आदिकाल || हिन्दी साहित्य इतिहास लेखन की परंपरा
आदिकाल : हिन्दी साहित्य इतिहास लेखन की परंपरा
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1. गार्सा - द-तासी - इस्तवार द ला लितरेत्पुर एंडई ए ऐन्दुस्तानी
2. शिवसिंह सेंगर - शिवसिंह सरोज
3. जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन - द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिट्रेचर ऑफ नॉर्दन हिन्दुस्तान
4. मिश्र बन्धु - मिश्रबंधु विनोद
5.आ. रामचन्द्र शुक्ल
6. डा. रामकुमार वर्मा
7. आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी जी
8. डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त
9. डॉ. नगेन्द्र
10. रामस्वरूप चतुर्वेदी
इस पोस्ट के माध्यम से हम इसकी सम्पूर्ण जानकारी के बारे मे चर्चा करेंगे और हम इसके प्रमुख ग्रंथ एवं ग्रंथकार के बारे मे विस्तार से चर्चा करेंगे
1. गार्सा द तासी - इस्तवार द ला लितरेत्यूर ऐन्दुई ए ऐन्दुस्तानी'
* दो भागों में है - 1839 ई. (प्रथम भाग)
1847 ई. (द्वितीय भाग)
* दूसरा संस्करण 1871 ई. में आया। इसमें तीन खंड कर दिये गए।
* इसमें उर्दू और हिंदी के 738 कवियों का विवरण उनके अंग्रेज्जी वर्ण के क्रम से दिया गया था। केवल 72 कवि हिंदी से संबंधित थे।
• यह फ्रेंच भाषा में लिखा गया था।
* 'ऐन्दुई' का अर्थ 'हिंदवी' (हिंदी) और 'ऐन्दुस्तानी' का 'हिंदुस्तानी (उर्दू) था।
* इसे ब्रिटेन और आयरलैंड की प्राच्य साहित्य-अनुवादक समिति की ओर से पेरिस में प्रकाशित किया गया था, जिसमें काल-विभाजन और नामकरण का कोई प्रयास नहीं किया गया था।
• डॉ. लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय ने इस ग्रंथ में वर्णित हिंदी रचनाकारों संबंधी सामग्री का हिंदी अनुवाद 'हिंदुई साहित्य का इतिहास' शीर्षक से 1952 ई. में प्रकाशित कराया।
'तज़किरा-ई-शुअरा-ई-हिंदी' - (मौलवी करीमुद्दीन)
प्रकाशित - 1848 ई.
* देहली कॉलेज द्वारा प्रकाशित इस ग्रंथ में 1004 कवियों का विवरण दिया गया है जिनमें 62 कवि ही हिंदी से संबंधित हैं।
* इस ग्रंथ का महत्त्व इस बात में है कि इसमें सर्वप्रथम कालक्रम का ध्यान रखा गया है। किंतु नामकरण नहीं किया गया है।
* इसे 'तबकाश्शुअरा' भी कहा जाता है।
'भाषा काव्य संग्रह' - (महेशदत्त शुक्ल) (1873 ई.)
* यह हिंदी भाषा में लिखा गया प्रथम हिंदी साहित्येतिहास संबंधी ग्रंथ था।
* यह नवल किशोर प्रेस, लखनऊ से प्रकाशित हुआ था।
2. शिवसिंह सेंगर - 'शिवसिंह सरोज'
* प्रकाशित - 1883 ई. में नवल किशोर प्रेस, लखनऊ से प्रकाशित।
- इस ग्रंथ में सर्वप्रथम एक हप्तार से ज्यादा (1003) भाषा कवियों का विवरण दिया गया। इसी से यह बाद के इतिहासकारों के लिये आधार भी रहा।
* इसके पूर्वार्द्ध में 838 कवियों की रचनाओं के नमूने तथा उत्तरार्द्ध में 1003 कवियों का जीवन परिचय दिया गया है।
* इसमें वर्णानुक्रम पद्धति का प्रयोग किया गया है।
* काल विभाजन एवं नामकरण का प्रयास नहीं किया गया है।
* इस ग्रंथ को हिंदी साहित्य के इतिहास का 'प्रस्थान बिंदु' कहा गया है।
3. जॉर्ज ग्रियर्सन - द मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ नार्दर्न हिंदुस्तान'
- प्रकाशित - 1888 ई.
