पृथ्वीराज रासो || रेवा तट || UGC NET & JRF || UNIT-5 || हिन्दी
पृथ्वीराज रासो
रेवा तट
देवगिरी जीते सुभट, आयौ चामंड राइ।
जय जय त्रप कीरति सकल, कही कव्विजन गाइ।।०१॥
मिलत राज प्रथिराज सों, कही राव चामंड।
रेवातट जो मन करौ, (तौं) वन अपुब्ब झुण्ड।०२।।
कवित्त
बिन्द ललाट प्रसेद, करयौ संकर गजराजं।
औैरापति धरि नाम, दियौ चढ़नै सुरराजं।
दांव दल तेहि गंजि रंजि उमया उर अंदर।
होइ कपाल हस्तिनी संग बगसी रचि सुंदर।
औलाद तासु तन आय कै, रेवातट वन विध्तरिय।
सामंतनाथ सों मिलत इप, दाहिम्मै कथ उच्चरिय॥|०३॥
अरिल्ल
च्यारि प्रकार पित्षी बन वारन।
भद्र मंद मरग जाति सधारन॥
पुच्छी चंद कवि कों नरपत्तिय
सुर वाहन किम आइ धरत्तिय|०४।(चंद कवि का उत्तर आगे)
कवित्त
हेमाचल उपकंठ एक वट उतंगं।
सौ जोजन परिमान साष तस भंजि मतंग।।
बहुरि दुरद मद अंध ढाहि मुनिवर आरामं
दीर्घतपा री देषि आप दीनों कुपि तामं।
अम्बर विहार गति मंद हुअ नर आरुढ़न संग्रहिय
संभरि नरिंद कवि चंद कहि सुर गइंद इम भुवि रहिया।०५॥
अगदेश पूरब्ब, मध्दि वन पंड गहब्बर।
उज्जल जल दल कमल, विपुल लुहिताच्छ सरब्बर।
श्रापित गज की जूथ, करत क्रीड़ा निसि वासर।
पालकाव्य लघुवेस, रहत एक तहाँ रुषेसर॥
तिन प्रीति बंधि अति परसपर, रोमपाद नृप संभरिय
आखेट जाइ फंदन पकरि, दुरद आनि चंपापुरिय/०६।।
दूहा
पालकाव्य कैं बिरह करि अंग भये अति पीन।
मुनिवर तब तहूँ आय कैं गज चिग्गछ गुन कीना०७|।
कोंपर पराग पत्रं छालं डालं फलं फुलं कंदं।
फल्लि कली दै जरियं कुंजर करि थूलयं तनं।०८।।
ब्रम्ह रिष्ष तप करत, देषि कंप्यौ मघवानं।
छलन काज पहु पठय, रंभ रुचिरा करि मानं।
आप दियौ तापसह, अवनि करनी सुअबत्तिरि।
क्रम बंधि इक जती, लषितहु औ सुपनंत्तरि।
तिहि ठांम आइ उहि हस्तिनी, बोर लियो पोगर सुनमि
उर शुक्र अंस धरि चंद कहि, पालकाव्य मुनिवर जनमि।।०९॥
-तार्थ तिन मुनि करिन सों, बंधि प्रीति अत्यंत।
चंद कझौं नृप पिथ्य सम, सकल मंडि बिरतंत॥।१०।
कवित्त
सुनहि राज प्रथिराज, विपन रवनीय करिय जुथ
रेवातट सुन्दर समूह, वीर गजदंत चवन रथ॥
आपेटक आचंभ पंथ, पावर रुकि पिल्लौं।
सिंहवट्ट दिलि समुह राज विल्लत दोई चल्लों॥
जल जूह कूह कस्तुरि मृग पहपंथी अरु परबतह
चहु अनि मानं देषे नृपति कहि न बनत दच्छिन सुरह्११॥
एक ताप पहुपंग को, अरु रवनीक जु थांन।
चामंडराय वचन्न सुनि, चढ़ि चढ्यो चहु आंन।१२।।
चढ़त राज प्रिथिराज, वीर अगिनेव दिसा कसि।
सब्ब भूमि नृप नृपति चरन चहुआन लग्गि धसि॥
मिल्यो भान बिस्तरी, मिल्यों षट्टल गढ्ढी नृप
मिंल्यो नंदिपुर राज मिल्योरेवा नरिंद अप।
वन जूथ मृग्ग सिंघह रु गज नृप आषेटक षिल्लई
लाहौर थान सुरतांन तप, बर कग्गद लिषि मिल्लई॥१३॥
दूहा
"षां ततार मारुफ षां, लिये पांन कर सोहि।
धर चहु आंनी उप्परै, बज्जा बज्जन बाइ॥१४॥
साटक
श्रोत भूपय गोरियं बर भरं, बज्जाइ सज्जाइने।
सा सेना चतुरंग बंधि उललं, तत्तार मारुफयं॥
तुझी सार स्र उप्परा बस रसी, पल्लानयं षानयं।
एकं जीव सहाब साहि न नयं, बीयं स्तयं सेनय॥१५॥
अहि बेली फल हृथ्थ लै, तौ ऊपर तत्तार।
मेच्छ मसरति सत्ति कै, बंच कुरानी बार।१६।।
बार मुसाफ तत्तार षाँ, मरन कित्ति तन बांन।
में भंजे लाहौर धर, लैहूँ सुनि सु विहान
लैहूँ सु निसु विहान सुनैं ढिल्ली सुरतांन
लुथ्थि पार पुंडीर, भीर परिहैं चौहांनं।
दुचित चित्त जिन करहु राज आखेट उथापं।
गज्जनेस आयत्स, चले सब छूय मुसाफं।।१७।।
दूहा
षट मुर कोस मुकाम करि, चढ़ि चढ्यौ चहु आंना
