गुर्जर प्रतिहार राजवंश || राजस्थान इतिहास || pdf || Notes Ras , Rpsc , Rssmb , Reet notes
गुर्जर प्रतिहार राजवंश
* हर्षवर्धन की मृत्यु और हूणों के आक्रमणों के उपरान्त लिन राज वंशों ने हूण आक्रमण से हुए नुकसान और भारत की बिखर चुकी राजनीतिक एकता को पुनः स्थापित करने का प्रयत्न किया, उनमें गुर्जर प्रतिहार राजवंश का स्थान अत्यन्त विशिष्ट है।
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* गुर्जर-प्रतिहार वंश ने छठीं से बारहवीं शताब्दी तक विदेशी आक्रमणों से भारत भूमि की सफलतापूर्वक रक्षा की।
* गुर्जर जाति का प्रथम अभिलेखिय उल्लेख हमें चालुक्य शासक पुलकेशियन-द्वितीय के दरबारी रविकीर्ति जैन द्वारा रचित एहोल अभिलेख में मिलता हैं।
इस पोस्ट के माध्यम से हम इसकी सम्पूर्ण जानकारी के बारे मे चर्चा करेंगे और हम इसके प्रमुख बिन्दु, बिन्दु का सार , और इसके बारे मे प्रमुख रूप से जानकारी को विस्तार से चर्चा करेंगे ?
प्रतिहारों की शाखाएँ
मण्डोर के प्रतिहार
जालौर, उज्जैन और कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहार
वत्सराज (783-795 ई.)
नागभट्ट द्वितीय (795-8333.)
रामभद्र (833-836 ई.)
मिहिर भोज प्रथम (836-885 ई.)
महेन्द्रपाल प्रथम (885-910 ई.)
भोज द्वितीय (910-913 ई.)
महिपाल प्रथम (913-943 ई.)
उत्पत्ति व निवास स्थान :--
* नीलकुण्ड, राधनपुर, देवली, करडाह अभिलेखों में प्रतिहारों को गुर्जर कहाँ गया है। स्कंद पुराण में पंच द्रविड़ों में गुर्जर भी शामिल है।
* पूर्व मध्यकाल में आये अरब यात्री इन्हें जुर्ज या अल-गुर्जर (गुर्जर शब्द की अपभ्रंश शब्द) कहते है, वहीं चीनी यात्री हेनसांग इन्हें कू- चे-लो (गुर्जर) कहता है।
* मिहिर भोज के ग्वालियर अभिलेख में नागभट्ट को राम का प्रतिहार व विशुद्ध क्षत्रिय कहाँ गया है। इस अभिलेख में प्रतिहारों को राम के भाई लक्ष्मण का वंशज बताया गया है।
* यही बात कक्क के घटियाला अभिलेख में दोहरायी गई है लेकिन इस अभिलेख में प्रतिहारों के मूल पुरूष हरिश्चन्द्र को ब्राह्मण बताया गया है। हरिश्चन्द्र के दो रानियाँ थी। एक ब्राह्मणी दूसरी क्षत्राणी । क्षत्राणी का नाम भद्रा था। उससे उत्पन्न प्रतिहार क्षत्रिय कहलाये।
* गुर्जर-प्रतिहारों की उत्पत्ति को लेकर विद्वान एकमत नहीं हैं, कुछ प्रमुख मत इस प्रकार है -
क्र.सं. मत विद्वान
1. ईरानी मूल के कनेडी
2. शक व यूची जातियों के वंशज कनिंघम
3. हूणों के वंशज स्मिथ, ब्यूलर, हर्नले
4. विदेशी गुर्जर जाति के वंशज डॉ. भण्डारकर
5. भारतीय मूल के डॉ. गोपीनाथ शर्मा, डॉ.
