भक्तिकाल के संबंध में महत्वपूर्ण पंक्तियां -प्रमुख संत कवि-(Bhakti kal ke mahatvpurn panktiya )
भक्तिकाल के संबंध में महत्वपूर्ण पंक्तियाँ
# "भक्ति का जो सोता दक्षिण की ओर से धीरे-धीरे उत्तर भारत की ओर पहले से ही आ रहा था उसे राजनीतिक परिवर्तन के कारण शून्य पड़ते हुए जनता के हृदय क्षेत्र में फैलने के लिए पूरा स्थान मिला।" - रामचन्द्र शुक्ल
# "भक्ति द्राविड उपजी, लाये रामानन्द ।
* "उत्पन्ना
द्राविड़े साहं वृद्धि कर्णाटके गता।   -
कबीरदास
# क्वचित्क्वचिन्महाराष्ट्र गुर्जरे जीर्णतां गता ॥" –
श्रीमद्भागवत
#  "बिजली की चमक के समान अचानक समस्त पुराने
धार्मिक मतों के अन्धकार के ऊपर एक नयी बात दिखायी दी। कोई हिन्दू यह नहीं जानता
कि यह बात कहाँ से आयी और कोई भी इसके प्रादुर्भाव का कारण निश्चित नहीं कर
सकता।"  - ग्रियर्सन
        संत कवियों की महत्वपूर्ण काव्य पंक्तियाँ
  
(क) कबीरदास
    गोरख अटके
कालपुर कौन कहावै साहु ॥"
   करहा पडिया
गाड़ में दूरि परा पछिताइ ॥"
तेरी भगति होत नहीं साधी||
जानूँ सुन्दर काया।
जे कबहूँ न जाय खुमार।
मैंमंता घूमत फिरै,
    नाहीं तन की सार
॥
    रामनाम का
मरम है आना।"
आपुहि कुल आपुहि जाती ॥
ई उपनीसद कहैं संदेसा ॥
दत्तात्रेय वहै रस स्वादा ॥
न मह भाव न दूजा।
कहन सुनन कोई दुई करि पापिन,
     इक मिजाज इक पूजा
॥"
    यह तो खून
वह बंदगी, कैसे खुसी खुदाय
॥"
   मुझको तूं
क्या ढूँढ़े बंदे मैं तो तेरे पास में ॥"
कलम गह्यौ नहिं हाथ।
यह निज ब्रह्म-विचार।
तू कहता कागद की लेखी।
  बादर बरसा
प्रेम का भीजी गया सब अंग ॥"
तो आन बाट होइ काहे न आया ॥
हमन को होशियारी क्या ?
पूछि लीजिए ज्ञान।
पलकों की
चिक डारिकै, पिया को लिया
रिझाय।
(29) गुरु मोहि घंटिया अजर पियाई
(30) दुलहिन गावहु
मंगल चारु। 
हमरे घर आये राजा राम भरतार
(31) पीछे लागा जाई था, लोक वेद के साधि। 
   आगे थै
सतगुरु मिल्या, दीपक दीया हाथि ॥
सोवत लिये जगाय ।
गुडियन का-सा खेल।
काके लागूँ पाय।
                               (ख) संत नामदेव
खेचरजी के चरण पर नामा सिपी लागा।
दुःख बिसार सुख अन्तर कीना ॥
ज्ञान दान मोको गुरु दीना।
   राम नाम विन जीवन हीना ॥
एकै पाथर किज्जे भाव।
   दूजे पाथर धुरिए पाँव 
जो वो देव तो हम बी देव।
   कहै नामदेव हम हरि की सेव ॥
नृसिंह रूप हवै देह धरयो।
नामा कहै भगति बस के सव,
   अजहूँ बलि के
द्वार खरो ॥
   प्रणवै
नामातत्त्व रस अमृत पीजै ॥
धनि धनि कृष्ण ओढ़े काँवली
धनि धनि तू माता देवकी,
   जिह गृह रमैया कँवलापति ॥
कर्म न होता काया
हम नहि होते, तुम नहि होते,
    कौन कहाँ ते आया ॥
लोधे का खेत खाती थी।
लैकरि ठेंगा टँगरी तोरी
   लंगत लंगत लाती थी।
  नामा सेविया
जहँ देहरा न मसीद ॥
                           (ग) रैदास (संत
रविदास)
फिरहि अजहुँ वानारसी आसपासा ॥
आचार सहित विप्र करहि डंडउति ।
   तिन तिनै रविदास दासानुदास ॥
* प्रभुजी तुम चंदन हम पानी,
   जाकी अंग अंग वास
समानी ॥
ओछा जनमु हमारा।
फुलू भँवर, जलु मीन विगारेउ ॥
माई, गोबिन्द पूजा कहा लै चढ़ावउँ।
   अवरु त फूल अनुपू न पावऊँ ॥   
मलयागिरिवै रहै है भुअंगा।
   विषु अमृत बसहीं इक संगा ॥
तन मन अरपउँ पूज चढावउँ।
   गुरु परसादि निरंजन पावउँ ॥
