विद्यापति-परिचय || हिन्दी साहित्य का इतिहास
विद्यापति-परिचय
प्रिय पाठकों,........इस पोस्ट में हमने हिन्दी साहित्य का इतिहास के महत्वपूर्ण बिंदुओं को क्रमवार समाहित किया गया है। यदि आपको हमारे द्वारा किया गया यह प्रयास अच्छा लगा है, तो इस पोस्ट को अपने साथियों के साथ अवश्य साझा करें। आप अपने सुझाव नीचे कमेंट बॉक्स में दर्ज कर सकते है। जिससे हम हिन्दी साहित्य के आगामी ब्लॉग को और बेहतर बनाने की कोशिश कर सकें।
विद्यापति भारतीय साहित्य की भक्ति परंपरा के प्रमुख स्तंभों में से एक और मैथिली के सर्वोपरि कवि के रूप में जाने जाते हैं। इनके काव्यों में मध्यकालीन मैथिली भाषा के स्वरूप का दर्शन किया जा सकता है। इन्हें वैष्णव और शैव भक्ति के सेतु के रूप में भी स्वीकार किया गया है। मिथिला के लोगों को 'देसिल बयना सब जन मिट्ठा' का सूत्र देकर इन्होंने उत्तरी-बिहार में लोकभाषा की जनचेतना को जीवित करने का महती प्रयास किया है।
- मिथिलांचल के लोकव्यवहार में प्रयोग किए जाने वाले गीतों में आज भी विद्यापति की शरृंगार और भक्ति रस में पगी रचनाएँ जीवित हैं। पदावली और कीर्तिलता इनकी अमर रचनाएँ हैं।
प्रमुख रचनाएँ :-
- महाकवि विद्यापति संस्कृत, अबहट्ठ, मैथिली आदि अनेक भाषाओं के प्रकांड पंडित थे।
- शास्त्र और लोक दोनों ही संसार में उनका असाधारण अधिकार था। कर्मकांड हो या धर्म, दर्शन हो या न्याय, सौंदर्य शास्त्र हो या भक्ति रचना, विरह व्यथा हो या अभिसार, राजा का कृतित्व गान हो या सामान्य जनता के लिए गया में पिण्डदान, सभी क्षेत्रों में विद्यापति अपनी कालजयी रचनाओं के बदौलत जाने जाते हैं। महाकवि के रूप में ओईनवार राजवंश के अनेक राजाओं के शासनकाल में विराजमान रहकर अपने वैदुष्य एवं दूरदर्शिता से उनका मार्गदर्शन करते रहे।
विद्यापति की कविता
सखि हे, कि पुछसि अनुभव मोय।
सेह पिरित अनुराग बखानिय तिल-तिल नूतन होय।
जनम अबधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल।
सेहो मधुर बोल स्त्रवनही सूनल स्त्रुति पथ परस न गेल।
कत मधु-जामिनी रभस गमाओलि न बूझल कइसन केलि।
लाख लाख जुग हिय हिय राखल तइयो हिय जरनि न गेल।
कत बिदगध जन रस अनुमोदए अनुभव काहू न पेख।
विद्यापति कह प्रान जुड़ाइते लाखे न मिलल एक।
व्याख्या - सखी, अनुभव की बातें मुझसे क्या पूछती हो? उस प्रीति और अनुराग का बखान कैसे करूँगी। वह तो तिल-तिल करके नया होता जाता है, पुराना पड़ ही नहीं सकता। जीवन भर हमने उस रूप को निहारा, आँखें नहीं भरीं और वे मीठे बोल कानों से सुनती रही, मगर कान प्यासे ही बने रहे। बसंत की कितनी रातें रंगरेलियों में गुजार दी, फिर भी पता नहीं चला कि काम-केलि क्या होती है। लाख-लाख युग उसे हृदय के अंदर रखा, फिर भी हृदय की जलन न गई। कितने ही रसिक जन रस का उपयोग करते हैं, परंतु वे उसको समझ नहीं पाते, न देख पाते हैं। विद्यापति का कहना है-"प्राणों को जुड़ाने के लिए लाख में एक भी नहीं मिला।"
कि कहब हे सखि आजुक रंग। सपनहि सूतल कुपुरुष संग।
बड सुपुरुख बलि आएल धाई। सूति रहल मोर आँचल झंपाई।
कांचुली खोलि आलिंगन देल। मोहि जगाए आपतु निंद गेल।
हे बिहि हे बिहि बड़ दुःख देल। से दुःख रे सखि अबहु न गेल।
भनई बिद्यापति एह रस धन्द। भेक कि जान कुसुम-मकरंद।
