आपका बंटी (मन्नू भंडारी)- 1971ई || aapaka bantee (mannoo bhandaaree)
आपका बंटी (मन्नू भंडारी)- 1971ई .
'आपका बंटी' मन्नू भंडारी का सुप्रसिद्ध और स्वतंत्र रूप से लिखा गया प्रथम उपन्यास है जो तलाकशुदा दम्पतियों के बच्चों पर पड़ने वाले प्रभाव से जुड़ा है। यह कालजयी उपन्यास हिंदी साहित्य की एक अमूल्य निधि है।
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यह मन्नू भंडारी द्वारा रचित एक बाल मनोवैज्ञानिक उपन्यास है। यह 16 भागों में विभक्त है। इसका प्रकाशन सन् 1971 में हुआ था। उपन्यास का प्रारंभ शकुन और बंटी के भावात्मक वर्णन के साथ होता है। इस उपन्यास के केंद्र में बंटी है जो पारिवारिक विसंगति का शिकार है। शकुन और अजय का तलाक हो चुका है किंतु इसका पता बंटी को अपने दोस्त टीटू के द्वारा चलता है। शकुन और अजय के विफल वैवाहिक जीवन का सबसे अधिक प्रभाव उनके बेटे बंटी पर पड़ता है। यह उपन्यास हर उस बच्चे की कहानी है जो इन प्रकार की परिस्थितियों के बीच पिसकर अकेले, जड़हीन और अनचाहे होते चले जाने को अभिशप्त हो गए।
पात्र :-
मुख्य पात्र :-
* बंटी: _ उपन्यास के केंद्र में बालक बंटी की ही दुर्दशा का चित्रण है। माता-पिता के होने के बावजूद वह अनाथ की जिंदगी जीता है।
* अजयः - बंटी का पिता और शकुन का पति जो बंटी से प्यार तो करता है पर उसकी खुशी के लिये समझौता नहीं कर सकता।
* शकुनः - बंटी की माँ जो उसे शुरू में बेइंतहा प्यार करती है, पर डॉ. जोशी से विवाह के पश्चात उसे बंटी कभी-कभी बाधा की तरह लगने लगता है।
* वकील चाचाः - अजय एवं शकुन के वकील/सलाहकार की भूमिका अदा करते हैं।
* फूफीः - शकुन के घर की संरक्षिका जो उसकी अत्यंत हितैषी है। वह अजय को कोसती है। वह पुरानी पीढ़ी से है। वह न अजय के विवाह के पक्ष में है, न शकुन के।
गौण पात्र :-
* डॉ. जोशी :- शकुन के दूसरे पति, शहर के प्रसिद्ध डॉक्टर
* प्रमिलाः - डॉ. जोशी की मृत पत्नी
* अमी : - डॉ. जोशी का बेटा
* जोत:- डॉ. जोशी की बेटी
* मीराः - अजय की दूसरी पत्नी
* चीनूः - मीरा का बेटा
* टीटू :- बंटी का दोस्त
* कुन्नी :- शर्मा साहब की लड़की
* माली, चपरासी, बंसीलाल
विशेष
* चरित्रानुकूल भाषा का प्रयोग हुआ है।
* उपन्यास की भाषा में अंग्रेज़ी, संस्कृत के तत्सम; उर्दू, अरबी, फारन शब्दों का भी प्रयोग हुआ है।
* बाल-मन को मन्नू जी ने मार्मिक ढंग से उकेरा है।
कथासार