दशरथ शर्मा,
के.एम. मुंशी
* प्रतिहार शासकों के जोधपुर व घटियाला शिलालेखों के आधार पर इनका मूल निवास स्थान गुर्जरात्रा (पश्चिम राजस्थान का एक भाग) को माना जाता है। एच.सी.रे का मानना है कि इनका मूल निवास स्थान मण्डौर (जोधपुर) था।
* राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष के संजन ताम्रपत्र में उल्लेख हैं, कि जब दंतिदुर्ग ने महादान यज्ञ किया था, तब उसने गुर्जर राजा को उज्जैन में अपना प्रतिहार (द्वारपाल) बनाया था।
* साथ ही जैन ग्रंथ हरिवंश पुराण भी गुर्जर प्रतिहारों को अवंति (उज्जैन) का शासक बताता है।
* ज्यादातर विद्वान इस दूसरे मत अर्थात् उज्जैन को ही गुर्जर प्रतिहारों का मूल निवास स्थान मानते है।
प्रतिहारों की शाखाएँ
* प्रतिहार राजवंश की अनेक शाखाएँ थीं। नैणसी ने प्रतिहारों की 26 शाखाओं का उल्लेख किया हैं जिनमें मण्डौर, जालौर, राजोगढ़, कन्नौज, उज्जैन और भडौंच के प्रतिहार अधिक प्रसिद्ध थे।
मण्डोर के प्रतिहार
* प्राचीनता व महत्त्व की दृष्टि से प्रतिहारों की विभिन्न शाखाओं में राजस्थान में उदित होने वाली मण्डौर की प्रतिहार शाखा सबसे महत्त्वपूर्ण है।
* इससे सम्बन्धित जानकारी 836 ई. के जोधपुर शिलालेख और घटियाला के दो शिलालेखों से मिलती हैं।
* इन शिलालेखों से ज्ञात होता है कि प्रतिहारों के गुरु हरिश्चन्द्र नामक ब्राह्मण के दो पत्नियाँ थीं एक ब्राह्मणी और दूसरी क्षत्राणी। हरिश्चन्द्र को रोहिलासिद्ध के नाम से भी जाना जाता है।
* हरिश्चन्द्र की ब्राह्मण पत्नी से उत्पन्न सन्तान ब्राह्मण प्रतिहार कहलाये और क्षत्राणी पत्नी भद्रा की सन्तान क्षत्रिय प्रतिहार कहलाये।
* भद्रा से हरिश्चंद्र के चार पुत्र हुयें :- भोगभट्ट,
कदल,
रज्जिल और दद्द।
इन चारों भाईयों ने मिलकर माण्डव्यपुर (मण्डौर का पुराना नाम) को जीता।
* डॉ. बैजनाथ पुरी और डॉ. ओझा ने हरिश चन्द्र का समय छठी शताब्दी के आस-पास माना है।
* रज्जिल (इसी से मंडौर के प्रतिहारों की वंशावली शुरू होती हैं) का पोता नागभट्ट प्रथम (नाहड़) इस वंश का प्रथम पराक्रमी शासक था।
* इन्होंने अपने राज्य का विस्तार किया और मण्डोर से 60 मील दूर मेड़ता को अपनी राजधानी बनाया परन्तु मेड़ता के राजधानी बन जाने पर भी मंडौर का महत्व कम नहीं हुआ, क्योंकि नागभट्टप्रथम के पुत्र तात ने मंडोर में ही एक सन्यासी के रूप में रहना पसंद किया।
* नागभट्ट के उत्तराधिकारियों के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी प्राप्त नहीं है। इस वंश की दसवीं पीवी में शीलुक नामक शासक हुए जिसने वाइमण्डल के शासक देवराज भाटी को पराजित करके अपने राज्य का विस्तार किया।
* शीलुक के दो रानियाँ थीं। भाटी रानी पद्मिनी और दूसरी रानी दुलर्भदेवी इन दोनों से शीलुक को क्रमशः दो पुत्र बाउक और कक्कुक हुये।
* शीलुक के बाद इस राजवंश का अगला महत्त्वपूर्ण शासक बाउक बना। उसने शत्रु राजा मयूर को भोकृपा के युद्ध में पराजित किया। इसी बाउक ने 837 ई. की जोधपुर प्रशस्ति में अपने वंश का वर्णन किया है। यह प्रशस्ति मण्डौर के एक विष्णु मंदिर में स्थित थी। जिसे बाद में जोधपुर नगर के कोट में लगवा दी गई।
