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'कफन कहानी - प्रेमचंद || कफन कहानी कला की दृष्टि से 'कफन कहानी की समीक्षा कीजिए || प्रेमचंद की कहानी,

    कहानी कला की दृष्टि से 'कफन कहानी की समीक्षा 

इस ब्लॉग पोस्ट में, हम उसकी अनूठी कला, चित्रण, और संदेश को विश्लेषण करेंगे, जिससे पाठक उसकी गहराई में खो जाएंगे और उसकी साहित्यिक महत्वपूर्णता को समझेंगे। "कफन" का साहित्यिक विश्लेषण और कला की महत्वपूर्ण विषयों पर विचार करने के लिए इस ब्लॉग पोस्ट को आनंद लें।

                            'कफन कहानी - प्रेमचंद  || कफन कहानी कला की दृष्टि से 'कफन कहानी की समीक्षा कीजिए || प्रेमचंद की कहानी,



      कथा सम्राट प्रेमचन्द की कहानिया  आदर्शोन्मुखी यथार्थ के धरातल पर खड़ी जीवन को संवेदनशील बनाने में प्रयासरत है। कफन कहानी में प्रेमचन्द का यथार्थवादी दृष्टिकोण दिखाई देता है। चमार जाति के मजदूरों की बस्ती में बुधिया का पति माधव और ससुर धीसू दोनों कामचोर और चटोर हैं। इनका काहिलपन इन्हें भूखों रहने को विवश करता है।

      कफन और पूस की रात कहानी कला का विकास चरम पर दिखाई पड़ता है। भाव और शिल्प के साँचे में उतारकर अपनी कला का निखार उपस्थित करते हुए उन्होंने हिन्दी कहानी को समृद्धि दी। प्रेमचन्द जी हिन्दी साहित्य के प्रथम कहानीकार है। जिन्होंने पूर्व ने प्रतिष्ठित समाज के महत्वपूर्ण लोगों के बीच से नायकत्व लाकर समाज के निचले पायदान के लोगों के बीच यथा धौसू माधव, होरी, धनिया अन्धा सूरदास, जैसे लोगों को दिया। 'कफन' शीर्षक में आकर्षण, संक्षिप्तता और पूरी कहानी का भाव भरा गया है। कफन के लिए पैसे का अभाव कफन के पैसे का दुरपयोग और कफन की निस्थकता आदि कथागत भावों को यह शीर्षक समेटता है।

      इस कहानी में कथानक की मूल संवेदना यह है कि आधुनिक आर्थिक विषमता बेरोजगारी और निकम्में समाज व्यवस्था के कारण सर्वहारा कितना स्वार्थी कामचोर और जड़ हो जाता है किवह अपनी मृतक पुत्र बघू और पत्नी के कफन के लिए एकत्र चन्दे के धन को शराब पीने में व्यय कर देता है। साथ ही कुकृत्य का समर्थन के लिए ठीकरा समाज के सर पर फोडता है कैसा बुरा रीति रिवाज है कि जिसे जीते जी, तन ढकने को चीथड़ा भी न मिले उसे मरने पर कफन बाहिए। कफन लाश के साथ ही जलकर राख हो जाता है। कथानक का आरम्भ घीसू और नाधव की दीन-हीन एवं कारूणिक समस्या से होता है माधव की पत्नी प्रसव वेदना से छटपटा रही है जब कि झोपड़े के द्वार पर अलाव के सामने धीसू और माधव दोनों बाप बेटे चुपचाप बैठे यह इन्तजार कर रहे है कि कब पत्नी मेरे और घर में शांति हो। अलाव के मुने आलू मुह जलने की प्रवाह किये बिना निगलते जा रहे है। जब बुधिया (माधव की पत्नी) मर जाती है तो दोनो छाती पीटकर हाय-हाय करते हैं। और लकड़ी तथा कफन के लिए चन्दे इकट्ठा करते हैं। कथानक चरम सीमा पर तब आता है। जब बाप बेटे बाजार में दुकानों का चक्कर लगाते बिना कफन खरीद एक शराबखाने के सामने जा पहुँचते है औ कफन के पैसे से तली हुई पछलियों आदि खाकर पेट भरकर शराब पीते है और अन्तत नशे में बेसुध होकर वहीं गिर जाते हैं।

                       पात्र व चरित्र चित्रण 

       इस कहानी में मुख्यत दो पात्रो घीसू और उसके पुत्र माधव का वर्णन आया है। दोनों ही निर्धन और श्रमिक वर्ग से आते है। दोनों आराम तलब कामचोर और बदनाम है कोई इन्हें काम पर नहीं बुलाता। किसी ने बुलाया भी तो एक घंटा काम करेंगे तो एक घटा चिलम पियेगें। एक दिन काम तो तीन दिन आराम। जब फाँके पड़ने की नौबत आती तो एक पेड़ से लकड़ियों काटता तो दूसरा उसे बाजार में बेचकर पेट पूजा का जुगाड करता। आर्थिक विपन्नता ने दोनों को निर्दयी हृदयहीन और कठोर बना दिया । बुधिया के प्रसव पीड़ा की तड़प् सुनकर भी ये जलता हुआ आलू खा रहे है। उसका प्राणान्त हो जाता है। इनकी दारूण दशा विपन्नता एवं अन्तिम परिणति किसी भी सवेदनशील मनुष्य के दिल को दहला देती है।

                        कथोपकथन 

      प्रेमचन्द ने अपने पात्रों के मनोभावों का चित्रण नाटकीय एव मनावैज्ञानिक स्तर पर किया है- इन्ही विशेषताओं को उद्‌घटित करने वाला एक उदाहरण द्रष्टव्य है- धी ने कहा- मालूम होता है
      बचेगी नहीं।
       सारा दिन दौड़ते हो गया, जा देख तो आ माधव चिढ़कर बोला- मरना ही है तो जल्दी मर क्यों नहीं जाती। देखकर क्या करूँ तू बड़ा बेदर्द है वे साल भर जिसके साथ सुख चैन से रहा, उसी के साथ इतनी बेक्कार्ड तो मुझसे तो उसका तड़पना और हाथ पाँव पटकना नहीं देखा जाता।

                         भाषा -शैली 

      इस कहानी की भाषा शैली सरल, सशक्त और सजीव है। इसमें प्रौढता परिपक्वता एव सप्राणता पर्याप्त मात्रा में मिलती है। वातावरण के चित्रण में भाषा पूर्णत वर्णनात्मक हो गई है। इस कहानी में भाषा की विस्वात्भकता सर्वस दिखाई देती है। व्यगात्मकता का एक उदाहरण प्रस्तुत है दुनिया का सस्तूर है. नहीं तो लोग बामनी को हजारों पये क्यों दे देते है कौन देखता है. परलोक में मिलता है या नहीं। बड़े आदमियों के पास धन है चाहे फूँके । हमारे पास फूकने को क्या है?"

                                 उददेश्य 

      उददेश्य की दृष्टि से यह कहानी यथार्थवादी है। आर्थिक विषमता वाले जिस समाज में एक ओर धनवान और बड़े लोग बैठे-बैठे दुनिया के सारे आनन्द लेते है तथा निर्धन मजदूर और किसान रात-दिन कठिन परीश्रम के बावजूद दो जून के रोटी का जुगाड़ नहीं कर पाते हैं। आर्थिक शाषण के विरूद्ध समाज में काति भावना भरना लेखक का मूल उद्देश्य है।

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