चंद वीर पुंडीर कौ, कग्गद करि परिवांन॥१८।।
दूहा
गोरी बै दल संभुहौ, गौ पंजाब प्रमांन।
पुब्ब रु पच्छिम दुहूँ दिसा मिलि चुहांन सुरतांन।१९।।
दूहा
दूत गये कनबज्ज दिसि, ते आये तिन थांन।
कथा मंडि चहु आंन की, कहि कमधज्ज प्रमांन॥|२०।
दूहा
रेवातट आयौ सुन्यौ वर गोरी चहु आन
बर अबाज सब मिट्टे के, सजे सेन सुरतांन।२१।।
दूहा
दूत बचन - संभल नृपति बर आषेटक षिल्ल।
रेवा तट पाधर धरा, जूह (जहाँ) मृगन वर मिल्ल।२२।।
मिले सब्ब सामंत, मत्त मंड्यौ सु नरेसुरा
दह गूना दल साहि, सज्जि चतुरंग सजिय उर।।
मवन मंत चुक्कौ न, सोइ वर मंत विचारौ।
बल घट्यौ अप्पन्नौ सोच, पच्छिलौ निहारौ।
तन सद सट्टै लीजे भुगति बंध गौरी दलह।
संग्राम भीर प्रिथिराज बल, अप्प मत्ति किज्जै कलह॥|२३॥
कवित्त
सुनिय बत्त पज्जून, राव परसंग मुसक्यों
देवराव बग्गरी, सैन दै पाव कसक्यौ।
तन सट्टै सटि मुकति, बोल भारथ्थी बोलै।
लोह अंच उड्डंत, पत्त तरवर जिमि डोलै।।
सुरतांन चंपि मुष्यां लग्यौ, दिल्ली नृप दल बानियो
भर भीर धीर सामंत पुन, अवै पटंतर जानिबौ।|२४।
कवित्त
कहै राव पज्जून, तार कढयौ तत्तारिय।
में दष्षिन वै देस, भरि जद्दव पर पारिय॥
में बंध्यो जंगलू राव चामंड सु सथ्थं
बंभ्न्वास विरास, वीर बड गुज्जर तथ्थं।
भर विभर सेन चहुआन दल, गोरी दल कित्तक गिना।
जानै कि भीम कौरु सुबर जार समूह तरवर किनौ।२५॥
कवित्त
तब कहै जैत पंवार सुनहु प्रिथिराज राजमत
जुध्द साहि गोरी नरिंद लाहौर कोट गत॥
सबै सेन अप्पनौ राज एकड़ सु किज्जै।
इष्ट भ्रत्य सगपन सुहित (विर) कागद लिषि दिज्जै।
सामंत सामि इह मंत है अरु है अरु जु मंत चितै नृपति
धन रहै ध्रम्म जस जोग है (अरु) दीप दिपति दिवलोक पति॥२६॥।
कवित्त
बह बह कहि रघुवंस रांम हक्कारि स उठ्यौ।
सुनौ सब्ब सामंत साहि आयें बल छुट्यौ।
गज रु सिंघ सा पुरिष जहीं रुंधै तहं भुज्झै
समौ असमौ जानहि न लज्ज पंकै आलुज्झै।
सामंत मंत जानै नहीं मत्त गहैं इक मरन कौ।
सुरतान सेन पहिले बंध्यौं फिर बंध्यौं तौ करन कौ।।२७॥
कवित्त
रे गुज्जर गांवांर राज लै मंत न होई।
अप्प मरै छिज्जै नृपति कौन कारज यह जोई।
सब सेवक चहु आंन देस भग्गै धर षिल्लै।
पच्छि कांम कहँ करै त्वामि संग्रांम इकल्लै।
पंडित भट्ट कवि गाइना नृप सौदागर वारि हुअ
गजराज सीस सोभा भंवर क्रन उडाइ वह सोभ लह॥|२८।।
दूहा
"परी षोर तन दंग मम, अग्ग जुध्द सुरतांन
अब इह मंत बिचारिये लरन मरन परबांन॥|२९।।
दूहा
गजन सिंह प्रथिराज कै है दिष्षिय परवांन।
बज्जी पष्षर षंडरै, चहुवांन सुरतांन।३०।।
दूहा
ग्यारह अष्षर पंच षट, लघु गुरु होइ समांन
कंठ सोभ बर छंद कौ, नाम कह्यौ परबांन॥|३१।
छंद कंठशोभा
फिरे हय बष्षर पष्षर से। मनों फिरि इंदुज पंच कसे
सो ई उपमा कवि चंद कथे। सजे मनों पोन पबंग रथे॥३२॥
उप्पर पुट्ठिय डट्ठिय दिट्ठियता। बिपरीत पलंग तताधरिता।
लगैं उड़ि छित्तिय चौन लयं। सुने खुर केह अबत्तनयं।३३।।
अग बंधि सु हेम घनंं तब चामर जोति पवंन रुनं।
ग्रह अट्ठ सतारक पीत पगे। मनो सु त के उर भांन उगे।३४॥
पय मंडिहि अंसु धरै उलटा। मनो बिट देषि चली कुलटा।
मुष कट्ठिन घूंघट अस्सु बली मनों घूंघट दै कुल बध्दु चली।३५॥
तिनं उपमा बरनं न धनं। पुजै नन बग्ग पवंन मनं।३६।।
कुंडलिया
नव बज्जी घरियार घर, राजमहल उठि जाइ।
निसा अध्द बर उत्तरे, दूत संपते आझ।
दूत संपते आइ धाइ चहु आन सुजभगिय
सिंह बिहथ्थें मुक्कि साहि साही उर तग्गिय॥
अट्ठ सहस गजराज, लष्ष अट्ठारसु ताजिय।
उभै सत्त बर कोस, साहि गोरी नव बाजिय॥३७॥
दूहा
