मानस का हंस (अमृतलाल नागर) - 1972 ई. - हिन्दी उपन्यास || maanas ka hans (amrtalaal naagar)
मानस का हंस (अमृतलाल नागर) - 1972 ई.
भक्ति काल के लगभग सभी महत्त्वपूर्ण कवियों के जीवन के विषय में प्रामाणिक जानकारियों का अभाव है, ऐसे में इस उपन्यास के लेखक ने उपलब्ध जानकारियों तथा कदाचित् अपनी कल्पना का मिश्रण कर तुलसी के जीवन का चित्रण किया है। सन् 1972 ई. में प्रकाशित इस उपन्यास में लेखक ने रामबोला से तुलसी तक की यात्रा को जिस तरह प्रस्तुत किया है उससे तत्कालीन समाज एवं संस्कृति तथा उनके बीच एक महाकवि का जीवन तमाम द्वंद्वों एवं अंतर्विरोधों के बीच उभरकर सामने आता है। उपन्यासकार ने तुलसी की महत्त्वपूर्ण रचनाओं की रचना प्रक्रिया को भी इस उपन्यास के माध्यम से समझने का प्रयास किया है।
पात्र
मुख्य पात्र
* तुलसीदास : - केंद्रीय पात्र (बचपन का नाम रामबोला)
* हुलसी : - तुलसी को जन्म देने वाली माँ
* पार्वती :- तुलसी का लालन-पालन करने वाली महिला
* नरहरि बाबा: - तुलसी के गुरु व अभिभावक
* मोहिनी :- एक वृद्ध कोतवाल की बेटी जिस पर तुलसी आसक्त थे
* रत्नावली :- पंडित दीनबंधु पाठक की पुत्री, तुलसी की पत्नी
* शेष सनातनः - तुलसी के गुरु
* टोडर, जयराम साह, गंगाराम, कैलाश, मेघा भगत : - तुलसी के मित्र एवं भक्त
* गंगेश्वर :- तुलसी के साले;
* तारापतिः - तुलसी का पुत्र
* रामकली :- तुलसी की सेविका
* रामू द्विवेदी व संत बेनी माधवदासः - तुलसी के शिष्य
* वैदेहीबल्लभ, रविदत्त, बटेश्वर दत्तः - तुलसी से ईर्ष्या करने वाले लोग; मैना कहारिन; बकरीदी कक्का
गौण पात्र
* नंददास, दीनबंधु पाठक, हुमायूँ, अकबर, जहाँगीर, शेरशाह, हेमचंद्र, रहीम, आत्माराम, मधुसूदन, सरस्वती, मुनिया, गेंदिया, छबिली, चम्मो, सहुआइन, राजकुँवरी, खतरानी, रामू की सास, आई (गुरु-पत्नी), श्यामो की बुआ, मोहिनी, मोहिनी की अम्मा, गंगेश्वर की पत्नी, राजा भगत, रामदत्त, शिवदिन, सुदर्शन, अहमद खाँ, अब्दुल्ला बेग, आगानूर, मदगची बेग, रघुमल, उस्मान खाँ, बटुक प्रसाद, पुत्तन पंडित, महंतजी, मंगलू, हिरदै अहीर, करीम खाँ, रामलोचन शरणदास, मामा जी गणपति उपाध्याय आदि।
कथासार
* मानस का हंस उपन्यास की कथा कुल 31 अंकों में विभाजित है। कथा का आरंभ मुगलों द्वारा की जा रही लूटपाट से होता है। जहाँ बाँदा जिले के विक्रमपुर गाँव में तुलसीदास का जन्म 1589 वि. (1532 ई.) में होता है। तुलसीदास के जन्म से ही 32 दाँत थे और जन्म लेते ही मुख से राम-राम बोलने लगे थे। इसलिये इनका नाम रामबोला रखा गया। इनके पिता आत्माराम दुबे थे, जो एक प्रसिद्ध ज्योतिषी थे। इनकी माता का नाम हुलसी था जो इनको जन्म देते ही इस संसार को छोड़ गई। जिस कारण इनके पिता ने अशुभ मान कर इनको अपनी दासी मुनिया की सास को दे दिया। रामबोला उन्हें पार्वती अम्मा कहता था। कुछ दिनों बाद पार्वती अम्मा का भी स्वंगवास हो गया। फिर यह भटकते-भटकते सूकर क्षेत्र (गोंडा) पहुँच गए वहाँ इन्हें साधु नरहरिदास मिले। उन्होंने इनका संस्कार करवाया और ज्यों ही इन्होंने श्री राम की मूर्ति के आगे प्रणाम करने के लिये सिर झुकाया त्यों ही एक तुलसी का पत्ता इनके सर पर आ गिरा। तभी नरहरिदास ने इनका नाम तुलसीदास रख दिया। फिर तुलसीदास काशी चले गए जहाँ उन्होंने शेष सनातन नामक विद्वान से शिक्षा प्राप्त की और वहीं इन्होंने हनुमान चालीसा की रचना की। कुछ ही दिनों में तुलसीदास प्रसिद्ध कथावाचक हो गए।
