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ज़िन्दगीनामा (कृष्णा सोबती)- सन् 1979ई . || zindageenaama (krshna sobatee)

      ज़िन्दगीनामा (कृष्णा सोबती)- सन् 1979ई .

प्रिय पाठकों,........इस पोस्ट में हम हिंदी उपन्यास के महत्वपूर्ण बिंदुओं को क्रमवार समाहित किया गया है। यदि आपको हमारे द्वारा किया गया यह प्रयास अच्छा लगा है, तो इस पोस्ट को अपने साथियों के साथ अवश्य साझा करें। आप अपने सुझाव नीचे कमेंट बॉक्स में दर्ज कर सकते है। जिससे हम हिंदी साहित्य के आगामी ब्लॉग को और बेहतर बनाने की कोशिश कर सकें।

सन् 1979 में प्रकाशित 'जिन्दगीनामा' उपन्यास कथ्य और शिल्प का नया प्रतिमान है। जिसमें कथ्य और शिल्प हथियार डालकर जिंदगी को आंकने की कोशिश करते हैं। जिंदगीनामा के पन्नों में आपको बादशाह और फकीर, शहंशाह, दरवेश और किसान एक साथ खेतों की मुंडेरों पर खड़े मिलेंगे। सर्वसाधारण की वह भीड़ जो हर काल में, हर गाँव में, हर पीढ़ी को सजाए रखती है।

प्रिय पाठकों,.......इस उपन्यास मे  हम एसके प्रमुख पात्र, कथानक, कथासार, प्रमुख उद्धरण, विशेष तथ्य,एवं महत्वपूर्ण बिंदुओं को क्रमवार से समाहित किया गया,.

पात्र :- 

मुख्य पात्र :-

* शाह जी और शाहनी: - पति-पत्नी (मूलतः साहूकार)

- शाह जी डेरा जट्टा गाँव के साहूकार हैं। पुलिस, वकीलों एवं अपराधियों से इनका बराबर मेल रहता है और अवसर आने पर सबकी रक्षा करते हैं। साहूकारी में कुछ ढील बरतते हैं और ज़मीनों के मालिकाना हक के सवाल पर अकसर चुप्पी साधे रहते हैं। कहीं विद्रोह की आशंका होने पर उसे उचित ढील देकर स्थितियों पर नियंत्रण बना रहता है। शाह जी के मन में राबिया को लेकर प्रेम-स्फुरण होता है।

- शाहनी उदारमना साहूकारनी है। काफी दिनों तक इसको संतान नहीं होती। बाबा फरीद के डेरे पर यह मन्नत माँगने जाती हैं। तत्पश्चात उनको पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है।

* लाली शाह: - शाह जी का पुत्र

- लालीशाह शाहजी का इकलौता पुत्र है। उसे परंपरागत मदरसे में पढ़ाने के बजाय अंग्रेजी स्कूल में डाला जाता है।

* काशी शाह: - शाह जी के छोटे भाई

- काशी शाह संत स्वभाव के व्यक्ति हैं। वे साहूकारी को अपने लिये जंजाल मानते हैं। शाह जी उनको अकसर चेताते रहते हैं कि उनका संत स्वभाव साहूकारी के लिये अच्छा नहीं। काशीशाह आयुर्वेद के जानकार हैं और यदा-कदा जनता को मुफ्त में अपनी विद्या का लाभ कराते हैं। पंचायत या झगड़ा-निपटारे में इनकी बात सर्वस्वीकृत होती है।

* बिन्द्रादेई: - काशी शाह की पत्नी

- बिंद्रादेई हँसमुख किंतु पतिव्रता पत्नी है। वह शाहनी के साथ मिलकर प्रेमपूर्वक हवेली का कार्य संचालन करती है। उनकी खटपट न होने से हवेली का वातावरण पूर्ण सहयोगी दिखाई पड़ता है।

* गुरुदास और केशोलाल: - काशी शाह के पुत्र

* निक्की बेबे और लाला वड्डे :- लाला वड्डे एवं निक्की बेबे गाँव के बुजुर्ग हैं जिनको सारा गाँव आदर देता है और वे भी सारे गाँव को प्रेम करते हैं। लाला वड्डे गाँव के बच्चों को रात में कथा सुनाते हैं जिसके जरिये वे बच्चों को पंजाबी इतिहास एवं संस्कृति की शिक्षा देते हैं।

- निक्की बेबे गाँव के छोटे-छोटे बच्चों को प्रेम करती हैं और उनको कुछ न कुछ खाने की चीजें देती रहती हैं।