* बाउक के पश्चात् उसका भाई कामुक प्रतिहार शासक बना। इन्होंने पटियाले के शिलालेखों (861 ई.) को उत्कीर्ण करवाया था।
* इन शिलालेखों से ज्ञात होता हैं कि वह मरु (मारवाड़), माड़ (जैसलमेर), बाल्ल, तमणी (मालानी) अज्ज (मध्य प्रदेश) और गुर्जरात्रा प्रदेशों में काफी लोकप्रिय था। विद्वानों की मान्यता है कि सम्भवतः इनमें से कुछ क्षेत्रों पर उसका राजनीतिक प्रभाव भी था।
* कक्कुक द्वारा घटियाला और मण्डौर में जयस्तम्भ भी स्थापित करवाये गये थे।
* ककुक के पश्चात् के मण्डौर के प्रतिहारों के सम्बन्ध में प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती।
* 1145 ई. के सहजपाल चौहान के मण्डौर अभिलेख से ज्ञात होता है कि 12वीं शताब्दी के मध्य में मण्डोर के आस-पास के क्षेत्रों पर चौहानों का प्रभुत्व स्थापित हो गया था।
* फिर भी मण्डोर का दुर्ग काफी समय तक प्रतिहारों की इन्दा शाखा के अधिकार में बना रहा किन्तु इन्दा शाखा के प्रतिहारों ने हम्मीर परिहार के अनवरत् आक्रमणों से परेशान होकर मण्डौर के दुर्ग को 1395 ई. में राव वीरम राठौड़ के पुत्र चूण्डा को दहेज में दे दिया।
* इसके साथ ही मण्डोर से प्रतिहारों का राजनीतिक प्रभाव समाप्त हो गया और धीरे-धीरे सम्पूर्ण क्षेत्र मारवाड़ के राठौड़ों के आधिपत्य में चला गया।
* जालौर, उज्जैन और कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहार *
* जालौर, उज्जैन और कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारों के अभिलेखीय साक्ष्यों से ज्ञात होता हैं कि ये तीनों ही वंश एक ही कुल के थे और मण्डौर के प्रतिहारों से घनिष्ठ रुप से सम्बन्धित थे।
* ऐसा प्रतीत होता है कि हरिश्चन्द्र के समय से ही उसके वंशज अपनी सुविधानुसार राजस्थान, गुजरात, मालवा, कन्नौज आदि स्थानों पर बसने लगे थे जिन्होंने अनुकूल अवसर पाकर इन क्षेत्रों में अपने-अपने राज्य स्थापित किये।
* डॉ. ओझा का कथन है कि इन प्रतिहारों ने सर्वप्रथम 739 ई. में चावड़ा राजपूतों से भीनमाल छीना और फिर आबू, जालौर आदि क्षेत्रों को जीता। इसके पश्चात् उन्होंने उज्जैन को अपनी राजधानी बनाया, और इसके पश्चात् उन्होंने कन्नौज को जीतकर कन्नौज में अपनी राजधानी स्थापित की।
* किन्तु शिलालेखों और साहित्यिक साक्ष्यों में विभिन्न राजधानियों के विवरण तथा शासकों के एक जैसे नामों के उल्लेख के कारण इस वंश के शासकों का क्रमबद्ध इतिहास जानना मुश्किल है। फिर भी हम पहले उज्जैन और बाद में कन्नौज के प्रतिहारों का अध्ययन करेंगे।
* अभिलेखों में इस राजवंश का संबंध राम के भाई लक्ष्मण से मानकर उसे क्षत्रिय बताया गया है। साहित्यिक कृतियों में भी इस वंश के शासकों को 'रघुकुल तिलक' और 'रघुकुल मुक्तामणि' आदि कहा गया हैं।
* इस शाखा के मूल निवास के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद हैं। किन्तु अधिकांश विद्वानों का मत है कि यह वंश भी किसी न किसी रुप में मण्डौर के प्रतिहारों से सम्बन्धित था।
* नागभट्ट की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि दक्षिणी-पश्चिम में अरब आक्रमणों का सफल प्रतिरोध करना था। भोज के ग्वालियर अभिलेख से ज्ञात होता है कि इन्होंने मलेच्छ सेना को पराजित किया था। ग्वालियर प्रशस्ति में भी नागभट्ट प्रथम को म्लेच्छों का नाशक नारायण (म्लेच्छ यानी अरब आक्रमणकारी) कहा गया है।