* तुलसीदास वापस अपने गाँव विक्रमपुर जाकर कथा करने लगे। एक बार तुलसीदास की लोकप्रियता को जानकर पंडित दीनबंधु पाठक नामक विद्वान ने तुलसीदास को अपने गाँव में कथा कहने के लिये बुलाया। तुलसीदास उन्हीं के घर पर रुके थे जहाँ इन्हें उनकी पुत्री रत्नावली से प्रेम हो जाता है, बाद में उन्हीं से इनका विवाह होता है। तुलसीदास विवाह के बाद पुनः बनारस आ जाते हैं। एक दिन चारिश में भौगकर तुलसी साँप के सहारे पत्नी से मिलने ससुराल की छत पर पहुँच जाते हैं जहाँ पत्नी के दुतकारने पर इनके मन में वैराग्य आ जाता है और यह सबकुछ छोड़कर चित्रकूट चले जाते हैं। वहाँ इन्हें पता चलता है कि इनका पुत्र जिसका नाम तारापति था. उसकी मृत्यु हो गयी। फिर भी ये घर वापस नहीं जाते है। सीता भाँ की प्रेरणा से तुलसीदास अयोध्या जाते हैं जहाँ वो रामचरितमानस की रचना करना शुरू करते हैं। लेकिन वहाँ भी बढ़ती लोकप्रियता से द्वेष के कारण इन्हें पुनः बनारस आना पड़ता है जहाँ इनके मित्र गंगाराम और टोडरमल इनके रहने की स्थायी व्यवस्था करवा देते हैं। काशी में अनेक विरोधों के बावजूद इन्होंने 2 वर्ष 7 महीना 26 दिन में रामचरितमानस पूरा किया। तभी उनके मित्र रहीम उनसे राजाश्रय ग्रहण करने की बात करते हैं, लेकिन तुलसीदास अस्वीकार करते हैं।
* तभी काशी में भयानक महामारी फैलती है जिससे तुलसीदास लोगों को बचाने का प्रयास करते हैं। इसी समय वो कवितावली की रचना करते हैं जिसमें कलिकाल का वर्णन करते हैं। अपने बाहु रोग की पीड़ा को दूर करने के लिये वो हनुमान बाहुक की रचना करते हैं. अंत में वे गंभीर रूप से बीमार हो जाते हैं और अपने शिष्यों राम बेनीमाधवदास, कैलास आदि के बीच 1680 वि. (1623 ई.) को सदा-सदा के लिये राम में विलीन हो जाते हैं।
प्रमुख उद्धरण
* "गत वर्ष अपने चिरंजीवी भतीजों (स्व. रतन के पुत्रों) के यज्ञोपवीत संस्कार के अवसर पर बम्बई गया था। वहीं एक दिन अपने परम मित्र फिल्म निर्माता-निर्देशक स्व. महेश कौल के साथ बातें करते हुए सहसा इस उपन्यास को लिखने का संकल्प मेरे मन में जागा।"
- आमुख से
* "यह सच है कि गोसाई जी की सही जीवन-कथा नहीं मिलती। यों कहने को तो रघुवरदास, वेणीमाधवदास, कृष्णदत्त मिश्र, अविनाशराय और संत तुलसी साहब के लिखे गोसाईं जी के पाँच जीवनचरित हैं। किंतु विद्वानों के मतानुसार वे प्रामाणिक नहीं माने जा सकते।"
- आमुख से
* "कवितावली', 'हनुमानबाहुक' और 'विनयपत्रिका' आदि रचनाओं में तुलसी के संघर्षों-भरे जीवन की ऐसी झलक मिलती है कि जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।"
*"खैर, तभी यह भी जाना कि रामलीला कराने से पहले गोसाई जी ने बनारस में नागनथैयालीला प्रह्लादलीला और ध्रुवलीलाएँ भी कराई थीं। इनमें ध्रुवलीला को छोड़कर बाकी लीलाएँ आज तक बराबर होती हैं। यह तीनों लीलाएँ किशोरों और नवयुवकों से संबंधित है।"
- आमुख से
* "समाज संगठन कर्ता की हैसियत से सभी को कुछ न कुछ व्यावहारिक समझौते भी करने पड़ते हैं, तुलसी और हमारे समय में गांधी जी ने भी वर्णाश्रमियों से कुछ समझौते किये पर उनके बावजूद इनका जनवादी दृष्टिकोण स्पष्ट है। तुलसी ने वर्णाश्रम धर्म का पोषण भले किया हो पर संस्कारहीन, कुकर्मी ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि को लताड़ने में वे किसी से पीछे नहीं रहे। तुलसी का जीवन संघर्ष, विद्रोह और समर्पणभरा है। इस दृष्टि से यह अब भी प्रेरणादायक है।"