- इस ग्रंथ का प्रकाशन 'एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल' की पत्रिका के विशेषांक के रूप में हुआ था।
* बहुत-से विद्वानों ने इसे सही अर्थों में हिंदी साहित्य का पहला इतिहास ग्रंथ माना।
* इसमें सर्वप्रथम हिंदी साहित्य का भाषा की दृष्टि से क्षेत्र निर्धारित करते हुए हिंदी के इतिहास को संस्कृत-पालि-प्राकृत एवं अरबी-फारसी मिश्रित उर्दू से पृथक किया गया था।
* इसमें पहली बार कवियों को कालक्रमानुसार वर्गीकृत करते हुए उनकी प्रवृत्तियों को उद्घाटित भी किया गया।
* संपूर्ण ग्रंथ 11 अध्यायों में विभक्त है तथा प्रत्येक अध्याय एक काल का सूचक है। हर अध्यायम का नामकरण भी किया गया है।
* इसमें कुल 952 कवियों को शामिल किया गया है, जिनमें से 886 कवियों के विवरण का आधान 'शिवसिंह सरोज' है।
* इन्होंने सर्वप्रथम भक्तिकाल (16वीं-17वीं शती) को 'स्वर्ण युग' कहा था।
* डॉ. किशोरीलाल गुप्त ने इसका अनुवाद 'हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास' के नाम से 1957 ई. प्रकाशित करवाया।
* साहित्येतिहास में यह ग्रंथ 'नीवं का पत्थर' माना गया है।
4. मिश्रबंधु - मिश्रबंधु विनोद'
प्रकाशित - चार भागों मे
प्रथम तीन भाग 1913 ई.
चौथा भाग 1934 ई.
में प्रकाशित हुआ था।
* इसमें 4591 कवियों को शामिल किया गया।
* ग्रियर्सन यद्यपि काल-विभाजन एवं नामकरण कर चुके थे किंतु व्यवस्थित रूप से इसका श्रेय मिश्रबंधुओं को जाता है।
* इन्होंने संपूर्ण इतिहास को पाँच कालों में विभाजित किया।
* मिश्रबंधु तीन भाई थे - गणेश बिहारी मिश्र,
श्याम बिहारी मिश्र एवं
शुकदेव बिहारी मिश्र।
5.रामचंद्र शुक्ल - 'हिंदी साहित्य का इतिहास'
* प्रकाशित - 1929 ई.
* यह ग्रंथ मूलतः नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित 'हिंदी शब्दसागर' की भूमिका के रूप में लिखा गया था।
* इस भूमिका को 'हिंदी साहित्य का विकास' नाम दिया गया था।
* यह हिंदी का सर्वाधिक प्रख्यात इतिहास-ग्रंथ है।
* इसमें रचनाकारों के इतिवृत्त की बजाय उनके रचनात्मक-वैशिष्ट्य पर अधिक बल दिया गया।
* विधेयवादी पद्धति का प्रयोग करते हुए तत्कालीन युगीन परिस्थितियों के संदर्भ में हिंदी साहित्य के इतिहास को विश्लेषित किया गया।
* अपभ्रंश साहित्य को हिंदी से अलगाते हुए पूर्वपीठिका के रूप में वर्णित किया गया।
* संपूर्ण इतिहास का इतना तार्किक एवं सुव्यवस्थित काल विभाजन किया कि परवर्ती इतिहास-ग्रंथों में प्रायः उसका ही प्रयोग किया गया।
* आचार्य शुक्ल ने अपने से पहले लिखे गए साहित्येतिहास-ग्रंथों को 'कवि-वृत्त-संग्रह' कहा है-
* 'शिवसिंह सरोज' - कवि-वृत्त-संग्रह