* अरब लेखक अल-बलादुरी का कथन है कि खलीफा हाशिम के Π सेनापतियों ने अनेक प्रदेशों पर विजय की थी, किन्तु वह उज्जैन को नहीं जीत पाये। इस कथन की पुष्टि नौसारी के दानपत्रों से भी होती है। इसने सिंध से अरबों को खदेड़ दिया। इसके पश्चात् इसने भड़ौंच पर भी विजय प्राप्त की।
* राष्ट्रकूटों से युद्ध - ऐसा प्रतीत होता है कि नागभट्ट प्रथम को अपने समकालीन दक्षिण भारत के राष्ट्रकूटों से भी संघर्ष करना पड़ा था।
* ऐसा उल्लेख मिलता है कि दन्तिदुर्ग ने उज्जैन में हिरण्यगर्भ यज्ञ किया था और उस अवसर पर इन्होंने गुर्जर नरेश को, प्रतिहार (द्वारपाल) नियुक्त किया था। यह गुर्जर नरेश नागभट्ट प्रथम प्रतीत होते है।
* देवराज :- कझुक के उपरान्त उसका छोटा भाई देवराज उज्जैन के सिंहासन पर बैठा।
* कब्रुक और देवराज का शासनकाल 760-783 ई. तक रहा था।
* वत्सराज (783-795 ई.) *
* देवराज के बाद उनके पुत्र वत्सराज (भूमिका देवी से उत्पन्न) उज्जैन का शासक बने ।
* औसियाँ और दौलतपुर अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसने भंडि जाति को पराजित करके उनके राज्य पर अधिकार कर लिया था।
* इसके पश्चात् उसने कन्नौज पर विजय प्राप्त की किन्तु कन्नौज पर अधिकार करने के लिये इन्हें पाल नरेश धर्मपाल से संघर्ष करना पड़ा। यह युद्ध प्रतिहार, पाल व राष्ट्रकूट शक्तियों के बीच हुए त्रिकोणिय संघर्ष का प्रारम्भ था। इस समय कन्नौज पर इन्द्रायुध शासन कर रहे थे और वत्सराज तथा धर्मपाल दोनों ही कन्नौज पर अधिकार करना चाहते थे।
* राधनपुर लेख, भडौंच ताम्रपत्र और 'पृथ्वीराज विजय' के अनुसार इस संघर्ष में वत्सराज विजयी हुए।
* किंतु कुछ समय बाद ही वत्सराज को राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव द्वितीय के आक्रमण का सामना करना पड़ा। इस युद्ध में वत्सराज बुरी तरह पराजित हुए और उसे मरुस्थल में शरण लेनी पड़ी। ध्रुव ने इसी समय पाल नरेश धर्मपाल को भी पराजित किया और इसके पश्चात् ध्रुव अपने राज्य लौट गए।
* ध्रुव के लौटते ही वत्सराज की संकटापन्न स्थिति का लाभ उठाकर धर्मपाल ने कन्नौज पर आक्रमण कर दिया और इन्द्रायुध को हटाकर चक्रायुध को पुनः वहाँ का राजा बना दिया।
* इस पराजय से उज्जैन के प्रतिहारों का राज्य मध्य राजपूताना तक सीमित हो गया और वत्सराज को ज्वालापुर या जाबालिपुर (जालौर) को अपनी राजधानी बनाना पड़ा।
* वत्सराज को गुर्जर प्रतिहार वंश की सत्ता का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। कुवलयमाला के लेखक उद्योतन सूरि [ कुवलयमाला की रचना भीनमाल (जालौर) में ही हुई थी] व हरिवंश पुराण के लेखक जिनसेन वत्सराज के ही समकालीन थे।
* मिहिर भोज के ग्वालियर अभिलेख में इसे रण हस्तिन या रत्न हस्तिन कहा गया है।
* वत्सराज शैव मतानुयायी था और इसने ओसियां (जोधपुर) में एक तालाब और महावीर स्वामी को समर्पित एक जैन मंदिर (पश्चिम भारत का प्राचीनतम जैन मंदिर) बनवाया था।
नागभट्ट द्वितीय (795 - 833.)