- आमुख से
* "इस उपन्यास को लिखने से पहले मैंने 'कवितावली' और 'विनयपत्रिका' को खास तौर से पढ़ा। 'विनयपत्रिका' में तुलसी के अंतर्संघर्ष के ऐसे अनमोल क्षण सँजोए हुए हैं कि उसके अनुसार ही तुलसी के मनोव्यक्तित्व का ढांचा खड़ा करना मुझे श्रेयस्कर लगा। 'रामचरितमानस' की पृष्ठभूमि में मानसकार की मनोछवि निहारने में भी मुझे 'पत्रिका' के तुलसी ही से सहायता मिली। 'कवितावली' और 'हनुमानबाहुक' में खास तौर से, और 'दोहावली' तथा 'गीतावली' में कहीं-कहीं तुलसी की जीवन-झांकी मिलती है। मैंने गोसाई जी से संबंधित अगणित किंवदंतियों में से केवल उन्हीं को अपने उपन्यास के लिये स्वीकारा जो कि इस मानसिक ढाँचे पर चढ़ सकती थीं।"
- आमुख से
* "तुलसी के जन्म स्थान तथा सूकरखेत बनाम सोरों विवाद में दखलंदाजी करने की जुरअत करने की नीयत न रखते हुए भी किस्सागो की हैसियत से मुझे इन बातों के संबंध में अपने मन का ऊँट किसी करवट बैठाना ही था। चूँकि स्व. डॉ. माताप्रसाद गुप्त और डॉ. उदयभानु सिंह के तकों से प्रभावित हुआ इसलिये मैंने राजापुर को ही जन्म-स्थान के रूप में चित्रित किया है।"
- आमुख से
* "उपन्यास में एक जगह मैंने नवयुवक तुलसी और काशी की एक वेश्या का असफल प्रेम चित्रित किया है। वह प्रसंग शायद किसी तुलसी-भक्त को चिढ़ा सकता है लेकिन ऐसा करना मेरा उद्देश्य नहीं है।"
- आमुख से
* ""मृगनयनी के नयन सर, को अस लागि न जाहि' उक्ति भी गवाही देती है कि नौजवानी में वे किसी के तीरे-नीमकश से बिंधे होंगे। नासमझ जवानी में काशी निवासी विद्यार्थी तुलसी का किसी ऐसे दौर से गुजरना अनहोनी बात भी नहीं है।"
- आमुख से
* "संत बेनीमाधवदास के संबंध में भी एक सफाई देना आवश्यक है। संत जी 'मूल गोसाई चरित' के लेखक माने जाते हैं। उनकी किताब के बारे में भले ही शक-शुब्हे हों, मुझे तो अपने कथा-सूत्र के लिये तुलसी का एक जीवनी लेखक एक पात्र के रूप में लेना अभीष्ट था, इसलिये कोई काल्पनिक नाम न रखकर संत जी का नाम रख लिया। तुलसी के माता, पिता, पत्नी, ससुर आदि के प्रचलित नामों का प्रयोग करना ही मुझे अच्छा लगा।"
- आमुख से
* "यह उपन्यास 4 जून सन् 1971 ई. को तुलसी स्मारक भवन, अयोध्या में लिखना आरंभ करके 23 मार्च 172, रामनवमी के दिन लखनऊ में पूरा किया। चि. भगवंतप्रसाद पाण्डेय ने मेरे लिपिक का काम किया।"
- आमुख से
* "डॉ. मोतीचंन्द्र लिखित 'काशी का इतिहास' तथा राहुल सांकृत्यायन लिखित 'अकबर' पुस्तकों ने ऐतिहासिक पृष्ठभूमि संजोने में तथा स्व. डॉ. माताप्रसाद गुप्त की 'तुलसीदास' और डॉ. उदयभानु सिंह कृत 'तुलसी काव्य मीमाँसा' ने कथानक का ढाँचा बनाने में बड़ी सहायता दी।"
- आमुख से
* "बादल ऐसे गरज रहे हैं मानो सर्वग्रासिनी काम क्षुधा किसी संत के अंतर आलोक को निगलकर दम्भ-भरी डकारें ले रही हो। बौछारें पछतावे के तारों-सी सनसना रही हैं।... बीच-बीच में बिजली भी वैसे ही चमक उठती है जैसे कामी के मन में क्षण भर के लिये भक्तिं चमक उठती है।"