बंचि कागद चहुआंन नै, फिर न चंद सह थांन।
मनों बीर तनु अंकुरै, मुगति भोग बनि प्रांन।३८।।
दूहा
मची कूह दल हिंदु कै, कसै सनाह सनाह।
बर चिराक दस सहस भइ, बजि निसांन अरि दाह॥३९॥
दूहा
बाबस्सू नृप मुक्क्तें दूत आइ तिहिं बार
"सजी सेन गौरी सुबर, उत्तरयौ नदि पार॥४०॥
दूहा
पंचा सजि गोरी नृपति, बंधि उतरि नदि पार।
चंद वीर पुंडीर ने, थटि मुक्के दरबार।४१।।
कवित्त
षां मारुफ ततार, षान खिलची बर गट्ठे।
चामर छत्र मुजक्क, गोल सेना रचि गट्ठे॥
नारि गोरि जंबूर, सुबर कीना गज सारं।
नूरी षां हुज्जाब नूर मुहमुद सिर भारं
नूरी षां हुज्जाब नूर महमुद सिर भारं।
वज्जीर षांन गोरी सुभर, षांन षांन हजरत्ति षा।
विय सेन सज्जि हरवल करिय, तहाँ उभौ सजिरत्ति षां।४२।
कवित्त
रचि हरबल सुरतांन, साहिजादा सुरतांनं
षां पैदा महमूदं, बीर बंध्यौ सु विहानं।
षां मंगोल लल्लरी, बीस टंकी बर षंचै।
चौतेगी सब्बाज बांन अरि प्रांन सु अंचै।।
जहगीर षान जहगीर बर, षां हिन्दू बर बर बिहर।
पच्छिमी षांन पट्ठान सह, रचि उपभै हरबल गहर।४३॥
रचि हरवल पट्ठान, षांन इसमांन रु गष्षर।
केली षां कुंजरी, साह सारी दल पष्षर।
षां भट्ठी महनंग, षान षुरसानी बब्बर।
हबसषान हब्सी हुजाब, ग्रब्ब आलम्म जास बर।
तिन अग्ग अट्ठ गजराज बर, मद आलम्म जास बर॥
पंच बिन पिंड जो उप्पजै, (तौ) जुध्द होइ लज्जी बिनां।४४।।
कवित्त
करि तमा इचौ साहि, तीस तहूँ रष्षि फिरस्तें
आलम षां आलम गुमांन षांन उजबक्क निरस्ते।
लहु मारुफ गुमस्त षांन दुस्तम बजरंगी।
हिंदु सेन उप्परे, साहि चिन्हाव सु उत्तरयो।
संभले सूर सामंत नृप रोस बीर बीरं ढुरयौ॥४५॥
दूहा
तमसि तमसि सामंत सब, रोस भरिग प्रिथिराज।
जब लगि रूपि पुंडीर ने रोक्यौ गोरी साज।|४६॥
भुजंगी
जहाँ उत्तरयौ साहि चिन्हाव मीरं।
तहाँ नज गड्यौ ठठुक्के पुएडिरं।
करी आनि साहाब सा बंधि गोरी।
ढकें धींग धीगं ढकावै सजोरी।४७।
दोऊ दीन दीनं कढ़ी बंकि अस्सी।
किधौं बद्दरं कोर नागिन नग्गी॥४८॥
हबक्कै जु मेछं भ्रमंतं जु छुट्टै
मनो घेरनी घुम्मि पारेव तुट्यै।
उरं फुट्टी बरछी बरं छब्बि नासी।
मनों जाल में मीन अध्दी निकासी॥४९/
लटक्कै जुरंनं उड्डै हंस हल्लै।
रस भीजि सुरं चवग्गान षिल्लै।
लगे सीस नेजा भ्रमैं भेज तथ्यं।
भषै बाइसं भात दीपत्ति सथ्यं।५०॥
करै मार मारं महावीर धीरं।
भये मेघधारा बरष्षंत तीरं।
परे पंच पुंडीर सा चंद कढयौ।
तबै साहि गोरिस चिन्हाव चढ्यौ॥५१॥
कवित्त
उतरि-साहि चिन्हाब, घाय पुंडीर लुथ्थि परा
उप्पारयों बर चंद, पंच बंधव सुपथ्थ धर।।
दिष्षि दूत वर चरित, पास आयो चहु आनं
(तौं) उप्पर गोरी नरिंद, हास बढ्ढी सुरतानं।
बर मीर धीर मारुफ दुरि, पंच अनी एकठ जुरी।
मुर पंच कोस लाहौर तें, मेच्छ मिला नह सो करी॥५२॥
दूहा
बीर रोस बर बैर बर, झुकि लग्गौं आसमांन।
तौं नन्दन सोमेस को, फिरि बंधौं सुरतांन।५३।।
दूहा
चन्द्र ब्यूह नृप बंधि दल धनि प्रथिराज नरिंद।
साहि बंधि सुरतान सों, सेना बिन विधि कंद॥।५४।
कवित्त
बर मंगल पंचमी दिन सु दिनौ प्रिथिराजंं
राह केतु जप दीन दुष्ट टारे सुभ काजंं
अष्ट चक्र जोगिनी भोग भरनी सुधिरारी।
गुरु पंचमि रवि पंचम अष्ट मंगल नृप भारी।
कैइन्द्र बुध्द भारथ्थ भल कर त्रिशूल चक्राबलिया
सुभ घरिय राज बर लीन बर चढ्यौ उदै कुरह बलिय।५५॥
दूहा
सो रचि अबध्द अध, उग्गी महंबधि मंद।
बर निषेद नृप बंदयो, को न भाइ कवि चंद।५६।।
कवित्त
(यों) प्रात सूर बंछई, (ज्यौं) चक्क चक्किय रवि बंछै।
(यों) प्रात सूर बंछई, (ज्यौं) सुरह बुध्दि बल सो इंछै।