व्याख्या - सखी, आज रात अच्छा खिलवाड़ रहा। जाने कैसा भुच्चड़ मर्द सपने में मेरे साथ सोया। अच्छे-भले आदमी की तरह पास आया और मेरे आँचल में अपना मुँह छुपाकर मेरे पास लेट गया। पहले तो उसने मेरी अंगिया खोली फिर वह मुझसे चिपट गया। वह मूर्ख मुझे जगाकर खुद सो गया। हाय रे दैव, हाय रे दैव। उसने मुझे कितना दुःख दिया। सखी वह दुःख मैं अब भी भूल नहीं पाई हूँ। विद्यापति कहते हैं-"यह तो रस नहीं,रसाभास हुआ। कुसुम के मकरंद की असलियत मेंढक क्या जाने।"।
जुगल सैल-सिम हिमकर देखल एक कमल दुई जोति रे।
फुललि मधुर फुल सिंदुर लोटा इलि पाँति बईसलि गज-मोति रे।
आज देखल जत के पतिआएत अपूरब बिहि निरमान रे।
बिपरित कनक-कदलि-तर सोभित थल-पंकज अपरूप रे।
तथहु मनोहर बाजन बाजए जागए मनसिज भूप रे।
भनइ विद्यापति पुरबक पुन तह ऐसनि भजए रसमंत रे।
बुझए सकल रस राजा सिवसिंह लखिमा देइ केन कन्त रे।
व्याख्या - दो पर्वतों की सीमा पर मैंने चाँद देखा है। कमल के एक ही फूल में मैंने दो आलोक देखे हैं। खिले हुए लाल फूल सिंदूर में सन गए। गजमुक्ता के दाने दो पंक्तियों में जमे बैठे हैं ... आज जितना जो कुछ देखा, भला किसे विश्वास होगा? विधाता की अनूठी सृष्टि थी वह ... कनक-रचित कदली स्तंभ उल्टे शोभित थे (उनका पतला हिस्सा नीचे था, मोटा ऊपर)। नीचे दो थल-कमल (चरण) थे। वहाँ मनोहर वाद्य बज रहा था (पायल छमक रही थी)। यह आवाज मानो महाराज कामदेव को जगाने के लिए थी ...
नोट :- विद्यापति कहते हैं-"पूर्व जन्म का संचित पुण्य हो, तभी रसिक व्यक्ति इस प्रकार की युवती पा सकता है ... लखिमा देवी (रानी) के पति राजा सिवसिंह ही इन गीतों का मर्म जानते हैं ... "
ससन-परस खसु अम्बर रे देखल धनि देह।
नव जलधर-तर चमकए रे जनि बिजुरी-देह।
आज देखलि धनि जाइते रे मोहि उपजल रंग।
कनक-लता जनि संचर रे महि निर अवलंब।
ता पुन अपरुब देखल रे कुच-जुग अरबिंद।
बिगसित निह किछु करन रे सोभाँ मुख-चंद।
विद्यापति कवि गाओल रे रस बुझ रसमंत।
देवसिंह नृप नागर रे हासिनी देइ कान्त।
व्याख्या - हवा लगी तो कपड़े सरक गए। मैंने सुंदरी की देह देख ली। ऐसा लगा कि नए बादल की ओट में बिजली की लकीरें जगमगा उठी हैं। मैंने आज उसे राह में देखा। मेरे अंदर अनुराग उमड़ आया। मुझे लगा, बिना किसी सहारे के धरती पर कनकलता टहल-बूझ रही है। फिर एक बात यह भी अनोखी देखी कि दोनों उरोज, उरोज नहीं थे, कमल थे। मगर वे खिले क्यों नहीं थे? इसलिए नहीं खिल पा रहे थे कि सामने पूरा चाँद-मुखड़ा था। विद्यापति ने गाया-"रसिक जन ही इसका मर्म समझेंगे। हासिनी देवी के प्राणवल्लभ राजा देव सिंह बड़े रसिक हैं।"
स्व-मूल्यांकन (Self Assessment)
निम्नलिखित कथनों में से सत्य/असत्य बताएँ-
1. अमीर खुसरो खड़ी बोली के पहले लोकप्रिय कवि माने जाते हैं।
2. कवि चंदबरदाई ने 'पृथ्वीराज रासो' की रचना फारसी भाषा और मसनवी शैली में की।
3. विद्यापति ब्रज भाषा के कवि और प्रकांड पंडित थे।
4. लैला-मजनूँ की रचना चंदबरदाई ने की है।
5. अमीर खुसरो को दरबारदारी और चाटुकारिता से चिढ़ व नफरत थी।
Tags :-
विद्यापति पदावली की व्याख्या
विद्यापति
विद्यापति भगवती गीत लिरिक्स
विद्यापति कक्षा 12
विद्यापति का जीवन परिचय
विद्यापति की श्रृंगार वर्णन pdf
विद्यापति के पद pdf
विद्यापति की प्रमुख रचनाएं
विद्यापति की भक्ति-भावना pdf
विद्यापति के पद
Post a Comment