* चन्नमल्ल और भागमल्लः - लाला वड्डे के पुत्र

* निक्काः - चन्नमल्ल का पुत्र

* चाची महरी:- शाहनी की सहायिका और हवेली की बुजुर्ग

- चाची महरी के पहले पति दीदार सिंह की मृत्यु के पश्चात उसका गणपत शाह से दिल लग जाता है। वह उसके साथ भाग जाती है किंतु मामला अदालत में जाता है। वहाँ वह गणपत शाह का पक्ष लेती है और उसके साथ रहने लगती है। किंतु इसकी कोई संतान नहीं होती। वह अपने देवर साहिब सिंह को बहुत स्नेह करती है।

* दीदार सिंह: - चाची महरी का पहला पति

* गणपत शाह: - चाची महरी का दूसरा पति

* साहिब सिंह:- दीदार सिंह का भाई और चाची महरी का देवर

* संतो:- साहिब सिंह की पत्नी,

* बसंतो: - साहिब सिंह की बेटी

* मलकीयत सिंह:- दीदार सिंह का बड़ा भाई

* कुदरत कौर:- मलकीयत सिंह की पत्नी

* राबिया :- शाह जी पर आसक्त

- राबिया आलिया की पुत्री एवं फतेह की बहन है। राबिया तुक जोड़ती है अर्थात् कविता बनाती है। वह काफी होशियार एवं कुशल है। हवेली के काम धाम में हाथ बंटाती है। जब उसके विवाह की बात उठती है तो वह किसी अन्य से विवाह से इंकार कर देती है और शाह जी से अपना प्रेम व्यक्त करती है।

* फतेह :- राबिया की बहन

- फतेह आलिया की बड़ी पुत्री है। वह एक दिन गायब हो जाती है और शाह-बंधुओं एवं आलिया को नदी किनारे शेरे के संग केलि करते हुए पाई जाती है। तत्पश्चात उसका विवाह शेरे से कर दिया जाता है एवं दोनों प्रेमपूर्वक रहते हैं।

* शेरे:- फतेह का पति

* सलामत अली:- थानेदार

* मेहर अली: - जमीन पर अधिकारों को लेकर आक्रोशित युवा

- मेहर अली के जरिये जट्टों में जमीन के मालिकाना हक को लेकर आक्रोश की दबी चिंगारी दिखाई गई है।

* करम बीबी और बरखुरदार:- दादी-पोता

* शीरीं:- बरखुरदार की पत्नी

- करम बीबी का पोता बरखुरदार जेल से लौटकर आया है। वह शीरीं को सर्वगुणसम्पन्न पाकर उससे बरखुरदार के विवाह की इच्छा करती है। शीरीं के मन में भी बरखुरदार को लेकर आसक्ति होने से शांतिपूर्वक यह विवाह हो जाता है।

* हवेली के सहायक :- चन्ना, नवाबखां करतारो, माँबीबी, मोहम्मदीन, दिलबाग, हुसैना नाइन, बाबो मिरासन

गौण पात्र :-

* मौलवी साहब, चौधरी फतेह अली, सिकंदर वड़ैच, चौधरी मौलादाद, कर्मदीन, मौलवी कुर्बान अली, नजीब, जहाँदाद खां, साहिब खा. फौजी दोस्त, मौला दाद, रमज़ान नाई, कर्मइलाही, मैयासिंह, गुरदित्त सिंह, पटवारी ढोकलमल, लम्बरदार, गुलजारी, बाली, दिवान, राधू इल्मदीन, नजीबे, तारे शाह-बरकती, तुफैल सिंह, मिट्ठचंद-रूपचंद (जम्मू रियासत के सैनिक), लाह-बीबी, गंडासिंह (पेंशन प्राप्त फौजी), लौडे खां, कमाल, साई दित्ती, जमालो, सिकंदर, अलिया (राबिया का बाप)

* उपर्युक्त पात्र प्रत्येक शाम को हवेली पर इकट्ठे होते हैं और देर रात तक गप्पें मारते हैं जिनमें खालिस गप्प के अलावा पंजाब की तत्कालीन स्थिति, राजनीति इतिहास एवं संस्कृति पर भी चर्चा होती जाती है।

* बच्चे- मिट्ठी, मेहरबान, चन्नी, छन्नी, निक्की, घोलू, मोहरे, सुथरे, चोखे, शानो, कालू, जगतार, दीपो, भोलू