(यों) प्रात सूर बंछई, (ज्यौं) प्रातवर बंछि वियोगी।
(यों) प्रात सूर बंछई, (ज्यौं) सु बंछै बर रोगी।।
बंछयौ प्रात ज्यों त्यों उनन, (ज्यों) बंछै रंक करन्न बर।
(यों) बंछयौ प्रात प्रथिराज ने, (ज्यौं) सती सत्त बंछैति उर।।५७।।
छंद दंडमाली
भय प्रात रत्तिय जु रत्त दीसय, चंद मंदय चंद्यौ।
भर तमस तामस सूर वर मरि, रास तामस छंद्यौ।।
बर बज्जियं नीसांन घुनि घन, बीर बरनि अकूरयं।
धर धरकि धाइर करषि काइर, रसमि सुरस कूरयं।५८॥
गज घंट घन किय रूद्र भनकिय, पनकि संकर उद्द्यौ।
रन नंकि भेरिय कंह हेरिय, दंति दांन धनं द्यौ।।
सुनि बीर सद्दइ सबद पड्डइ, सद्द सद्दइ छंड्यौ
तिह ठौर अद्भुत होत त्रप दल, बंधि दुज्जन षंड्यौ।५९॥
सन्नाह सूरज सज्जि घाट, चंद ओपम राजई।
(कै) मुकुर में प्रतिब्यंब राजय, (कै) सत्त धन ससि साजई।
बर फल्लि बंबर टोप औपत, रीस सीसत आइये।
नष्षित्र हस्त कि भांन चंपक, कमल सूरहि साइये६०॥
बर बीर धार जुगिंद पंत्तिय, कब्बि ओपम पाइयं।
तजि मोहमाया छोह कल बर, धार तिथ्थह धाइयं॥
संसार संकर बंधि गल जिमि, अप्प बंधन हथ्थयं।
उनमत्त गज जिमि नंषि दीनी, मोहमाया सथ्थयं।६१।
सो प्रबल महजुग बंधि जोगी, मूनि आरम देवयो।
सामंत धनि जिति षित्ति कीनी, पत्त जिमि भेवयो॥६२।II II
दूहा
क्रयं गाह इक मुगति की, क्यौ करिजै बाषांन।
सोल अनंष सामंत नै, (ज्यौं) कच करवति पाषांन।६३।।
दोहा
बाइ बीष धुन्धर परिय, बद्दर छाये भांन।
कुन घर मंगल बज्जहों, कै चढ़ि मंगल आंन।।६४।
दिष्ट देषि सुरतांन दल, लोहा चक्कत बांन।
षहक फेरि उडगन चले, निसि आगम फिरि जांन।।६५।
धजा बाइ बंकुर उड़ति, छवि कविन्द इह आइ।
उडगन चंद निरिंद बिय, लगी मनो अइ पाइ॥६६।
सेसनि संकहि बज्जतहि, बाजे कुहक सुरंग
मेटै सद्द निसांन के, सुने न श्रवण ति अंग।६७।।
अनी दोउ घन घोर ज्यौं, धाइ मिलैं कर घाट।
चित्रंगी राबर बिना, करै कोन दह बाट।।६८।।
कवित्त
पवन रूप परचंड, घालि असिवर झारै।
मार मार सुर बज्जि, पत्त तरु अरि सर परै।।
फट्टकि सद्द फोफरा हु डडु कंकर उष्षारैं
कटि भसुएड परि मुंड, भिंड कंटक उप्पारै।
बज्जयों विषम मेवारपति, रज उड़ाइ सुरतांन दल।
समरथ्थ समर मनमथ मिलिय अनी मुष्य पिष्यौ सबल।६९।।
कवित्त
रावर उप्पर धाइ परयौ, पाँवार जैत षिझि।
तिहि उप्पर चामंड, करयो हुस्सेन षांन सजि॥
धक्काई धक्काइ, दोउ हरबल बल मंज्झे।
पच्छ सेन आहु ट्ठी, अनी बंधी आलुज्झे।।
गजराज बिय सु सुरतांन दल, दह चतुरंग बर बीर बर।
धनि धार धार धारह धनी, बर भट्टी उप्पारि करि॥७॥
कवित्त
छत्र मुजीक सु अप्पि, जैत दिनो सिर छत्रं।
चन्द्र व्यूह अक्कुरिय राजु, हुअ तहाँ इकत्रं।
एक अग्र हुस्सैन, वीय अग्रह पुएडिरं।
मध्दि भाग रघुवंश, राम उपभो बर बीरं॥
सांषलौ सूर सारंग दे, उररि षांन गोरिय मुष
हथ नारि जोर जंबुर घन, दुहूँ बाह उपभेति रुष71।।
कवित्त छट्टी अध्द बरघटीय, चढ्यौ मध्यांन भांन सिर।
सूर कंध बर कट्टी मिले काइर कुरंग बर।
घरी अध्द बर अध्द, लोह सो, लोह जु रुक्के।
मन अग्गै अरि मिले, चित्त में कंक षरक्के॥
पुंडीर मीर भंजर भिरन, लरन तिरच्छों लग्गयो।
नव बधू जेम संका सुबर, उदौ जानि जिमि भग्गयौ॥७२॥
छंद भुजंगी
मिले चाइ चहु आंन सा चाँपि गोरी।
स्वयं पंच कोरी निसांनं अहोरी।।
बजे आवधं संभरे अध्द कोसं।
तिनं अग्ग निसांन मिलि अध्दकोसं।।७३।।
बर बंबरं चौंर माहिति साई।
हले छत्र पीतं बले यार धाई।
बुलै सूर हक्के हहक्के पचारं
घले बथ्थ दोऊ धरं जा अषारं॥।७४।।
उतंमंग टूट्टै परै श्रौन धारी।
मनो दंड सुक्की अगी बाइ बारी।।