तलाक की समस्या पर केंद्रित इस उपन्यास में मन्नू भंडारी ने बाल मनोविज्ञान की मार्मिक परतों को खोला है। तलाक की इस समस्या के केंद्र में बंटी है, जिसके पिता अजय एवं माँ शकुन है। शकुन आधुनिक एवं स्वतंत्र विचारों वाली आधुनिक स्त्री है, वहीं अजय अहम भाव से भरा पुरुष है। दोनों में से कोई रिश्ते को लेकर झुकने को तैयार नहीं हैं। वे केवल एक-दूसरे के झुकने की प्रतीक्षा करते हैं, ताकि एक बड़ा दिल करके दूसरे को माफ कर सके। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और अंततः एक दिन दोनों के बीच तलाक हो गया। अजय, मीरा नामक एक स्त्री के साथ रहने लगता है और इधर शकुन भी डॉ. जोशी से विवाह कर उनके घर चली जाती है। जोशी के दो बच्चे उनकी पहली पत्नी से उत्पन्न थे। बंटी को डॉ. जोशी का घर नहीं जँचता। वह पाता है कि माँ उसे अब पहले की तरह प्यार नहीं करती और न ही अपने पास सुलाती है वह डॉ. जोशी के घर खुद को उपेक्षित महसूस करता है। उसे माँ शकुन का डॉ. जोशी के साथ कमरे में सोते. देखना अच्छा नहीं लगता। उसे शकुन से घृणा होने लगती है और गुस्से में वह पापा अजय को फोन करके कलकत्ता उनके पास आने को कहता है, किंतु वहाँ भी उसे वैसा माहौल नहीं मिलता जैसा वो चाहता था। सौतेली माँ मीरा को भी वह अपना नहीं पाता। अंत में अजय उसे हॉस्टल में दाखिल करा देता है जहाँ वह अनाथ जैसा जीवन जीने को मजबूर होता है। अजय-शकुन के अपने स्वार्थ में बेटे का जीवन पिसता चला जाता - है। दोनों में से किसी के पास त्याग भावना नहीं है। बच्चे के लिये कोई भी एक-दूसरे की गलतियों को नहीं भूलना चाहता। अंततः बंटी इस खंडित रिश्ते के बीच त्रासदी का शिकार हो जाता है।
प्रमुख उद्धरण
* "शकुन-अजय के आपसी संबंधों में बंटी चाहे कितना ही फ़ालतू और अवांछनीय हो गया हो, परंतु मेरी दृष्टि को सबसे अधिक उसी ने आकर्षित किया। वस्तुतः उपन्यासकार के लिये अप्रतिरोध चुनौती, सहानुभूति और मानवीय करुणा के केंद्र सिर्फ़ वे ही लोग हो पाते हैं, जो कहीं न कहीं फ़ालतू हो गए हैं।"
- जन्मपत्रीः बंटी की (लेखिका का वक्तव्य)
* "जब तक आँखें खुली हैं, नज़र कमरे की दीवारों में कैद है, पर आँख बंद करते ही जैसे सारी सीमाएँ टूट जाती हैं और न जाने कहाँ-कहाँ के जंगल, पहाड़ और समुद्र तैर आते हैं आँखों के सामने। परीलोक की परियाँ और पाताल लोक की नाग-कन्याएँ तैरती हुईं उसके सामने से निकल जाती हैं।"
* "बड़ी खातिर करना सीख गया। तू तो एकदम ही बड़ा और समझदार हो गया लगता है।"
- वकील चाचा, बंटी से
* "तुम्हारा बेटा तो बड़ा गुनी है शकुन। कलाकार बनेगा। देखो न, इस उम्र में ही बड़ी अच्छी पेंटिंग्स बना रखी हैं।"
- वकील चाचा, शकुन से
* "मैं क्या जानता नहीं, इसलिये तो कह भी दिया। कोई और होता तो कभी बीच में नहीं पड़ता। अजय ने दस्तखत करके फार्म दे दिया है। कल तुम भी उस पर दस्तखत कर देना। मैं कचहरी में जमा करके जल्दी ही कोई तारीख देने के..."
- वकील चाचा, शकुन से
* "अच्छा है चाचा, मैं तो खुद चाहती हूँ कि यह अब सब कुछ जान ले। आखिर कब तक इससे छिपाकर रखा जा सकता है! अब इसके मन में यह बात बहुत घुमड़ने लगी है आजकल !"