                           कथासार 

ज़िन्दगीनामा (1979 ई.) किसी एक समस्या को लेकर उसके इर्द-गिर्द बुना गया उपन्यास नहीं है बल्कि इस उपन्यास में एक गाँव के समग्र जीवन को चित्रित करने का प्रयास किया गया है। डेरा जट्टा नामक गाँव में 20वीं शताब्दी के आरंभिक बीस वर्षों के घटनाक्रम को व्यक्त किया गया है। हिंदुस्तान की उत्तर पश्चिमी ड्योढ़ी पर बसे पंचनद के देश पंजाब की जिंदादिली जुझारू रवैये को चित्रित किया गया है जिसने सदियों से विदेशी आक्रमणकारियों का डटकर मुकाबला किया। कृष्णा सोबती गाँव के कम संसाधनों वाले किंतु सुखी जीवन को उकेरने का सफल प्रयास करती नज़र आती हैं। तत्कालीन समाज की प्रमुख कुरीतियों एवं सामाजिक-आर्थिक समस्याओं की झलक भी उपन्यास में दिखाई पड़ती है। मुख्य कसक इस बात की है कि जो जट्ट खेती करते हैं, ज़मीनें उनकी नहीं हैं। उनको अपनी उपज का एक बड़ा हिस्सा साहूकारों को दे देना पड़ता है। साहूकार कुछ करते नहीं हैं, सिर्फ जमीन होने के कारण उनकी उपज का सबसे बड़ा हिस्सा ले लेते हैं। जमीन के मालिकाना हक को लेकर ज‌ट्टों में सुलग रही आग की झलक उपन्यास में यत्र-तत्र दिखाई देती है। सूदखोरों के चंगुल में फँसे गरीब-गुरबों की बेबसी दिखाई देती है। गरीब साहूकार से खेती या विवाह या बीमारी आदि के लिये कर्ज लेते हैं और वे तो उसका ब्याज चुकाते ही हैं, उनके बच्चे भी चुकाते हैं और उनके पोते भी चुकाते हैं, किंतु सूद नहीं निपटता। गरीबों को मानसिक रूप से नियंत्रण में रखने के लिये सूदखोरी साहूकारों का हथियार नज़र आता है। कहीं-कहीं विद्रोह उपजने की आशंका होने पर साहूकार उदारता दिखाकर कुछ ढील दे देते हैं। गाँव में छोटी-छोटी बात पर कत्ल हो जाते हैं। उपन्यास को पढ़ते हुए यह लगता है कि मानो पंजाबी जन-जीवन को बहुत महत्त्व नहीं देता। साहूकार वगैरह नियमित रूप से मुकदमेबाज़ी में उलझे रहते हैं। प्रथम विश्व युद्ध में गाँव के मुखिया वगैरह उत्साहपूर्वक बड़ी संख्या में जवानों को सेना में भर्ती कराते हैं। कुछ जवान तो जोश में और कुछ मुरब्बे के लालच में सेना में भर्ती हो जाते हैं। गाँव में प्रेम-विवाह को लेकर काफी लचीलापन नज़र आता है एवं ऐसे विवाहों में जाति को प्रमुखता नहीं दी जाती। शादी-ब्याह एवं त्योहारों में लोगों की सामूहिकता एवं सहयोग भावना बड़े प्रखर रूप में दिखाई पड़ती है।

* जिंदगीनामा उपन्यास में पंजाब के डेरा जट्ट्टा गाँव के 20वीं सदी के शुरुआती 20 वर्षों की कथा कही गयी है।

* छोटे-छोटे चित्र बिम्बों द्वारा उपन्यास में पंजाब के जीवन के दृश्य उकेरे गए हैं।

* उपन्यास में कोई एक प्रमुख पात्र न होकर पूरे जन-जीवन का चित्रण किया गया है।

* जिंदगीनामा उपन्यास के लिये कृष्णा सोबती को 1980 का साहित्य अकादमी अवार्ड प्राप्त हुआ।

* उपन्यास में प्रथम विश्वयुद्ध और बंगाल विभाजन के बाद हुए हिन्दू - मुस्लिम दंगों का जिक्र किया गया है।

* उपन्यास में अजीत सिंह, लाला लाजपत राय और महात्मा गांधी का ज़िक्र प्राप्त होता है।

* जमीन को लेकर जट्टों के आक्रोश के संकेत भी मिलते हैं।

                      प्रमुख उद्धरण 

* "यह एक ऐसा इतिहास है जो लोक मानस की भागीरथी के साथ बहता, पनपता और फैलता है और जन सामान्य के सांस्कृतिक पुख्तापन में जिंदा रहता है।"