नचैं कंध बंधं हकैं सीस भारी।
तहाँ जोगमाया जकी सी विचारी।।७५।।
बढ़ी सांग लग्गी बजी धार धारं।
तहाँ सेन दूनू करैं मार मारें।
नचै रंग भिंरू गहैं ताल वीरं
सुरंग अच्छरी बंधि नारद तीरं।।७६।।
इसी जुध्द वध्द उबध्देउ भानं
भिरै गोरियं सेन अरु चाहु आनं
करै कुंडली तेग वग्गी प्रमानं
मनो मंडली रास तं कंह ठानं।।७७॥।
फूटी आवधं माहि सामंत सुरं।
बजै गोर ओरं मनो बज्ज झूर।
लगै धार धारं तिनै धरह तुट्टै।
दुहू् कुम्भ भग्गै करंकं अहु ट्वै।७८।।
फूटी श्रोन बुड्ढे प्रथम्मी समाजं।
पराक्रम राजं प्रथम्मी समाजं॥
पराक्रम्म राजं प्रथीपत्ति रूठ्यौ।
रनं रुंधि गोरी समं जंग जुठ्यौ।७९।।
दूहा
तेज छुट्टी गोरी सुबर, दिय धीरज तत्तार।
मो उपभै सुरतान को, भीर परीइ न बार।|८०।।
छंद मोतीदाम
रतिराज रु जोवन राजत जोर।
चंप्यौ ससिरं उर सैसव कोर॥
उन मधि मध्दि मधू धुनि होय
तिनं उपमा बरनी कवि कोय॥|८१॥
सुनी बर आगम जुब्बन बैन।
नच्यौ कबहूँ न सु उदि्दम मैंन।
कबहूँ दुरि कंनन पुच्छ्त नैन
कहौ किन अब्ब दुरि बैन।।८२।।
ससि रोरन सैसव दुंदुभि बज्जि।
उभै रतिराज स जोवन सज्जि।।
कही वर श्रौन सुरंगिय रज्जि।
चपे नर दोउ बनं बन भज्जि॥|८३॥
इय मीन नलीन भये अति रज्जि।
भय विम्रम भारु परीवहि नज्जि॥
मुर मारुत फौज प्रथंमं चल्लाइ।
गति लज्जि सकुच्छि कछे मिलि आइ।।८४।।
दहि सीतम धूप न कंदहि जीव
प्रगटै उर तुच्छ सोऊ उर भीव।।
बिन पल्लव कोर हिता बिराजत अंभ॥|८५।
कलि कंठन कंठ सज्यौ अलि पंप।
न उड्डिय भ्रंग नवेलिय अंष।।
सजी चतुरंग सज्यो बनराइ।
बजी इन उप्पर सैसव जाइ।८६॥
कवि मत्तिय जूह तिनं वहु घोरा
ब्रनंत वैसंधय चंद कठोर।|८७।।
छंद रसावला
बोल पुच्चै घनं। स्वामि जंपे मनं।
रोस लग्गे तनं। सिंह मदद मनं।८८।।
छोह मोहं षिनं। दांन छुट्टे ननं।
नाम राजं घन। ध्रम सातुक्कनंं।८९।।
मेच्छ बाहं बिनं। रत्त कंधं न नं।
ढल्ल जा ढाहनं। जीव ता सा हनं।।९०।।
बांन जा संधनं। पंषि जा बंधनं।
श्याम सेतं अनी। पीत रत्तं घनी।।९१।।
दूह मच्ची षरी रोस दंती फिरी।
फौज फट्टी पुनंं सुर उपभे घनं।९२।।
लेहु लेहु क्करी लोह काढ़े अरी।
कन्ह जा संभरी। पाइ मंडै फिरी॥९३॥
बीर हक्कें करी। नेंन रत्तं बरी।
षंड जा षोलियं। बीर सा बिलियंं।९४॥
बीर बज्जे धुरं।ं दंति कट्टे छुरं।
झार संकोरियं। फौज विप्फौरियं।।९५।।
दंति रुध्दी परे। अग्ग फूलं झरे।
हेम पन्नारियं। जावकं ढारियं॥९६।
आननं हंकयं। अंग जा नंचयं।
सत्त सामंतय। बांन सा पथ्थयं।।।९।।
फौज दोउ फटी। जांनि जूनी टटी।
कवित्त
सोलंकी माधव नरिंद, (षांन) षिलची मुष लग्गा।
सुबर बीर रस बीर, बीर बीरा रस पगगा॥
दुअन बुध्द जुध तेग दुहूँ हथ्थन उपभारिय
तेग तुट्टी चालुक्क बथ्थ परि कढ्ढि कटारिय॥
अग अग्ग रक्कि ठिल्ले बलन, अधम जुध्द लग्गे लरन।
सारंग बंध घन घाव परि, गोरी वै दिन्नौ मरन।।९९।।
कवित्त
खग्ग हटक्कि, जमन सेन समुंद गजि।
हय गय बर हिल्लोर, गरुअ गोइंद दिष्षि सजि॥
अगम अठेल अभंग, नीर असि मीर समाहिय।
अति दल बल आहुट्टी, पच्छ लज्जी परवाहिय।।
रज तज्ज रज्ज मुक्कि न रह्यौ, रज न लगी रज रज भयौ।
उच्छंगन अच्छर सों लयौ, देव बिमानन चढ़ि गयौ॥|१००॥
कवित्त
परि पतंग जै सिंघ, (पै) पतंग अप्पुन तन दज्झे।
(इन) नव पतंग गति लीन, करे अरि धज धज्जे॥
(उह) तेल ठांम बाति, अगनि एकल विरुज्झाइय।
(इह) पंच अप अरि पंच, पंच अरि पंथ लगाइय।।
आ रन्नि कुंआरी बर बरयौ, दैइ दाहन दुज्जन दबन।
जीतेव असुर महि मंडलह, और ताहि पुज्जै कबन।१०१।
कवित्त