* "परम संत महाकवि गोस्वामी तुलसीदास उनसठ वर्षों के बाद अपने घर की देहरी पर चढ़ रहे थे। उनका सौम्य शांत-तेजस्वी मुख इस समय अपने औसत से कुछ अधिक गम्भीर था। उनके पीछे भीड़ भी भीतर आने लगी। चेहरे पर भीनी मुस्कान के साथ उनका कमंडलु वाला हाथ ऊपर उठा, अँगूठे और तर्जनी के घेरे में कमंडलु अटका था और तीन उंगलियाँ ठहरने का आदेश देते हुए खड़ी थीं।"
*"रामू द्विवेदी ने बड़े ही सुरीले और मधुर ढंग से गाना आरंभ किया- ऐसो को उदार जग माँही। बिन सेवा जो द्रवै दीन पै राम सरिस कोउ नाहीं।...,
* "राम शब्द का 'रा' मात्र सुनते ही उनका मुखमंडल खिल उठा। धीरे-धीरे ताली बजाते हुए उन्होंने आँखें मूँद लीं। ध्यान-पट की श्यामता मन की तेज़ी से सिमटकर बीच में आने लगी। ध्यान-पट अरुण-पीत हो गया, जैसे किसी रंगमंच की काली जवनिका उठा दी गई हो।"
* “हाँ जब पाला है तो जो चाहे समझो। बाकी ब्राह्मन पण्डित का पूत है। इसके जनमते ही इसकी महतारी मर गई। बाप बड़े जोतसी रहे तो पत्रा विचार के बोले कि इसे घर से निकालो, यहाँ रहेगा तो सबका जिउ लेगा। हमारी पतौह उनके हियाँ टहल करती रही तो वह हमें दे गई। हम कहा कि हमें मरे-जिए की चिन्ता नहीं, अभागी वैसे ही हैं, पाल देंगे। बुढ़ापा काटने का एक बहाना मिल गया।"
- पार्वती, कुलवधू से
* "शिशु भिक्षुक रामबोला फिर एक द्वार पर गा रहा था-
हम भक्तन के भक्त हमारे
सुन अर्जुन परतिग्या मेरी यह व्रत रत न टारे ।
टरत न टारे...टरत न टारे-रे-रे..."
* "हम छोटे-से रहे तो हमारा सिर बहुत पिराता था। पार्वती अम्माँ ऐसे ही दबाती थीं। वह अमृतरस आज फिर पाया। राम तुम्हारा भला करें। हमारी पार्वती अम्माँ साक्षात् पार्वती जी रहीं। उनकी बड़ी याद आती है।"
- बाबा, भगत से
* "गंगा और अस्सी के संगम पर घाट के ऊपर एक पक्की इमारत बनी थी। उसके पहले एक अखाड़ा भी था जिसके ऊपर छप्पर छाया हुआ था और कई बालक, युवक और प्रौढ़ लोग वहाँ डण्ड बैठकें लगाते, मुग्द घुमाते अथवा मालिश करवाते या फिर अखाड़े में कुश्ती लड़ते दिखलाई पड़ रहे थे। घाट पर भी थोड़ी-बहुत भीड़-भाड़ थी।"
* "वह अपनी चटाई पर बिछी हुई कथरी पर बैठ गया। मिट्टी की दवात और सरकंडे की कलम सामने रख ली। कागज उठा लिया और लिखना आरंभ किया - 'जै हनुमान ज्ञान गुन सागर। जै कपीस तिहुँ लोक उजागर'।।
* मध्य रात्रि तक हनुमान चालीसा पूरी की। तुलसी ने अपने अब तक के जीवन में यह पहला लम्बा काव्य रचा था। वह बड़ा ही मगन था। जोश में आकर उसने दो-तीन बार अपने चालीसा काव्य को पढ़ा। दो-एक जगह संशोधन भी किये, फिर ऐसे सुख से टाँगें पसारकर सोया मानो उसने कोई बड़ी भारी दिग्विजय कर ली हो।"
* "विवेकी तुलसी समझता है, 'वह कोतवाल की चहेती है। उससे आँख लड़ाओगे तो कोड़े बरसेंगे कोड़े। दुनिया तब तेरे मुँह पर थूकेगी। तेरी यह सारी धोखाधड़ी लोक उजागर हो जायेगी। सुनकर विरही तुलसी का विद्रोह ठिठक गया। लोहे की मोटी सांकल में फंसे हुए पैर वाला जंगली गजराज बरगद के मोटे तने से बँधी अपनी जंजीर को तोड़ने के लिये रात-भर मचलता रहा 'अब कल से वहाँ नहीं जाऊँगा। नहीं जाऊँगा। नहीं जाऊँगा।"
* "कुरुक्षेत्र में उन दिनों बड़ा भीषण अकाल पड़ रहा था। दिल्ली, आगरा, मथुरा आदि सभी जगह प्रजा त्राहि-त्राहि कर रही थी। खेतीविहीन उजड़ा भूखंड, रूखी काया, फीके कष्ट और चेहरों की कंकालवत् कायाएँ इधर-उधर डोलती थीं। इन्हें देखकर लोग घेरते - "बाबा भूखे हैं, बाबा रोटी। रोटी।"