* वत्सराज की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र नागभट्ट द्वितीय प्रतिहार शासक बना। नागभट्ट को सर्वप्रथम राष्ट्रकूट शासक गोविंद तृतीय के हाथों पराजित होना पड़ा।
राष्ट्रकूटों से पराजित होने पर भी नागभट्ट निराश नहीं हुए और अवसर पाकर कुछ समय पश्चात् उसने अपनी शक्ति को पुनः संगठित कर लिया और उचित अवसर देखकरें कन्नौज के शासक चक्रायुद्ध पर 816 ई. में आक्रमण कर दिया।
* ग्वालियर अभिलेख से ज्ञात होता है कि नागभट्ट ने इस युद्ध में चक्रायुध को पराजित करके आयुध वंश को समाप्त कर दिया। इस विजय के पश्चात् कन्नौज प्रतिहारों की नयी राजधानी बन गई। इनका दरबार भी 'नागावलोक का दरबार' कहलाता था।
* ग्वालियर अभिलेख तथा 'प्रबन्धकोश' व 'खुम्माण रासो' नामक साहित्यिक कृतियों से ज्ञात होता हैं कि नागभट्ट ने अपने सामन्तों- गोविन्दराज चाहमान (गूवक प्रथम), खुम्माण गुहिल आदि के सहयोग से पश्चिमी भारत के मुस्लिम आक्रमणकारियों को पराजित किया था। गूवक-प्रथम द्वारा पराजित सिंध का गर्वनर बेगवारिस था।
* निसंदेह नाभगभट्ट द्वितीय अपने वंश का बड़ा प्रतापी शासक था, तभी तो बुचकला अभिलेख (815 ई.) में उसे 'परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर' कहा गया है।
* नागभट्ट द्वितीय ने पुष्कर के घाटों का निर्माण करवाया था।
* रामभद्र (833-836 ई.) *
* चंद्रप्रभसूरी द्वारा रचित "प्रभावक के चरित्र" के अनुसार 833 ई. में नागभट्ट द्वितीय ने गंगा नदी में जल समाधि द्वारा अपने प्राण त्याग दिये। नागभट्ट द्वितीय के उपरान्त उनका पुत्र रामभद्र कन्नौज की गद्दी पर बैठा। उसके तीन वर्ष का अल्प शासनकाल प्रतिहार शक्ति के ह्रास का काल था।
* मिहिर भोज प्रथम (836-885 ई.) *
* मिहिरभोज इस वंश का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शासक था। यह रामभद्र का पुत्र था। इसकी माता का नाम अप्पा देवी था।
* इनका प्रथम अभिलेख वराह अभिलेख है जिसकी तिथि 893 विक्रम संवत् (836ई.) है।
* इनका सर्वाधिक प्रसिद्ध अभिलेख ग्वालियर प्रशस्ति है जिससे इस वंश के बारे में काफी जानकारी मिलती है। इन्होंने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की जिसकी स्थायी राजधानी कन्नौज को बनाया।
* कश्मीरी कवि कल्हण की 'राजतरंगिणी' से भी मिहिरभोज की उपलब्धियों पर प्रकाश पड़ता है। अरब यात्री' सुलेमान' ने मिहिरभोज को भारत का सबसे शक्तिशाली शासक बताया है जिसने अरबों को रोक दिया था।
* ग्वालियर अभिलेख में इनकी उपाधि आदिवराह मिलती है। दौलतपुर अभिलेख इन्हें प्रभास कहता है। परन्तु इन्होंने अपनी मुद्राओं पर आदिवराह की उपाधि उत्कीर्ण करवाई थी।
* इन्हें प्रतिहार वंश का ही नहीं वरन् प्राचीन भारतवर्ष का एक महान शासक माना जाता है।
* पालों व राष्ट्रकूटों से युद्ध:- मिहिरभोज को अपने समकालीन पाल नरेश देवपाल से संघर्ष करना पड़ा किन्तु इस संघर्ष के परिणामों के सम्बन्ध में पाल और प्रतिहार साक्ष्यों में परस्पर विरोधी वृतान्त मिलते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि सम्भवतः मिहिरभोज के समय में पालों और प्रतिहारों के मध्य दीर्घकालीन संघर्ष चलता रहा जिसमें कभी एक पक्ष को और कभी दूसरे पक्ष को सफलता मिलती रही।