रुप्पौं बीर पुंडीर, फिरी पारस सुरतांनी।
सस्त्र बीर चमकंत, तेज आरुहि सिर ठांनी॥
टोप औप तुटि किरच, सार सारह जरि भारे।
मिलि नच्छित्र रोहिनी, सीस ससि उडगन चारे॥
उठि परत मिरत भंजत अरिन, जै जै जै सुरलोक हुअ
उठ्यौ कमंध पल पंच चव, कौन भाइ कंप्पौ जु धुआ।१०२॥
कवित्त
दुज्जन सल कूरंभ, बंध पल्हन हक्कारिय।
सम्हो षां षुरसांन तेग लंबी उपभारिय।
टोप टुट्टी बर करिय, सीस पर तुट्टि कमंधं।
मार मार उच्चार, तार तं नंचि कमंधं।
तहं देषि रूद्र रुद्रह हस्यो हय हय हय नंदी कहयौ।
कवि चंद सयल पुत्री चकित, पिष्षि बीर भारथ नयौ।|१०३॥
कवित
सोलंकी सारंग, षांन षिलची मुष लग्गा।
वह पंगा नौ भ्रत्त इतें चहु आन बिलग्गा
है कंघन दिय पाय, कन्ह उत्तर बिय बाजिय।
गज गुंजार हुँकार धरा गिर कंदर गाजिय॥
जय जय ति देव जय जय करहि, पहु पंजलि पूजत रिनह
इक परयौ षेत सोधै सकल, इक्क रह्यौ बंधे धुनह॥।१०४॥
कवित्त
करी मुष्ष आहु ट्ठ वीर गोइंद सु अष्ब
कबिल पील जनु कन्ह, दंत दारुन दहि नष्षै॥
सुंड दंड भयै षंड, पीलवानं गज मुक्यों।
गिध्द सिध्द बेताल, आइ अंषिन पल झुल्यौ।
तत्तर षांन संम्हौ सु क्रत सिंह हक्कि अंबर डुल्यौ।१०५।।
कवित्त
षोलि षग्ग नरसिंघ, षीज्झि षल सीसह झारिय।
तुटि धर धरनि परंत, परत संभरि कट्टारिय॥
चरन अंत उरझंत, वीर कुरंभ करारौ।
तेग अंत चुक्कंत, झरी झर लोह संभारौ।।
चलि गयो न क्रमन, क्रम्म न चलै, डुल्यौ न, डुलत न हथ्थ बर।
तिन परत वीर दाहर तनौ, चामंडां बज्जी लहर।|१०६।।
भुजंगी
छुटी छंद निच्छंद सीमा प्रमांनं
मिली ढालनी माल राही समानं
निसा मांन नीसांन नीसांन धुअं
धुअं धुरिनिं मुरिनं पूर कुअं१०७॥
सुरत्तान फौजं तिनें पंत्ति फेरी।
मुखं लग्गि चहु आंन पास्स घेरी।
भये प्रात सुज्जात संग्राम षालं।
चहु व्वांन उट्ठाय सालो पिथांलं।१०८।।
कवित्त
जैत बंध ढहि परयौ, सुलष लष्षन कौ जायौ।
तहं झगरी महमाय, देवि हुँकारौ पायौ।
हुँ कारै हुं कार जूह गिध्दनि उड्डायो
गिध्दिनि तें अपछरा, लियो चाहतौ न पायौ।।
अवतर न सोइ उतपति गयौ, देवथांन विब्रंम बियौ।
जम लोक न सिवपुर ब्रम्हपुर भान थांन मानै भियौ।१०९॥
कवित्त
तन झंझरि पंवार परयौ धर मुच्छि घटीय बिय
बर अच्छर बिटयौ, सुरग मुक्के न सुर गहिया
तिहित बाल ततकाल, सलप बंधव ढिग आइय।
लिषिय अंग बिह्य हथ्थ, सोई वर बंचि दिषाइय॥
जंमन मरन सह दुह सुगति नन मिट्टै भिटह न तुअ
ए बार सुबर बंटहु नहीं बंधि लेहु सुक्की बधुआ११०॥
दूहा
रांमबंध कौ सीसवर, ईस गह्यौ कर चाइ।
अथ्थि दरिद्री ज्यौं भयो, देपि ललचाइ।१११।
दूहा
जाम एक दिन चढ़त बर, जंघारौ झुकि बीर।
तीर जेम तत्तौ परयौ, धर अष्षारे मीर॥११२॥
कवित्त
जंघारौ जोगी जुगिंद कहयौ कट्टारौ।
फरस पानि तुंगी त्रिसूल पष्षर अधिकारौ।।
जटत बांन सिंगी बिभूत हर बर हर सारौ।
सबर सद्द बह्यौ, विषम दग्गं घन झारौ।
आसन सदिट्ठ निज पत्ति में, लिय सिर चंद अम्ित अमर।
मंडलीक रांम रावत भिरत, न भौ बीर इत्तौं समर||११३।।
कवित्त
सिलह सज्जि सुरतान, झुक्कि बज्जे रन जंगं।
सुने श्रवण लंगरी, बीर लग्गा अनभंगं।
बीर धीर सत मध्य, बीर हूँकरि रन धायौ
सामंतां सत मध्दि, मरन दीनं भी सायौ।
पारंत धक्क हाकंत रिन, पग प्रवाह पग पुल्लयौ।
बिब्भूति चंद अंगन तिलक, वहसि वीर हकि बुल्लयौ।११४।
कवित्त
लंगा लोह उचाइ, परयौ घुम्मर घन मज्झै।
जुरत तेग सम तेग, कोरे बद्दर कछु सुज्झै।।
यौं लग्गौं सुरतांन, ज्यों अनल दावानल दंगं।
ज्यों लंगूर लग्गया, अगनि अग्गै आ लंगं।।
ढक मार उझार अपार मल, एक उझार सज्झारयौ।