* "वाल्मीकीय रामायण कथा का श्रीगणेश हुआ। तुलसीदास जी का कथा कहने का ढंग ही निराला था। वे पण्डित समाज को अपनी विद्या और जन साधारण को अपने भक्ति रस के चमत्कार से एक-सा बाँधते थे। बीच-बीच में अपनी रची हुई भाषा की कविताएँ भी पढ़ने लगते तो सभा में समाँ-सा बँध जाता था। भाषा में चमत्कार, कण्ठ मधुर और सुरीला तथा इन सबके ऊपर सोने में सुहागे जैसा उनका सुंदर रूप और बलिष्ठ काया भी देखने वालों पर अपना प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहती थी। यों भी तुलसीदास आज कुछ अधिक उमंग में थे। अपनी भावुकता में वे यह मानते थे कि पाठक जी को सुनाकर वे मानो अपने पिता को ही रामायण सुना रहे हों। वे अपनी कथावाचन कला का सारा निखार मानो आज ही दर्शा देना चाहते थे। ऐसे तन्मय होकर उन्होंने कथा बाँची कि निर्धारित पाठ पूरा होने पर अपनी वाणी के मौन से वे स्वयं ही सन्नाटे में आ गए।"
* "मेरा अहंकार ही मुझे निर्बुद्ध बनाता था। बचपन में मैंने अपने बप्पा के क्रोध, प्यार और रीझ भरे क्षणों में अनेक अवसरों पर सुना कि यदि मैं लड़का होती तो इस घर की गद्दी कभी सूनी न होती। उनकी इस बात ने मेरे मन में लड़कों के लिये, विशेष रूप से उस लड़के लिये, जो मेरा पति बनकर इस घर से मुझे निकालकर ले जाएगा, एक अनोखी चिढ़ भर दी थी। तुम्हें पाकर मैं रीझी अवश्य, पर जब किसी प्रसंगवश वह चुभन चुभ जाती थी तो मैं सहसा निर्बुद्ध हो उठती थी।"
- रत्नावली, बाबा तुलसीदास से
* "बाबा की चमत्कारिक नीरोगता और उससे भी अधिक उनकी कृपा से उनके प्रबल शत्रु रविदत्त तांत्रिक का मृत्यु के मुख में जाकर भी सकुशल बाहर निकल आने की बात दूसरे ही दिन काशी के बच्चे बच्चे की जबान पर चमत्कारिक अतिशयोक्तियों के नगीनों से अड़कर फैल चुकी थी। बाबा के दर्शनों के लिये भक्तों का ताँता-सा लग गया।"
* "राम की सास का प्रतिदिन आना बेनीमाधव के जीवन में एक नए सधाव का कारण बना। जिस स्त्री के प्रति उनका मनोविकार जागा था वह एक तो ऊँचे दर्ज की चरित्रवान थी और दूसरे उन्हें बाबा की पैनी अंतर्दृष्टि का भय भी सताता था। भय से राम-प्रीति जागी। स्त्री-मोह दबने लगा। गुरु जी अपनी समधिन का इतना मान करते थे कि बेनीमाधव के मन में भी उनके प्रति आदरभाव बढ़ने लगा था।"
* "कल्पना का दृश्य ओझल हो जाता है। वृक्ष की परिक्रमा कर फिर वटवृक्ष को देखने लगे। लटकती हुई बरगद की जटाओं ने उनकी कल्पना को फिर स्फूर्त किया। वटवृक्ष उन्हें जटाजूटधारी शिव जी के रूप में दिखाई दिया।
* मरकत बरन परन, फल मानिक-से,
लसै जटाजूट जनु रूखवेष हरु है।
सुषमा को ढेर कैधौं, सुकृत-सुमेरु कैधौं,
संपदा सकल मुद मंगल को घरु है।
देत अभिमत जो समेत प्रीति सेइये,
प्रतीति मानि तुलसी, बिचारि काकौ थरु है ।।
सुरसरि निकट सुहावनी अवनि सोहै,
रामरमनी को बटु कलि कामतरु है ।।"
* पण्डितों की यह बातें होने के तीसरे ही दिन गेंदा तुलसीदास की प्रवचन सभा में पहुँच गई। राम जानकी के विवाह का वर्णन सुनते हुए सभा तन्मय हो रही थी। एकाएक गेंदिया आगे की पंक्ति में धंसकर हाथ बढ़ाकर बोली- "अरे वाह रे मुरदुए, हमें (अपने बढ़े हुए पेट की ओर संकेत करके) इस झमेले में डालकर यहां बैठे भगतबाजी कर रहे हो ? वाह रे ढोंगी, वाह ।"