- शकुन, वकील चाचा से
*• "शकुन के लिये समय जैसे एक लंबे अरसे ठहर गया था। यों घड़ी की सुई तो बराबर ही चलती थी। रोज सवेरे पीछे के आँगन से घुसकर धूप सारे घर को चमकाती-दमकाती दोपहर को लॉन में फैल-पसरकर बैठ जाती और शाम को बड़ी अलसायी-सी धीरे-धीरे सरकती हुई पीछे की पहाड़ियों में छिप जाती।"
* "शुरू के दिनों में ही एक गलत निर्णय ले डालने का एहसास दोनों के मन में बहुत साफ़ होकर उभर आया था, जिस पर हर दिन और हर घटना ने केवल सान ही चढ़ाई थी। समझौते का प्रयत्न भी दोनों में एक अंडरस्टैंडिंग पैदा करने की इच्छा से नहीं होता था, वरन् एक-दूसरे को पराजित करके अपने अनुकूल बना लेने की आकांक्षा से। तर्कों और बहसों में दिन बीतते थे और ठंडी लाशों की तरह लेटे-लेटे दूसरे को दुखी, बेचैन और छटपटाते हुए देखने की आकांक्षा में रातें। भीतर-ही-भीतर चलनेवाली एक अजीब ही लड़ाई थी वह भी, जिसमें दम साधकर दोनों ने हर दिन प्रतीक्षा की थी कि कब सामनेवाले की साँस उखड़ जाती है और वह घुटने टेक देता है,
जिससे कि फिर वह खड़ी उदारता और क्षमाशीलता के साथ उसके सारे गुनाह माफ करके उसे स्वीकार कर ले, उसके संपूर्ण व्यक्तित्व को निरे एक शून्य में बदलकर।"
* "एक अध्याय था, जिसे समाप्त होना था और वह हो गया। दस वर्ष का यह विवाहित जीवन एक अँधेरी सुरंग में चलते चले जाने की अनुभूति से भिन्न न था। आज जैसे एकाएक वह उसके अंतिम छोर पर आ गई है पर आ पहुँचने का संतोष भी तो नहीं है, ढकेल दिए जाने की विवश कचोट-भर है।"
* "चीजों को सही तरीके से लेना सीखो, शकुन। मैं जानता हूँ कि तुम्हें इस बात में तरह-तरह की गंध आ रही होगी। जिस स्थिति में तुम हो, उसमें यह बहुत स्वाभाविक भी है। जब आदमी एक जगह धोखा खाता है तो उसे लगता है, सब जगह धोखा ही धोखा है। पर ऐसा होता नहीं है।"
- वकील चाचा, शकुन से
* "और इस स्थिति की दो ही परिणतियाँ हो सकती हैं... होंगी। या तो तुम उसके स्वतंत्र अस्तित्व को समाप्त करके उस पर हावी होने की कोशिश करोगी और या फिर अपने को बहुत ही उपेक्षित और अपमानित महसूस करोगी। उस समय तुम्हें यही लगेगा कि जिसके पीछे तुमने अपनी सारी जिंदगी बरबाद की, वह अब तुम्हें ही भूलकर अपनी जिंदगी जीने की बात सोच रहा है। उस समय तुम्हें बुरा लगेगा। आज अजय को लेकर तुम्हारे मन में जो कटुता है, हो सकता है कि वही फिर बंटी को लेकर हो... और आज से दस गुना ज्यादा हो..."
- वकील चाचा, शकुन से
* "देख रही हूँ जैसे- -जैसे तू बड़ा होता जा रहा रहा है, वैसे ही वैसे जिद्दी और ढीठ होता जा रहा है। अच्छा है, भद्द उड़वा सबके बीच मेरी।"
- शकुन, बंटी से
* "हम कहते हैं, तुम यहाँ से चले जाओ बंटी भय्या। हमारे तन-बदन में आग लगी हुई है इस बख़त। बहू को ले जाकर थाना-कचहरी में खड़ा करेंगे। मर्दानगी दिखाएँगे। अरे हाथ पकड़कर निभाने की मर्दानगी जिनमें नहीं होती, वह ऐसे ही मर्दानगी दिखाते हैं। अनबन किसमें नहीं होती, तो क्या व्याही औरत को यों छोड़ दिया जाता है?"
