे हुए हैं।"

- बिशनदास, काली से 

* "बहुत उथल-पुथल होगी। पूँजीवाद और जागीरदारी सिस्टम इंकलाब को असफल बनाने की कोशिश करेंगे। अपने एजेंटों की मार्फत इन्कलाबी ताकतों में फूट डालेंगे, उन पर हमले करेंगे, खूनखराबा होगा, खून की नदियाँ बहेंगी और हजारों लोग मरेंगे।"

- बिशनदास, काली से 

* "शास्त्रों के अनुसार, बलि का फल केवल उसे मिलेगा जो सामग्री पर नामा (पैसा) खर्च करेगा। मान लो ख्वाजा पीर को दया आ गई और उन्होंने बलि स्वीकार कर ली तो उसका सारा फल बूटासिंह को ही मिलेगा। सारा गाँव चौबुर्द हो जायेगा, सिर्फ बूटासिंह का घर-बार बचेगा।"

 - संतराम, पालो से

* "सुबह तक बाढ़ का जोर खत्म हो गया, लेकिन खेतों में चारों ओर पानी भरा हुआ था। मिट्टी नरम हो जाने से मक्की की फसल ज़मीन पर बिछ गई थी। खेतों में बल खाती हुई पगडंडियाँ और रास्ते पानी में डूबे हुए थे और जहाँ तक नजर जाती थी, हरियाली के नीचे बिछी हुई पानी की चादर कहीं मैली और कहीं चमकदार दिख रही थी।"

* "पूँजीपति और ज़मींदार हमेशा से मेहनतकश और प्रोलतारी तबके पर जुल्म करते आये हैं। उसको एक्सप्लायट करते रहे हैं। लेकिन जब प्रोलतारी तबके में इनकलाबी स्पिरिट जाग उठती है तो वह बाढ़ बनकर इन ताकतों को तिनकों की तरह बहा ले जाता है।"

- बिशनदास, काली से

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