* "काव्य तेजी से गतिमान था। अयोध्या में ऋद्धि-सिद्धि भरे सुखद दिन बीतने लगे। राजा दशरथ के दरबार की रौनक चौगुनी हो गई। भरत जी और शत्रुघ्न जी अपने मामा के साथ अपनी ननिहाल कैकय देश की सैर को चले गए। तभी एक दिन राजा दशरथ ने अपने कान के पास पके हुए केश को देखा। तुरंत ही उन्होंने राम को युवराज पद देने का निश्चय कर लिया। प्रजा में यह समाचार सुनकर आनन्द छा गया। रनिवास में रामचन्द्र की तीनों माताएँ हर्ष और उछाह में भर कंचन थाल भर-भर मोती-मानिक लुटाने लगीं। गुरु वशिष्ठ ने तिलक की लगन शोधी।... काव्यगंगा मंथर गति से बह रही थी।"
* "जैराम साहु और कैलास दोनों ही तन्मय होकर तुलसीदास की बातें सुन रहे थे, उनके स्वर के उतार-चढ़ाव उनकी शांत गम्भीर उत्तेजना के बहाव को देख रहे थे। बात समाप्त होने पर कैलास तुलसी के पैर छूने के लिये आगे बढ़े।"
"है है. ये क्या करते हो जी?" के उत्तर में तुलसी के हाथों से अपना हाथ छुड़ाकर पैर छूने का हठ ठानते हुए श्रद्धा विगलित स्वर में कहा- "तुम हमारे मित्र भले हो पर तुम सचमुच महान आत्मा हो। तुम्हारी कथनी और करनी में भेद नहीं है। यह सबसे बड़ी बात है। भगत जी बैठे-बैठे तो जीवमात्र को अपने कलेजे का बूंद-बूंद भाव अर्पित कर देंगे, पर कहो कि उठकर जाएँ तो नहीं। तुम्हारी तरह गली-गली डोलना उन्हें एक अप्रतिष्ठित कार्य लगता है।" अपनी बात कहते-कहते उत्तेजनावश कैलास जी तुलसी के पैर छूने का स्वयं अपना ही आग्रह विसार कर सीधे खड़े हो गए। उनकी बाँहें छोड़कर तुलसी ने मुस्कुराकर कहा "देखो, कैलास, मनुष्य अपनी सामर्थ्य के अनुसार ही आगे बढ़ता है। फिर हरएक की प्रकृति में थोड़ा-बहुत अंतर भी होता है। तुम कवि हो, बेलाग बात कहना तुम्हारी प्रकृति में है। किंतु तुम्हें यह भी देखना चाहिये कि आलोच्य व्यक्ति अपनी सामर्थ्य-भर सत्य को अपने जीवन में निभा रहा है या नहीं। यदि निभा रहा है तो उसके सत्य को देखो, उसकी सामर्थ्य को नहीं। और यदि सामर्थ्य की आलोचना करना ही चाहते हो तो रचनात्मक दृष्टि से देखो।"
"खरी आलोचना करने में कबीरदास जी मेरे आदर्श हैं। जहाँ झूठ को देखा वहीं खींच के ऐसा झापड़ मारते थे कि थोथे अहंकार की चमड़ी उतर जाती थी।"
"मैं महात्मा कबीरदास जी को उच्चतम आत्माओं में से एक मानता हूँ। उन्होंने पराई बुराइयों की तीव्र आलोचना करके अपने को सँवारा। परंतु मैं अपनी और समाज की खरी आलोचना करके दोनों को एक निष्ठा से बाँधकर उठाना चाहता हूँ। टूटी झोंपड़ियों के बीच में अकेले महल की कोई शोभा नहीं होती है। वह अपनी सारी भव्यता और कलात्मकता में क्रूर और गवार लगता है। फिर भी सच्चे संतों की बातों को हमें औसत स्तर पर लाकर नहीं सोचना चाहिये।" "
क्यों? न्याय की तुला पर सभी बराबर होते हैं।"
"तुम्हें देशकाल का भी ध्यान रखना होगा कैलासनाथ। कबीरदास जी ने जिस समय निर्गुण निराकार की वन्दना की थी उस समय नगर-नगर, गाँव-गाँव में हमारे मंदिर तोड़े जा रहे थे, लोक समाज की आस्था तोड़ी जा रही थी। कबीर ने रामरूपी आस्था को निर्गुण बखानकर लोक मानस को पोढ़ा बनाए रखा। यह क्या छोटी वात है। मैं कबीरदास जी का बड़ा आदर करता हूँ।"
"लेकिन उनके चेलों के पीछे तो लट्ठ लेकर डोलते हो।" कैलास ने मुस्कराकर कहाँ
"हाँ, आज के वातावरण में उनके गाल बजाऊ समर्थकों के पाखंड पर मैं अवश्य प्रहार करूँगा। ये लोग टूटे हुए समाज की पीड़ा को नहीं पहचानते। पेड़ से गिरे दम तोड़ते हुए प्राणी को यह क्रूर दो लातें और मारते हैं।"
"तव मेघा भगत पर यदि मैं वही आक्षेप करता हूँ तो तुम चिढ़ते क्यों हो?