* मिहिरभोज को भी अपने समकालीन राष्ट्रकूट नरेशों-अमोघवर्ष और उसके उत्तराधिकारी कृष्ण द्वितीय से भी संघर्ष करना पड़ा।
* इस संघर्ष में प्रारम्भ में तो उनको सफलता मिली, किन्तु बगुआ अभिलेख से ज्ञात होता है कि इसके बाद राष्ट्रकूटों की गुजरात शाखा के सामन्त ध्रुव द्वितीय ने मिहिरभोज को पराजित कर दिया। मिहिर भोज को इसी समय कलचुरि नरेश के हाथों भी पराजय का सामना करना पड़ा।
* इस पराजय के कुछ समय बाद मिहिरभोज ने राष्ट्रकूटों पर पुनः आक्रमण किया। किंतु इस संघर्ष का कोई स्थाई परिणाम नहीं प्राप्त हुआ, कभी प्रतिहार तो कभी राष्ट्रकूट विजय प्राप्त करते रहें।
* मिहिर भोज राष्ट्रकूटों को तो स्थाई रूप से पराजित नहीं कर सके, किंतु उन्होंने कालिंजर (शासक जयशक्ति चंदेल), मंडौर (शासक - बाउक), कलचुरि शासक गुणामबोधि देव, गुहिल शासक हर्षराज आदि को अपनी सत्ता स्वीकार करने को बाध्य किया। इनकी विजय के सन्दर्भ में कहा जाता है कि अगस्त्य ऋषि ने तो केवल विंध्य (भूभृत) पहाड़ के विस्तार को ही रोका था किन्तु भोज ने अनेक नरेशों पर आक्रमण कर शासन किया और इस प्रकार अगस्त्य ऋषि से भी वह अधिक चमका।
* स्कन्धपुराण के अनुसार :- मिहिरभोज ने तीर्थयात्रा करने के लिए राज्य भार अपने पुत्र महेन्द्रपाल को सौंप कर सिंहासन त्याग दिया था।
* 851 ई. में सुलेमान नामक एक अरब यात्री ने मिहिरभोज के संबंध में एक विवरण प्रस्तुत किया है वह उसे जुर्ज (गुर्जर) नरेश कहता है। सुलेमान मिहिरभोज को इस्लाम का शत्रु बताता है और उसके साम्राज्य की प्रशंसा करता है।
* उसके कथनानुसार मिहिरभोज के राज्य में सोने-चाँदी की बहुत सी खानें थीं। उनका राज्य चोरी-डकैती से मुक्त था।
* अपने साम्राज्य के विभिन्न भागों की रक्षा के लिए उसने योग्य सामन्तों को नियुक्त किया। इनमें गुणाम्बोधिदेव, हर्षराज, कब्रुक और बाऊक विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
* महेन्द्रपाल प्रथम (885-910 ई.) *
•मिहिरभोज की मृत्यु के बाद उसको पुत्र महेन्द्रपाल प्रतिहार सिंहासन पर बैठा। इसका राजकवि राजशेखर इसे रघुकुल चूड़ामणि, निर्भयराज और निर्भयनरेन्द्र आदि विरुदों से सम्बोधित करता है। इनकी माता का नाम चन्द्राभट्टारिका देवी था। इसने परमभट्टारक, परमभागवत, महाराजाधिराज, परमेश्वर आदि उपाधियां भी धारण की थी।
* रामगया, गुनेरिया, इंटरखोरी और राजशाही अभिलेखों से ज्ञात होता है कि मगध और उत्तरी बंगाल के प्रदेश महेन्द्रपाल के अधिकार में थे। चूंकि महेन्द्रपाल के पिता मिहिरभोज का उत्तर प्रदेश के बाहर कोई अभिलेख नहीं मिला। अतः स्पष्ट है कि यह विजय निश्चय ही महेन्द्रपाल ने की होगी।
* काठियावाड़ में ऊना नामक स्थान पर महेन्द्रपाल के दो अभिलेख मिले हैं जिनसे स्पष्ट है कि सौराष्ट्र का प्रदेश महेन्द्रपाल के आधिपत्य में था।
•कल्हण की राजतरंगिणी से ज्ञात होता है कि महेन्द्रपाल ने थक्किय वंश को पराजित करके पश्चिमी पंजाब पर भी अधिकार कर लिया था किन्तु कालान्तर में कश्मीर नरेश शंकरवर्मन् ने महेन्द्रपाल से इन प्रदेशों को छीनकर पुनः थक्किय वंश को दे दिया फिर भी करनाल पर महेन्द्रपाल का अधिकार बना रहा।