नोटः इस उपन्यास की शुरुआत कविताओं से होती है। इन कविताओं के माध्यम से इस उपन्यास की संवेदना की मुकम्मल तस्वीर उभरती है।

* “जब दूसरे सब रास्ते कारगर, न हो सकें तो जुल्म के खिलाफ तलवार उठा लेना जायज है।"

- श्री गुरु गोबिंद सिंह जी

* "इतिहास/जो नहीं है/और इतिहास/जो है 

   वह नहीं/जो हुकूमतों की 

   तख्तगाहों में/प्रमाणों और सबूतों के साथ 

   ऐतिहासिक खातों में दर्ज कर

   सुरक्षित कर दिया जाता है,

   बल्कि वह जो लोकमानस की 

   भागीरथी के साथ-साथ बहता है 

  पनपता और फैलता है और जन सामान्य के

  सांस्कृतिक पुख्तापन में/जिन्दा रहता है।"

* "गलबहियों-सी/उमड़ती, मचलती 

   दूधभरी छातियों-सी/चनाब और जेहलम की धरती"

* "जहाँ का हर मेहनतकश बादशाह

  अपने सिर के साफ़े को 

 अपना ताज समझ सँभालता रहा 

 और अपने खेतों को अपना रिजक समझ सत्कारता रहा। 

 ऐसे भागीभरे/भरे-पूरे पंजाब की धरती पर 

 जहर की काँगें घिर आई। 

 देखते-देखते लाखों कदमों के हुजूम उठ धाए। 

 चढ़ाइयाँ/बहुत बार हुई बहुत बार हमलावरों से सामने। 

 बहुत बार राज-पाट बदले पर चौड़े सीनेवालों ने 

 कड़े जिगरेवालों ने कभी हौसेले नहीं गँवाए। 

 मरने और मारने से खौफ़ नहीं खोए पर आज ?... 

 क्या सूरमाओं के सिक्के बदल गए?"

 * "अब हमें बिछुड़ जाना है 

  अपनी धरती से अपनी माँ से

 माँ की माँ से और हम सबकी माँ से ! 

 इसकी मिट्ठड़ी ओट से छाँह से। 

 इसकी दूध-भरी छातियों से अब दूध नहीं/खून टपकता है।" 

 "जिसने/हाड़-माँस के इन्सानों में 

  मेहनत करने और जिन्दगी को 

 जी भर-भर प्यार करने की

 ललक जगाई थी/ली लगाई थी।

अलविदा/आवों के आब को

पंज दरियाओं के पंजाब को

जेहलम और चनाब को।

अलविदा/अपने पुरखों की याद को" • "कौन जानेगा/कौन समझेगा

अपने वतनों को छोड़ने

और उनसे मुँह मोड़ने के ददों को पीड़ों को!"

* "हम यहाँ नहीं होंगे। नहीं होंगे, 

   फिर कभी नहीं होंगे, नहीं।"

* "हर बंदा अपने पिता का अवतार है। याद रखो। अवतार वह जिसके दो हाथ हैं। अवतार वह जिसके दो पाँव हैं। अवतार वह जिसका मुँह-माथा है। धड़ है। आगा है। पीछा है। मेरे बच्चो, अवतार वह जो धरती हल से जोतकर पानी से सींचता है। तृप्त करता है। बीज बोता है। फ़सलें उगाता है।"

- लालजी कथावाचक

* "बच्चो, जुग चार होते हैं: 

सोता हुआ कलजुग छोड़ता हुआ द्वापर 

खड़ा हुआ और त्रेता और/चलता हुआ सतजुग।"

* "पुत्तरजी, जुग समय के चक्कों पर चलते हैं। गाड़ी में सिर्फ़ यात्रा होती है। सफ़र होता है। भला किसी ने देखी है गड्डी!"

* "याद रखो, सूरज सारी दुनिया, लोक-परलोक, ऊपर-थल्ले में, धरती-आकाश में सबसे बड़ा है। वह सच्ची-मुच्ची का महाराज है। ब्रह्मांड का सरताज सम्राट है।"

* "रूँई बिन पिंजन कैसा चरखे बिन त्रिंजन कैसा!"