बुरा इसलिये लगता है कि तुम मेघा भाई का गलत मूल्यांकन करते हो। उनकी सामर्थ्य की सीमा कुछ छोटी भले ही हो पर वे पूर्ण भावनिष्ठ हैं। खैर छोड़ो यह प्रसंग, बोलो लीला किस समय होगी?"
"अरण्यकाण्ड अति संघर्ष के क्षणों में रचा गया। हनुमान फाटक और अस्सी पर विशेष रूप से ब्रह्महत्यारे को भोजन कराने के बाद उन्हें अत्यधिक बस्त होना पड़ा। तुलसी आठों पहर सतर्क रहकर अपनी वीतरागता को सिद्ध करते रहते थे और इसके लिये अरण्यवासी तापस श्रीराम का ध्यान उन्हें बल देता था... बल ही नहीं वे आनन्द और एक अवर्णनीय तरावट-सी पाते थे। उनके मानसरोवर में बिम्ब शब्दों के कमल बनकर खिलने लगते थे और फिर वे लिखे बिना रह नहीं पाते थे। किंतु कितने विघ्नों के झटके उन्हें लगते थे। लिखने का तार बार-बार टूटता था। यहाँ भी तुलसी को अब तक अयोध्या से कुछ कम संघर्ष नहीं झेलना पड़ा था। अहंता पर चोटें-सी पड़ी। यह सचमुच रामकृपा ही थी कि अपने आध्यात्मिक जीवन के प्रथम संघर्ष काल में उन्हें महाकाव्य रचने की प्रेरणा मिली।"
* "जानते हो, रामचरितमानस लिखते समय मुझे बराबर यही विश्वास होता था कि जिस महाकाव्य को स्वप्न में जगदम्बा, जानकी, कपीश्वर और कवीश्वर की आज्ञा पाकर रच रहा हूँ उसके पूरा होते ही राम जी मुझे अवश्य ही प्रत्यक्ष दर्शन देंगे। मुझे प्रत्यक्ष दर्शन मिले किंतु जन-जन के रूप में। यों रामचरितमानस रचकर मेरे घट-घट व्यापी राम मुझे निश्चय ही मिल गए। मैंने उन्हें निराकार-साकार रूप में बहुत सीमा तक पहचान लिया। उनको पूर्ण रूप से देखने की लालसा यों मुझमें अब भी शेष है। कदाचित् अंतिम साँस के साथ ही पूरी हो कि न हो। नहीं-नहीं, राम कृपा से होगी। इस कलिकाल में तुलसी जैसी लगन से प्रीति निभाने वाले अधिक नहीं है। मेरे साहब अब मुझे नवाजेंगे।"
"विश्वनाथ जी का मंदिर उन दिनों निर्माणाधीन था उसके पास ही यह पण्डित सभा जुड़ी। तुलसी ने रामायण बांचना आरम्भ कर दिया। ज्यों-ज्यों कथा आगे बढ़ती जाती थी त्यों-त्यों पंडित मंडली पर उसका प्रभाव भी बढ़ता जाता था। और कथा के अन्तिम दिन ..."