*उत्तर में महेन्द्रपाल का साम्राज्य हिमालय की तराई तक विस्तृत था और उत्तर-पश्चिम में उसकी सीमाएँ करनाल तक जाती थीं। दक्षिण में बुन्देलखण्ड उसके साम्राज्य के अन्तर्गत था पूर्व में मगध और बंगलादेश के राजशाही जिले के उत्तरी भाग पर उनका अधिकार था। पश्चिम में सूर क्षेत्र में उनकी प्रभुता स्वीकार की जाती थी तथा दक्षिण-पश्चिम में नर्मदा नदी के निचले भाग तक उसका आधिपत्य था।
* महेन्द्रपाल स्वयं विद्वान तो थे ही इसके साथ ही साथ वह विद्वानों के आश्रयदाता भी थे संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान राजशेखर उनका राजकवि था। यही नहीं, राजशेखर के एक ग्रन्थ कर्पूर मंजरी से प्रकट होता है कि राजशेखर महेन्द्रपाल का गुरु भी था। राजशेखर ने जिन ग्रन्थों की रचना को उनमें कर्पूरमंजरी, काव्यमीमांसा, विद्धसालभंज्जिका, बालभारत, बालरामायण, हरविलास, प्रचण्ड पाण्डव और भुवनकोश विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
* भोज द्वितीय (910-913 ई.) *
* अभिलेखों के साक्ष्यों के आधार पर विद्वानों का मानना है कि महेन्द्रपाल की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्रों में उत्तराधिकार युद्ध हुआ था।
* इस उत्तराधिकार संघर्ष में भोज विजयी होकर कन्नौज के सिंहासन पर बैठा। बिल्हरी अभिलेख के अनुसार इस संघर्ष में भोज को अपने चेदि सामन्त कोक्कल देव प्रथम की महत्वपूर्ण सहायता मिली थी।
* किन्तु भोज द्वितीय लम्बे समय तक राज्य नहीं कर सके क्योंकि उसके भाई महीपाल ने अपनी शक्ति को संगठित करके चन्देल नरेश हर्षदेव की सहायता से भोज पर आक्रमण कर दिया। इस संघर्ष में भोज पराजित हुए और महीपाल कन्नौज के सिंहासन पर बैठा।
* इसकी पुष्टि धंग के खजुराहो अभिलेख से होती है। परन्तु अभिलेख में महीपाल का नाम क्षितिपालदेव बताया है। लगभग सभी इतिहासकार इस नाम की साम्यता से सहमत हैं।
* महिपाल प्रथम (913-943 ई.) *
* महीपाल को गद्दी पर बैठते ही उसे अपने वंश के परम्परागत शत्रु राष्ट्रकूटों से युद्ध करना पड़ा जिसमें वह राष्ट्रकूटों के हाथों पराजित हुआ। खम्भात अभिलेख और पम्प कृत 'पम्या भारत' के अनुसार राष्ट्रकूट नरेश इन्द्र तृतीय ने मालवा पर आक्रमण करके उज्जैन पर अधिकार कर लिया और यमुना नदी को पार करके महोदयनगर (कन्नौज) को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला।
* महीपाल, इन आक्रमणों का सामना नहीं कर सका और राजधानी छोड़कर भाग खड़ा हुआ पर हमेशा की तरह राष्ट्रकूट इस विजय के बाद भी वापस अपने राज्य (दक्षिण भारत) में चले गये।
* इस स्थिति का लाभ उठाकर महीपाल वापस लौट आया और उसने अपनी राजधानी कन्नौज और उसके निकटवर्ती प्रदेशों पर पुनः अधिकार कर लिया।
* अपनी गद्दी को पुनः प्राप्त कर महिपाल ने अपनी शक्ति-वर्धन का प्रयास किया। एक विजेता के रूप में उसने अपने परम्परागत शत्रु राष्ट्रकूट नरेश गोविन्द चतुर्थ पर आक्रमण किया।
* महीपाल ने अपने गुहिल सामन्त भट्ट को भेजकर गोविन्द चतुर्थ को परास्त कर दिया। इसकी पुष्टि चाटसू अभिलेख (813 ई.) से होती है। कहला अभिलेख से पता चलता है कि महीपाल ने कलचुरी सामन्त भामन को भेजकर धारानगरी पर अधिकार कर लिया।