इक वार तरयौ दुस्तर रूपै, दुजै तेग उभारयौ।११५।
कुंडलिया
तेग झारि उज्झारि बर, फेरी उपम कवि कथ्य
नैन बांन अंकुरि बहुरि (परैं), तन टूट्टै बहि हथ्थ।।
तन टूट्टै बहि हथ्थ, फेरि बर बीर सबीरह।
मरन चित्त सिंचयौ, जन्म तिन तजी जंजीरह॥
हथ्थ बथ्थ आहित फिर, तक्के उर बहु बेगा।
लंगा लंगरि राय, बीर उच्चाइसु तेगा।।११६॥
कवित्त
(तब) लौहांनौ महमुंद, बांन मुक्के बहु भारी
फुट्टी सु ढढ्ढर वही जुबान पिट्ठ उरुध्द निकारी।।
मनों किवारी लागि,पुट्ठी षिरकी उघघारिय
कट्टरी बर कट्ठी, वीर अवसान संभारिय॥
एक झर मीर उज्झारि झर, करि सुमेर परिअरि सूफिरि
चवसट्ठी षांन गोरी परे, तीन राइ इक राज परि॥११७॥
कवित्व
मंनि लोह मारुफ, रोस बिड्डर गाहक्के।
मनों पंचानन बाहि, सद्द सिरसइ़ हहक्के।
दुहूँ मीर बर तेज सीस इक सिंघह वाही
टोप टुट्टी बर करी, चंद उप्पमा सु'पाई।।
मनु सीस बीय श्रंग बिज्जुलह, रही हेत तुटि भाम न हति।
उतमंग सुहै बिव ट्ूक हवै, मनु उडगन नृप तेजमति।११८।।
छंद षांन चौसटि्ठ गोरी नरिदं।
परे सुभ तेरह कहै नाम चंदं।
परे लूथ्थि लूथ्थि जु सेना अलुज्फै
लिषे कंक अंकं बिना कौंन बुज्फै॥ ११९॥
परयौ गोर जैतं मधि सेस ढारी।
जिन राषीय रेह अजमेर सारी।।
परयौ कनक आहु ट्ठ गोविन्द बंधं
जिनें मेछकी पारसं सब्ब षध्द॥|१२०॥
परयौ प्रथ्थ बीरं रघुव्वंश राई।
जीनें संधि षंधार गोरी गिराई।।
परयौ जैत बंधं सु पावार भानं
जीनें भेजियं मीर बानेति बानं।|१२१।
परयौ जोध संग्राम सो हंक मोरी।
जिनें कढ़िढियं बैरगो दंत्त गोरी।
परयौ दाहिमौ देव नरसिंह अंसी।
जिनें साहि गोरी गिल्यौ षांन गन्सी|१२२
परयौ बीर बानेंत नादंत नादं।
जिनें साहि गोरी मिल्यौ साहिजादं॥
परयौ जावलौ जल्ह तें सेन भष्षं।
हए सार मुष्षं निसंकंत नष्बं।१२३।।
परयौ पल्हनं बंध माल्हन राजी।
जिनें अग्ग गोरी क्रमं संत भाजी॥
परयौ वीर चहुआंन सारंग सोरं
बजे दोइ उहें ज आकास तोरं॥|१२४।।
परयौ राव भट्ठी बरं पंच पंचं।
जिनें मुक्ति के पंथ चल्लाई संच।
परयौ भान पुंडीर ते सोम कामं
जिनें जुंझते बज्जयो पंच जामं|१२५।
परयौ राउ परसंग लहु बंध भाई
तिनं मुक्ति अंसं छिनं मध्दि पाई।।
परयौ साहि गोरी भिरै चाहु आनों
कुसादे कुसादे चवै मुष्ष षांनं।१२६ ।।
कवित्त
दस हथ्थी सु बिहांन, साहि गोरी भुष किन्नो
कर अकासवादी ततार, सोर चवकोड सदिन्नौ।
नारि गोर जग्बूर, कुहक बर बांन अघातं।
गज्जि भग्ग प्रथिराज, चित्त करयौ अकुलातं।
सो मोह कोह बर बज्जि कें, ब्रज उन धार धमंसि कैं।
सामंत सूर बर बीर बर, उठे बीर बर हमहि कैं।।१२७॥
कवित्त
अध्द अध्द जोजनह, मीर उड़ि संगा फेरी।
तब गोरी सुरतान, रोस सामंतह घेरी।।
चक्र अवन चौडोल, अग्ग सेखन पंचा सौ।
सूर कोट हवै जोट, सार मरनह हु ल्लासौ।
बर अगनि बगी हल्यौ नहीं, पध्दर कोट सुजोट हुआ
बर बीर रास समरह परिय, सार धीर बर कोट हुअ।१२८।
छंद रसावला
मेलि साहं भरं। षग्ग षोले रुरं।।
हिंदु मेच्छं जुरे मंत जा जं भरं।।१२९।।
दंत कट्ढे करं। उप्पमा उप्परं।।
कंद भीले जुरं कोपि कट्ठे करं॥१३०॥
कंध नं नं धरं। पंष जष्बं फिरं।
तीर नंषै करं। मेघ बुट्ढे बरं।१३१।
आवधं संफरं। बक्क तेगं करं॥
चंद बीजं बरं अध्द अध्द धरं॥।१३२।।
बीय बंधं धरं। कित्ति जंपै सरं॥।
अस्सु दुएढै फिरं रंभ बंछै बरं।|१३३।।
थान थानं नरं। धार धारं तूटं।
भूमि बासं छुटं ..................... ।।१३४।।
साह गोरी बरं। षग्ग षोले करं॥।
कवित्त
।।१३५।
षां षुरसांन ततार, षिज्फि दुज्जन दल भष्षै
बचन स्वामि उर षटकि, हटकि तसबी कर नंषै।