राम कथा गिरिजा मैं बरनी। कलि मल हरनि मनोमल हरनी ।
संसृति रोग सजीवन मूरी। राम कथा गावहिं स्त्रुति भूरी ।।
कथा समाप्त हुई, मधुसूदन जी सरस्वती भी कुछ देर तक आंखें मूंदे आनन्द-मग्न बैठे रहे, फिर धीरे-धीरे उनकी आंखें खुलीं। वे बड़े प्रेम से ध्यानावस्थित तुलसीदास को देखने लगे, फिर अपने आसन से उठे, तुलसी दास के पास आए और बड़े स्नेह से उनके सिर पर हाथ फेरने लगे। तुलसी दास की आंखें खुलीं, सिर उठाकर देखा, उन्हें लगा कि गंगा-चन्द्र-सर्पों और बाघाम्बर से विभूषित साक्षात् शिव उनके सिर पर हाथ फेर रहे हैं। जटा-शंकरी गंगा की धारा उनके ग्रन्थ पर पड़ रही है।"
* “तुलसी तीनों भाइयों की वन्दना करते हैं। माँ के चरणों में नत होते हैं। सीता जी प्रसन्न होकर मुस्कराती हैं। हनुमान का मन और भरत का रुख देख कर लक्ष्मण तुलसीदास के हाथ से विनयपत्रिका ले लेते हैं और राम जी के सम्मुख उसे सविनय बढ़ाकर कहते हैं- "हे नाथ, इस कलिकाल में भी आपके एक अकिंचन सेवक ने अपने नाम के प्रति, अपनी प्रीति और प्रतीति को निबाहा है। गरीब-निवाज, अब इस पर कृपा करें।" भगवान रामचन्द्र विनीत भाव से हाथ बाँध खड़े हुए तुलसीदास को बड़े स्नेह से देखकर कहते हैं- "हाँ, मेरे भी ध्यान में यह बात आई है।" यह कहकर राम जी हाथ बढ़ाते हैं। लक्ष्मण जी उन्हें कलम-दवात देते हैं राम जी अपने हाथ से कलम लेकर तुलसीदास की 'विनयपत्रिका' पर हस्ताक्षर कर देते हैं।
दूसरे दिन घर-घर में तेज बुखार फैल गया था। नगर के छोटे-बड़े किसी भी वैद्य-हकीम को दम मारने का अवकाश नहीं था। गिरजादत्त वैद्य के बैठक और चबूतरे पर भीड़ जमा थी। एक कह रहा था- "ये तो भगवान का कोप भया है भैया।"
दूसरा बोला- "पण्डित गंगाराम ज्योतिषी हमारे लाला से कहते रहे, बेरो कि ये रुद्र बीसी पड़ी है। जो न हुइ जाय सो थोड़ा है।"
तीसरे ने कुछ सोच भरी मुद्रा में कहा- "भाई हमने तो इन दुइ-तीन दिनों में यह अजमाया कि जिस घर में चूहे मरते हैं उसी घर में ये जानलेवा जर आता है। हमारे पड़ोस में एक बुढ़िया, उसकी बहुरिया और पोते-पोती चारों के चारों पड़े हैं। चारों की बांहन में गिल्टियां निकली भई हैं। हमसे बिचारी का दुख न देखा गया, सो दवा लेवै आए हैं। यहाँ तो पानी देनेवाला भी कोई नहीं है।"
पहले ने चिन्तित दुखी स्वर में कहा- "हमरी-घर में से बुखार में पड़ी है। अब हम भी जाने किसी दिन पड़ जाय। कौन ठिकाना।"
"श्मशानों की ओर लाशें जा रही हैं। किसी के मुंह से बोल नहीं निकलता। किसी भी गली में घुसो, दो-चार घरों से आती रोने-चिल्लाने की आवाजें सुनने वाले के कलेजे पर आरियां चलाए बिना नहीं रहतीं। तुलसीदास रात के समय अकेले उदास गलियों से गुजरते हुए कहीं जा रहे हैं।"
* “रामू ने जल्दी-जल्दी धरती पर कोने में पहले ही से रखा हुआ गोबर उठाकर लीपा। गोस्वामी जी धरती पर ले लिये गए। तुलसी दल, सोना और गंगा जल उनके घरघराते कण्ठ में डाला गया। सब लोग मौन होकर उन्हीं की ओर दृष्टि लगाए बैठे थे। गले की घरघराहट में भी मानो राम शब्द ही गूँज रहा था। आँखें एकाएक खुल गईं, सबके चेहरों को देखा, दीवार पर अंकित हनुमान और सियाराम के चित्रों की ओर देखा। देखते ही रहे... देखते ही रह गए। बाहर ऐसी बिजली चमकी कि उसकी कौंध भीतर तक आ पहुँची। पानी ज़ोर से बरस रहा था। सबकी आँखें भी वैसा ही बरसा रही थीं।"
श्री रामनवमी, गुरुवार
23 मार्च, 1972 ई., रात्रि, 9:34
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