कोई न कहै समुझाई।
अबरन बरन रूप नहिं
   जाके कहँ लौ लाइ समाई ॥
चंद सूर नहिं, राति दिवस नहि,
   धरनि अकास न भाई।
करम अकरम नहिं सुभ
   असुभ नहिं का कहि देहुँ बडाई ॥
  अतल अगम जै
लहरि मइ उदधि, जल केवल जलमाहीं
॥
  नरपति एक
सिंहासन सोइया, सपने भया भिखारी
॥ 
* अछत राज
बिछुरत दुखु पाइय
(घ) गुरुनानक देव
आया न आया न आया।
यह संसार रैन दा सुपना,
   कही देखा, कहीं नाहि दिखाया ॥
  सुख सनेह अरु
भय नहि जाके कंचन माटी जानै ॥
जिसनौ बखसे
सिफति सालाह, नानक पाति साही
पातिसाहुँ ॥
 आपै दोस न देई
करता जपु करि मुगल चढाइया। 
 एकती मार पई
कुर लाणै तै की दरदु न आइया।
 ते सिर काती
मुनी अहि गल विधि आपै धूड़ ॥
                        (ङ) दादू दयाल
  है पख रहित
पंथ गह पूरा अबरन एक अधारा।
(2) घीव दूध से रमि
रह्या व्यापक सब ही ठौर।
    भीतर सेवा
बंदगी बाहिर काहे जाइ।
  साथ मिलइ सुख
ऊपजई, आनन्द अंग नवाइ ॥
                              (च) मलूक दास
सुर न असुर टहलुआ जाके
   मुनि गंध्रव हैं जाके चेरे।
(2) नाम हमारा खाक है, हम खाकी बंदे। 
  खाकहि से पैदा
किए अति गाफिल गंदे ।
(3) अजगर करे न चाकरी
पंछी करे न काम।
(छ) सुन्दरदास
वे लिखते हैं-
(1) रसिक प्रिया
रसमंजरी और सिगारहि जानि। 
 चतुराई करि
बहुत विधि विषै बनाई आनि ॥
सुन्दरदास ने विभिन्न प्रदेशों की रीति-नीति पर अनेक व्यंग्यपूर्ण उक्तियाँ कही हैं जो निम्न है-
विलार और कूकर चाटत हांडी - गुजरात पर
सुदेसन में गत देस है मारू - मारवाड़ पर
करै सब भच्छन - दक्षिण पर
चोराइ वर्न के मच्छ बधारत - पूरब
    मिष्ठ सु
याकौ नीर, सकल पदारथ मध्य
है।
(7) बोलिए तौ तब जब
बोलिवे की बुद्धि होय, 
   ना तौ मुख मौन
गहि चुप होय रहिए।
   पति ही सूँ
छेम होय, पति ही सूँ रत
है।
   प्रकृति तें
महत्तत्त्व, पुनि अहंकार है।
                    (ज) बाबा लाल
   लख चौरासी फेर
में, भरमत बारंबार ॥
 जीवे भीतर
वासना, किस विधि पाइये
पीव ॥
(झ) रज्जब (रज्ञ्जब अली खाँ)
दादू योगेन्द्रा महामुनि
शब्द साखी
सरवर सलिल, सुख पीवै सब कोय
॥
 अह निसि सदा एक
रस लागा, दिया दरीवै डेरा
॥
(ञ) हरिदास निरंजनी
गुणग्राही गोविन्द गुण गावा,
   भजि भजि राम परम पद पावा
                      (ट) जंभनाथ 
गगन हमारा बाजा वाजे,
मतर फल हाथी।
संसै का बल गुरु मुख तोड़ा,
    पाँच पुरुष मेरे साथी।
जल विच कमल, कमल विच कलियाँ,
    जहं वासुदेव अविनाशी। 
घर में गंगा घर में जमुना,
    नहीं द्वारका काशी ॥
                      (ड) मन रंगीर
समुझि ले औरे मन आई,
    अंत न होय कोई
अपणा। 
यही माया के फंदे में,
    नर आन भुलाणा ॥
                        (ढ) धर्मदास
  (1) बरनौ मैं साहेब
तुम्हरे चरना,
संतन सुखलायक दायक प्रभु दुःख हरना ॥
    (2) झरि लागै महलिया
गगन घहराय 
  मितऊ मडैया सुनि
करि गैलो।
                        (ण) संत भीषन 
हरि का नामु अमृत जलु निरमल
इहु अउखध जगि सारा। 
गुरु परसादि कहै जनु
भीखनु पावउ मोख दुबारा ॥
                     (त) अक्षर अनन्य
 परलोक लोक दोउ सधै जाय।
 सोइ
राजयोग सिद्धान्त आय ॥
 निज
राजयोग ज्ञानी करंत।
हठि मूढ धर्म साधत अनंत ॥
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