- फूफी, बंटी से
* "तब दो बाँहों ने (बंटी को) उसे अपने में समेटा। बिना जरा भी विरोध किए वह इस प्रकार से सिमट गया मानो बड़ी देर से इसी की प्रतीक्षा कर रहा हो। एक बार मन हुआ कि गले में बाँहें डालकर चिपट जाए, पर हिलना तो दूर साँस लेने की हिम्मत नहीं है इस समय उसमें।"
* "पर आज चार लोगों के सामने मेरे मुँह पर जूता मारकर तूने बता दिया कि तू क्या बना है और मैं तुझे क्या बना सकी हूँ।"
- शकुन, बंटी से
* "तुम उस पर शायद इतना ज्यादा हावी रही हो कि वह पूरी तरह लड़का बन ही नहीं पाया। तुमने उसे ऊधम करने ही नहीं दिया- हाँ, औरतों वाली जिद और रोना जरूर सिखा दिया।"
- जोशी, शकुन से
* "अच्छा क्या प्रेम सचमुच ही मात्र एक शारीरिक आवश्यकता और एक सुविधाजनक एडजस्टमेंट का ही दूसरा नाम है? बताओ, तुम्हेंक्या कभी अपनी पत्नी की याद नहीं आती और आती है तो क्यों? उसे तुम क्या कहोगे?"
- शकुन, जोशी से
* "यह बंटी का रवैया। तुम्हारे साथ अकेले रहते-रहते वह बहत पजेसिव हो गया है। वह किसी और को तुम्हारे साथ देख नाही सकता... तुम किसी और को..." • "बाप के रहते यह बिना बाप का हो रहा, माँ का न हो जाए..." - जोशी, शकुन से अब माँ के रहते यह
- फूफी, शकुन से
बिना • "ऐसा ही होता है बहुजी, ऐसा ही होता है। अपने बोए-सींचे पौधा से ऐसा ही मोह होता है, बिलकुल संतान-जैसा। जहाँ एक बार लगाओ वहाँ से उखाड़ा नहीं जाता।"
- माली, शकुन से
* "इस देश में तो तीन भी नहीं, दो, बस दो बच्चे पैदा करने चाहिये। तीसरा बच्चा फालतू बच्चा
- तीसरा बंटी, फालतू बंटी..."
* "ठीक है बेटे, तू वहीं चला जा। तेरे पापा तुझे लेने आ रहे हैं। अब मैं भी नहीं रोकूंगी। जब तू ही खुश नहीं तो... आख़िर अपने पापा से कम जिद्दी तो तू भी नहीं।"
- शकुन, बंटी से
* "सब लोग केवल उससे चाहते ही हैं और वह उनकी चाहनाओं को पूरती रहे यही एकमात्र रास्ता है उसके लिये। बस, वह कुछ न चाहे। जहाँ चाहती है, वहीं गलत क्यों हो जाती है? ऐसा अनुचित-असंभव भी तो उसने कुछ नहीं चाहा। एक सहज सीधी जिंदगी, जिसमें रहकर वह कम से कम यह तो महसूस कर सके कि वह जिंदा है। केवल सूरज डूब-उगकर ही उसे रात होने और बीतने का एहसास न कराए, उसके अतिरिक्त भी 'कुछ' हो।"
* “ये तो सूखेंगी ही। उस जमीन के खाद-पानी की पत्तियाँ हैं, ये तो सूखकर झड़ जाएँगी। फिर नई पत्तियाँ फूटेंगी। जड़ पकड़ने के बाद कोई डर नहीं। और उसने खुद उन मरी-मुरझाई पत्तियों को झाड़ दिया था।"
* "मुझे किसी और स्कूल में कोशिश नहीं करनी, उसे हॉस्टल ही भेजना है। यहाँ घर में रखने के लिये मैं उसे नहीं लाया हूँ। मैं क्या जानता नहीं कि इस घर में..."
- अजय, मीरा से
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