कजल पंति गज बिथुरि, मध्य सेना चहु आंनी
अजै मानि जै रारि, बिय स तेरह चंपि प्रांनी।
धामंत फिरस्तन कढ़िढ असि, दहति पिंड सामंत भजि
बर बीर भीम बाहन करह, परे धाइ चतुरंग सजि।१३६॥
भुजंगी
परयौ रघ्घुबेंसी अरी सेन जाड़ी।
हुतौं बाल वेसं मुषं लज्ज दाढी॥
बिना लज्ज पष्षै सची ढुंढि पिष्यौ।
मनो दिग्भरू जानि कै मीन क्रष्यौ।१३७॥
परयौ रूक रिन बट्ट अरि सेन गाही।
मनो एक तेगं झरी नीर दाही॥
फिरे अड्ड बड्ढे उपन्मा न बट्ढै
विश्वंक्रम्म बंसी कि दारुन्न गट्ढै॥१३८।।
परे हिंदु मेंच्छं उलथ्थे पलथ्थी
करै रंभ भैर ततथ्थे ततथ्थी॥
गहैं अंत गिध्द बरं जे कराली।
मानों नाल कढ़ढे कि सोभै मनाली॥१३९॥
तुटै एक टंगा टिकै षग्ग धायौ।
मनो बिक्रमं राइ गोइंद पायौ।।
गहै हिंदु हथ्थ मलेच्छं भ्रमायो
जनौ भीम हथ्थीन उप्पम्म पायौ॥१४०॥
ननं मानवं जुध्द दानब्ब ऐसौ।
ननं इंद तारक्क भारथ्थ कैसौ।।
झुकं बज्जि झंकारयं झंपि उट्ठै।
बरं लोह पंचं बधं पंचं छुट्टै॥१४१।
मनो सिंघ उज्झै अरूज्फंत छुट्टै।
रनं देवसाई सए आब षुट्टै।
घनं घोर दुष्ढंत उतकंठ फेरी।
लगै फग्गरै हंस हज्जार एरी||१४२॥
तुटै रुंड मुंडं बरं जे करेरी।
बरद्दाइ रिश्फैं दुहूं दीन्न मेरी।१४३।।
कवित्त
पच्छैं भो संग्राम, अग्ग अपछर बिच्चारिय।
पुछै रंभ मेंनिका, अज्ज चित्तं किम भारिय॥
तब उत्तर दिय फेरि, अज्ज पहु नाई आइय
रथ्थ बैठि औथान, सोझ तह कंत न पाइय।।
भर सुभर परे भारथ्थ भिरि, ठांम चुप जीति सधि।
उथकीय पंथ हल्लै चल्यौ, सुथिर संभौ देषीय नथि॥१४४॥
कुंडलिया
कहै रंभ सुनि मेनका, एरहु जिन मत जुथ्थ
अरिय अनंमति जांनि करि, जोति आवै ग्रह रथ्थ।
जोति आवैं ग्रह रथ्थ, ब्रम्ह सिव लोकह छंडी।
(कै) बिश्न लोक ग्रह करै, (कै) भांन तन सों तन मंडी॥
रोमंच्चि तिलक्कं बसि बरी, इंद्र बधू पूजन जही
ओपम जोग न न हुअ बहुरि अवतार न बर है कहीं॥१४५॥
कवित्त
षां हुसेन ढरि परयौ, अरब फुनि परयौ सार बहि।
भुज्फ फेरी सत सीब, पान उजबक्क पेत्त रहि।
षां ततार मारुफ, षांन पान घट घुम्मैं।
तब गोरी सुबिहांन, आइ दुज्जन मुष झुम्मै।
कर तेग झल्लि भुट्ठिय सुवर नहि सुरतानह पन करी।
अदि हार दीह सुबर, तबहिं साहि फिर पुक्करी१४६।
कवित्त
तब साहिब गोरी नरिंद, सत्त बानं जु समाही।
पहल बान वर वीर, हने रघुवंस गुराई।
दुजै बांन तकंत, भीम भट्टी वर भंजिय।
चहु आंन तिय बांन, पान अर्ध्द घर रंजिय।
चहु आंन कमान सुसन्धि करि तीय बान हथह थहरिय।
तब लग्गि चंपि प्रथिराज नें, गोरी बै गुज्जर गहिय|१४७॥
कवित्त
गहि गोरी सुरतान, पान हुस्सेन उपारयौ।
षां ततार निसुरत्ति, साहि फोरी कारि डारयौ।
चामर छत्र रषत, बघत लुट्टे सुल्तानी
जै जै जै चहु आन, बजी रन जुग जुग बानी।
गजि बंधि सुरतान कों, गय ढिल्ली नृपति।
नर नाग देव अस्तुति करैं, दिपति दीप दिवलोक पति|१४८॥
दूहा
समै एक बत्ती नृपति, बर छंडयौ सुरतांना
तपैं राज चहु आन यौं, ज्यों ग्रीषम मध्यांन।१४९।।
कवित
मॉस एक दिन तीन, साह संकट में रुन्धौ।
करी अरज उमराऊ, दंड हय मंगिय सुध्दों।
हय अमोल एव सहस, सत्त सेन दीन ऐराकी।
उज्जल दंतिय अट्ठ, बीस मुरु ढाल सु जक्की।
नग मोतिय मानिक नवल, करि सलाह संमेल करि।
पहिराइ राज मनुहार करि, गज्जनवै पठ्यौ सु घर।१५०॥
NOTE :- यदि आपको हमारे द्वारा किया गया यह प्रयास अच्छा लगा है, तो इस पोस्ट को अपने साथियों के साथ अवश्य साझा करें। आप अपने सुझाव नीचे कमेंट बॉक्स में दर्ज कर सकते है। जिससे हम हिन्दी साहित्य के आगामी ब्लॉग को और बेहतर बनाने की कोशिश कर सकें।
Post a Comment