* "कुदरते-खुदावन्दी का यक़ीन दिलाने के लिये मूसा ने बड़े-बड़े मोजज्ञे दिखाए। आसमानों को कैसा बुलंद और बाआब बनाया। सूरज के जरिए रात और दिन की तारीक़ी और रोशनी का इन्तजाम किया। सतह जमीन को बिछाकर इस पर पहाड़ कायम किए। आसमान से पानी बरसाया और जमीन में सब्ज़ा उगाया। सतह जमीन की अगर एक वसीह फ़र्श से मिसाल दी जाए तो इस पर पहाड़ों को ऐसा समझा जाएगा कि गोया फर्श को अपनी जगह रखने के लिये मेखें गाड़ दी हों। आसमानों की हकीकत ख़्वा कुछ भी समझी जाए, मगर उनके वजूद और उनकी मज़बूती में किसी को शक़ नहीं। आसमानों की हर एक चीज अपनी मुकर्रा जगह के अंदर निहायत मजबूती से क़ायम है।"

* "पुलिस का काम रास्ता भूलना नहीं, रास्ता ढूँढ़ना है।"

* "कहने का मतलब यह कि शहंशाह सुल्तान बदले, बादशाहतें बदलीं, हकूमतें बदलीं, पर मुंढ़ो, न बदलीं मुल्कों की खलकतें! क्यों चौधरीजी!"

* "फ़तेहअलीजी भी पीछे न रहे- "बराबर जी। ख़लकतें तो मुल्कों की शहंशाहों के कोहेनूरी ताजों से भी बड़ी हुई न! सोचने की बात है। शहंशाह ताज पहन के तख्त पर बैठ जाए हकूमत करने को और सामने रिआया-खलकत न हो तो निरा स्वाँग ही हो गया न मिरासी का!"

* गंडासिंह अनसुनी कर आगे बढ़ गए - "अख़बार यह कहती है. अखबार वह कहती है। ओए, सरकार से भी बड़ी हो गई ये बक्क-बक्कोनियाँ कुत्तेखानियाँ अखबारें। हकूमत के सिर चढ़ बैठा स्याही-चूस छापाखाना।"

* शाहजी बोले- "चौधरीजी, मालिया उगराहने के लिये खालसा सरकार फ़सलों पर बोली लगवाती थी। पकी फ़सलें खड़ी हैं खेतों में और सरकार ने बोली लगवाकर नीलाम करवा दीं। जो सबसे ऊँची बोली दे, वह मामला इक‌ट्ठा कर सरकारी खजाने पहुँचा दे। राज के लिये हिसाब-किताब जिवियों-फसलों का भी वही रख। बोली से उगराही ज्यादा हो गई सो अपनी।"

* काशीशाह इत्मीनान से चारपाई पर बैठ गए और लाली ने दोनों हाथ सीधे रख राबयाँ की ओर देखा और शुरू कर लिया - "रियाया जड है और बादशाह दरख़्त।

"जब नौशेरवाँ का आखीरी वक्त आया तब उसने अपने बेटे हुरमुज से कहा- 'बेटा, दिल से फ़कीरों-दरवेशों की हिफ़ाज़त कर। अपने आराम की फ़िक्र न रख। कोई भी अक्लमंद यह पसंद न करेगा कि चरवाहा पड़ा सोता हो और भेड़िया उसके गोल में रहे। होशियारी से दरवेशों-मुहताज़ों का ख़्याल रख। इसलिये कि रियाया की बदौलत ही बादशाह ताजदार होता है। रियाया जड़ की तरह है और बादशाह दरख़्त की तरह और दरख़्त जड़ से ही मज़बूत होता है। ऐ मेरे प्यारे बेटे, जहाँ तक बन सके, रियाया का दिल मत दुखाना और अगर तू ऐसा करेगा तो अपनी जड़ खोदेगा। बेटा, अगर तुझे नेक राह की ज़रूरत है तो तेरे सामने फ़कीरों परहेजगारों का रास्ता खुला पड़ा है। जिसे यह ख़ौफ़ है कि वह खुद तक़लीफ़ न उठाए, उसे भला दूसरों का नुक़सान क्यों पसंद आएगा और अगर उसकी तबीयत में यह आदत नहीं है तो उसके मुल्क़ में अमन-चैन की बू भी नहीं है। अगर तू क़ानून-क़ायदे से मजबूर है तो खुशी इख़्तियार कर और अगर तन्हा है, पाक़-साफ़ है तो अपना रास्ता ले। उस मुल्क़ में खुशहाली की उम्मीद न रख जिसमें बादशाह-रियाया एक-दूसरे से नाराज हैं। ख़्वाब में मुल्क़ को आबाद वही देखता है जो लोगों के दिल गुलज़ार रखता है। जुल्म से ख़राबी-बदनामी होती है। जुल्म के ज़रिये रियाया को तबाह करना ठीक नहीं है। इसलिये कि वही हकूमत को पनाह देनेवाली है।"

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