* 'मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ नार्दर्न हिंदुस्तान' - बड़ा कवि-वृत्त-संग्रह
* 'मिश्रबंधु विनोद' - बड़ा भारी/प्रकांड कवि-वृत्त-संग्रह।
* नामकरण दो आधारों पर किया-
1. काल-विभाग के भीतर प्राप्त होने वाली विशेष ढंग की रचनाओं की प्रचुरता व उनके स्वरूप के अनुसार।
2. ग्रंथों की प्रसिद्धि के आधार पर क्योंकि 'प्रसिद्धि भी किसी काल की लोकप्रवृत्ति की प्रतिध्वनि है'।
* "किसी काल विस्तार को लेकर यों ही पूर्व और उत्तर नाम देकर दो हिस्से कर डालना ऐतिहासिक विभाग नहीं कहला सकता।"
* "किसी काल के कवियों की साहित्यिक विशेषताओं के संबंध में मैंने जो संक्षिप्त विचार प्रकट किये हैं, वे दिग्दर्शन मात्र के लिये। इतिहास की पुस्तक में किसी कवि की पूरी क्या अधूरी आलोचना भी नहीं हो सकती।"
* आधुनिक काल में गद्य का आविर्भाव सबसे प्रधान साहित्यिक घटना है।"
* "वर्तमान लेखकों और कवियों के संबंध में कुछ लिखना अपने सिर एक बला मोल लेना ही समझ पड़ता था।"
* “(रीतिकाल के) कवियों के परिचयात्मक विवरण मैंने प्रायः 'मिश्रबंध विनोद' से ही लिये हैं।"
* 'मिश्रबंधु विनोद' के अतिरिक्त सामग्री-सहयोग के लिये इन ग्रंथों के नाम शुक्ल जी ने दिये हैं-
* 'हिंदी कोविद रत्नमाला' (बाबू श्यामसुंदर दास)
* 'कविता-कौमुदी' (रामनरेश त्रिपाठी)
* 'ब्रजमाधुरी सार' (वियोगी हरिजी)।
* "मेरा उद्देश्य अपने साहित्य के इतिहास का एक पक्का और व्यवस्थित ढाँचा खड़ा करना था, न कि कवि कीर्तन करना।"
* शुक्ल जी का काल-विभाजन एवं नामकरण इस प्रकार है-
* आदिकाल (वीरगाथाकाल, संवत् 1050-1375)
* पूर्व-मध्यकाल (भक्तिकाल, संवत् 1375-1700)
* उत्तर-मध्यकाल (रीतिकाल, संवत् 1700-1900)
* आधुनिक काल (गद्यकाल, संवत् 1900-1984)
6. डॉ. रामकुमार वर्मा - 'हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास'
प्रकाशित - 1938 ई.
* छायावादी कवि रामकुमार वर्मा द्वारा रचित इस इतिहास ग्रंथ में उनकी काव्यात्मक भाषा ने पाठकों को आकर्षित किया था। अपनी विस्तृत सामग्री, उसकी आकर्षक प्रस्तुति एवं भाषा के कारण यह ग्रंथ प्रभाव छोड़ने में सफल रहा।
* इसमें सिर्फ आदिकाल व भक्तिकाल (693 ई. से 1693 ई.) तक की अवधि को ही स्थान मिला है। आगे का भाग वे नहीं लिख पाए।
* 'निर्गुण ज्ञानाश्रयी शाखा' को 'संतकाव्य' तथा 'निर्गुण प्रेमाश्रयी शाखा' को 'सूफीकाव्य' नाम दिया।
* इसमें अपभ्रंश साहित्य के बड़े हिस्से को भी शामिल कर 'संधि काल' शीर्षक के अंतर्गत प्रस्तुत किया गया था। वर्मा जी ने इसी से आदिकाल को 'संधिकाल एवं चारणकाल' कहा था।
7. हजारीप्रसाद द्विवेदी
पुस्तक - हिंदी साहित्य की भूमिका (1940 ई.)
'हिंदी साहित्यः उद्भव और विकास' (1952 ई.)