* प्रतिहार-राष्ट्रकूट संघर्ष की पुष्टि अरब यात्री अल मसूदी भी करता है। उसका कथन है कि बऊर (महिपाल प्रथम) और बल्हर (राष्ट्रकूट) में बड़ी शत्रुता थी और बल्हर के आक्रमण के भय से बऊर ने अपने राज्य की दक्षिणी सीमा पर एक सेना तैनात की थी।
* राजशेखर महीपाल का भी राजकवि था। उसने महीपाल प्रथम को 'रघुकुलमुकुटमणि' की संज्ञा दी है और उसे आर्यावर्त का महाराजाधिराज कहा है।
* 915 ई. में अरब यात्री अल मसूदी भारत आया था। वह लिखता है कि बऊर (महीपाल प्रथम) ने चार सेनाओं का संगठन किया था। इनमें से एक सेना उत्तर में मुसलमानों के विरुद्ध नियुक्त की गई थी और दूसरी सेना दक्षिण में बल्हर (राष्ट्रकूटों) के विरुद्ध ।
* महीपाल प्रथम के संरक्षित कवि राजशेखर ने अपने ग्रंथ प्रचण्ड पाण्डव में अपने स्वामी की रमठ, कूलूत, मुरल, मेवले, केरल,कुन्तल, उड़ीसा आदि जातियों और क्षेत्रों पर विजयों का उल्लेख किया हैं
* महीपाल के उत्तराधिकारी और प्रतिहार शक्ति का पतन :- महीपाल के पश्चात् प्रतिहारों की शक्ति का धीरे-धीरे पतन हो जाता है।
* महीपाल के बाद उसका पुत्र महेन्द्रपाल द्वितीय (945-948 ई.) प्रतिहार नरेश बना। उसके पश्चात् देवपाल (948-49 ई.) शासक बना। वह अत्यन्त निर्बल शासक था। उसके समय में चन्देल शासक यशोवर्मन् ने प्रतिहारों के अनेक प्रदेशों पर अधिकार कर लिया।
* देवपाल के पश्चात् सम्भवतः क्रमशः विनायकपाल (953-954 ई.), महीपाल द्वितीय (955-960 ई.) और विजयपाल (960-990 ई.) प्रतिहार शासक बनें।
* विजयपाल के पश्चात् राज्यपाल (990-1019 ई.) प्रतिहार शासक बना। उसके समय में महमूद गजनवी ने कन्नौज पर आक्रमण किया। राज्यपाल इस आक्रमण से आतंकित होकर बिना लड़े ही कन्नौज छोड़कर भाग गया।
* राज्यपाल के कायरतापूर्ण कार्य की प्रतिक्रियास्वरुप भारतीय राजाओं ने चंदेल शासक विद्याधर के नेतृत्व में एक संघ बनाकर राज्यपाल पर आक्रमण करके उसका वध कर दिया और उसके पुत्र त्रिलोचनपाल (1019-1027 ई.) को कन्नौज के सिंहासन पर बैठा दिया।
* राज्यपाल की हत्या का समाचार पाकर महमूद ने 1019 ई. में पुनः कन्नौज पर आक्रमण किया जिसमें त्रिलोचनपाल परास्त हुआ। अलबरूनी के वर्णन से हम कह सकते है कि इस समय गुर्जर प्रतिहारों की स्थिति विकट थी, उनकी राजधानी भी कन्नौज में न होकर बारी (सरयू-रामगंगा नदी के संगम पर) थी।
* त्रिलोचनपाल के बाद कन्नौज का नरेश कौन बना? यह अस्पष्ट है। विद्वानों का मत है कि इसके उपरान्त यशपाल कन्नौज का शासक बना। यह प्रतिहार वंश का अन्तिम नरेश था।
* इसके बाद 1093 ई. में गहड़वाल नरेश चन्द्रदेव ने प्रतिहारों से कन्नौज छीनकर प्रतिहारों के स्वतन्त्र राजनीतिक अस्तित्व की इतिश्री कर दी। इसके पश्चात् प्रतिहार गहड़वालों, राठौड़ों और चौहानों के सामन्त मात्र रह गये। इस प्रकार महान गुर्जर प्रतिहार सत्ता का अंत होता है। प्रसिद्ध इतिहासकार बी.एन. पाठक तो महेन्द्रपाल प्रथम को हिन्दू भारत का अंतिम महान हिंदू सम्राट स्वीकार करते हैं।
* प्रतिहार शिलालेखों में इनके पदाधिकारियों को राजपुरूष कहा गया है।
* अलवर जिले के राजोगढ़ से 960 ई. का एक शिलालेख मिला है (प्रतिहार शासक मथनदेव का), जो राजोरगढ़ में भी प्रतिहार शासन की सूचना देता है। राजोरगढ़ के प्रतिहार कन्नौज के रघुवंशी शासकों के सामंत थे।
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