'हिंदी साहित्य का आविकाल' (1952 ई.)
* हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कोई स्वतंत्र इतिहास-ग्रंथ नहीं लिखा, किंतु उल्लिखित तीनों ग्रंथ साहित्येतिहास संबंधी ही हैं एवं इनमें एक निश्चित साहित्येतिहास-दृष्टि भी मिलती है।
* आचार्य द्विवेदी इतिहास को परंपरा के विकास के रूप में व्याख्यायित करते थे।
* इन्होंने विश्व भारती के गैर-हिंदी भाषी साहित्य-जिज्ञासुओं को हिंदी साहित्य से परिचित करवाने हेतु जो व्याख्यान दिये थे, उन्हें ही संशोधित परिवर्द्धित कर 'हिंदी साहित्य की भूमिका' नामक ग्रंथ तैयार किया गया था।
* आदिकाल का स्वरूप-निर्धारण; भक्तिकाल के उदय की पृष्ठभूमिः पूर्ववर्ती सिद्धांतों से भक्तिकालीन संत काव्यधारा का संबंध-उद्घाटन; हिंदी सूफी काव्य का आधार संस्कृत, प्राकृत- अपभ्रंश की काव्य- परंपराओं को मानना आदि उनकी साहित्येतिहासकार के रूप में उपलब्धियाँ हैं।
8. डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त - 'हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास'
प्रकाशित - 1965 ई.
* आचार्य शुक्ल द्वारा प्रतिपादित ढाँचे में आमूलचूल परिवर्तन करने का एक सार्थक प्रयास इस ग्रंथ के माध्यम से किया गया।
* संपूर्ण इतिहास को तीन कालों में विभक्त किया गया:-
1. प्रारंभिक काल,
2. मध्यकाल और
3. आधुनिक काल।
* इसमें 'साहित्येतिहास के विकासवादी सिद्धांतों की प्रतिष्ठा करते हुए, उसके आलोक में हिंदी साहित्य की नूतन व्याख्या प्रस्तुत करने की चेष्टा की गई है।'
9. डॉ. नगेंद्र - हिंदी साहित्य का इतिहास'
प्रकाशित - 1973 ई.
- संपादक - डॉ. हरदयाल
* डॉ. नगेंद्र के संपादन में 26 विद्वानों के सहयोग से यह विशद ग्रंथ रचा गया था।
* इतने विद्वानों के कारण एक ऐतिहासिक दृष्टि संपूर्ण ग्रंथ में आद्योपांत नहीं हो पाई है किंतु फिर भी प्रत्येक काल व उससे जुड़े रचनाकारों पर सरल भाषा में अपेक्षाकृत अधिक प्रामाणिक व व्यवस्थित सामग्री के कारण यह विद्यार्थियों में विशेष रूप से प्रचलित है।
10. रामस्वरूप चतुर्वेदी - 'हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास'
प्रकाशित - 1986 ई.
* साहित्येतिहास लेखन के लिये व्यास सम्मान सहित कई पुरस्कार प्राप्त करने वाला यह ग्रंथ अपनी लोकप्रियता एवं आकर्षण में अद्वितीय है।
* रामस्वरूप चतुर्वेदी मूलतः आचार्य शुक्ल की दृष्टि से प्रभावित हैं फिर भी उन्होंने शुक्ल जी के युगीन दृष्टिकोण और द्विवेदी जी के परंपरावादी दृष्टिकोण में परस्पर संबंध बनाते हुए लिखा है।
* शुक्ल जी की बहुत-सी स्थापनाओं को स्थापित करने के प्रयास से भी उनकी मौलिकता क्षरित नहीं होती। शुक्ल जी की परंपरा को गंभीरता से पुनर्परिभाषित किया है।
* भाषा और साहित्य के गहरे संबंधों की खोज उनकी प्रमुख विशेषता है। भाषिक प्रवृत्तियों की गहरी समीक्षा से साहित्यिक परंपराओं के संदर्भ व्याख्यायित किये हैं।
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